कभी हसरत थी आसमां छूने की, अब तमन्ना है आसमां पार जाने की, ये वे दो पंक्तियाँ हैं जिन्हें उरई में आयोजित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी
में नवम्बर 2005 में पढ़ा था. ये दो पंक्तियाँ बाद में हमारी
पहचान बन कर हमारे साथ चलने लगीं. स्थानीय दयानंद वैदिक महाविद्यालय में हिन्दी साहित्य
विषय से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था. महाविद्यालय में अध्ययन और
अध्यापन करने के कारण तथा बचपन से यहाँ के बहुत से प्राध्यापकों के साथ पारिवारिक
सम्बन्ध होने के कारण लगाव भी था. इस आपत्तिकाल में भी यहाँ के लोग हमारे साथ मजबूती
से खड़े हुए थे. विषय से सम्बंधित संगोष्ठी होने के कारण और महाविद्यालय से अपनत्व
होने के कारण संगोष्ठी में सहभागिता करना अनिवार्य स्थिति जैसा ही था.
उरई
में कुछ दिनों की झिझक के बाद व्हीलचेयर का उपयोग करना शुरू कर दिया था. पीसीपीएनडीटी
समिति की बैठक में कार से जाने के बाद कहीं जाना भी नहीं हुआ था. व्हीलचेयर से बस
घर के अन्दर ही टहलना होता रहता था. ऐसा लोगों के घर पर मिलने आने के दौरान अथवा
अपने सामान्य क्रियाकलापों के दौरान किया जाता. उसी समय एक साहित्यिक कार्यक्रम का
आमंत्रण मिला. घर के पास स्थित उक्त महाविद्यालय के वाचनालय में इसका आयोजन किया
जा रहा था. मन बहुत हो रहा था जाने का किन्तु साथ ही झिझक भी महसूस हो रही थी. झिझक
एक तो अपनी स्थिति को लेकर थी, साथ ही वहाँ कैसे जाया जायेगा इसे लेकर भी थी. खुद
को खुद की निगाहों में सिद्ध करने के लिए जाना भी चाहते थे. कार्यक्रम स्थल के घर
से नजदीक होने के कारण व्हीलचेयर से ही जाने का निश्चय किया. उस कार्यक्रम में
व्हीलचेयर सहित पहुँचने के बाद हिम्मत बढ़ी. बाहर निकलने की झिझक भी दूर हुई.
इस
कार्यक्रम में शामिल होने से अपनी नजर में हमारी झिझक दूर हुई. यह भी समझ आया कि
इस तरह के सार्वजनिक कार्यक्रमों में सहजता से सहभागिता की जा सकती है. इसी के साथ
उन तमाम लोगों के मुँह पर तमाचा भी पड़ा जो हमें इस दुर्घटना के बाद सार्वजनिक जीवन
से, सामाजिक जीवन से दूर हो जाने की भविष्यवाणी कर चुके थे. इस कार्यक्रम में सम्मिलित
हो जाने के बाद राष्ट्रीय संगोष्ठी में सहभागिता करने का जोश आ गया. घरवालों में
भी यह विश्वास बैठ गया कि हम व्हीलचेयर से आसानी से ऐसे कार्यक्रमों में आ-जा सकते
हैं.
हिन्दी
संगोष्ठी के लिए शोध-पत्र भी तैयार किया और यथासमय उसे पढ़ने का अवसर भी मिला. दुर्घटना
के बाद यह पहला कार्यक्रम था जिसमें मंच से बोलने का अवसर मिला था. वह समय पूरे
सभागार को अत्यंत भावुक करने वाला था. न केवल हमारी आँखों में नमी थी बल्कि हमारे
बहुत से शुभेच्छुजनों की आँखें भी बरस रही थीं. माइक के सामने बोलने का विश्वास
ज्यों का त्यों बना हुआ था, आवाज़ में भी आत्मबल झलक रहा था अंतर यदि कहीं नजर आया
तो बस देखने वालों को. उनको उस समय हम बजाय खड़े होकर बैठे हुए बोलते दिखाई दिए. संगोष्ठी
में जिस तरह से लोगों की उत्साहित करने वाली टिप्पणियाँ मिलीं उन्होंने आंतरिक
शक्ति के संवर्द्धन का कार्य किया.
इस
संगोष्ठी के अगले महीने इसी महाविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग द्वारा आयोजित नेशनल
सेमिनार में भी सहभागिता की. Stress and Coping विषय पर
आयोजित सेमिनार में गुम होता बचपन शीर्षक से प्रस्तुत हमारे पेपर को बहुत
सराहा गया. घर में खाली समय का सदुपयोग इस तरह के अकादमिक कार्यों के लिए,
पठन-पाठन, लेखन में किया जा रहा था. इस सेमिनार में उस अनुभव से फिर गुजरना पड़ा
जिससे कुछ वर्ष पहले आश्चर्यजनक रूप से हमें गुजरना पड़ा था. भोजनावकाश के समय
महाविद्यालय के मनोविज्ञान के विद्यार्थियों ने हमें घेर लिया. हिन्दी विषय के विद्यार्थी
द्वारा मनोविज्ञान जैसे वैज्ञानिक विषय पर अपना सारगर्भित पेपर प्रस्तुत करना उनके
लिए आश्चर्य का विषय था. कई बिन्दुओं पर उन्होंने अपनी जिज्ञासाओं को दूर किया,
कुछ समस्याओं का समाधान चाहा और उसके बाद उनमें से कुछ ने अपनी-अपनी नोटबुक हमारे
सामने बढ़ा दी. हमारे चौंकने जैसी स्थिति पर उन्होंने हमसे ऑटोग्राफ देने का आग्रह
किया. हँसते-मुस्कुराते सभी बच्चों को खुश किया. हमें समझ आ रहा था कि विषय सम्बन्धी
आश्चर्य होने के साथ-साथ उन बच्चों के मन में हमारी शारीरिक स्थिति को लेकर भी
आश्चर्य बना होगा. उनके लिए संभव है कि यह कौतूहल का विषय हो कि शारीरिक रूप से
ऐसी स्थिति वाला व्यक्ति कैसे सक्रिय रह सकता है.
यह
आज भी सहज रूप में देखने को मिलता है कि समाज में दिव्यांगजनों को लेकर मानसिकता
में बहुत सकारात्मकता नहीं है. उनकी सक्रियता को आश्चर्य से देखने की आदत बनी हुई
है. कहीं-कहीं उनकी शारीरिक स्थिति को हास्य का विषय भी जाने-अनजाने बना लिया जाता
है. बहरहाल, उन बच्चों को आशीर्वाद के साथ ऑटोग्राफ तो दिया ही साथ ही उनको समझाया
कि आत्मविश्वास को सशक्त बनाकर, आत्मबल को मजबूत करके किसी भी समस्या से निपटा जा
सकता है. यही कदम सफलता की तरफ ले जाता है.
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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र
आप एकदम सही कह रहे हैं इसी तरह का एनवायरमेंट है। दिव्यांगजन को स्वयं भी आत्म साहस और आत्मविश्वास के साथ आगे आने की जरूरत है परंतु इसके पीछे सबसे पहले घर में उसे वैसा ही पॉजिटिव ट्रीटमेंट देना चाहिए। मुझे अच्छी तरह से याद है मुझे मम्मी राशन लेने भेज देती हूं 5 किलो तक का भार क्रैचस के साथ पकड़ पाना शुरू शुरू में असाध्य लगता था धीरे-धीरे क्षमता पता नहीं कैसे अपने आप बढ़ गई हुआ आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ चले
ReplyDeleteसही कह रहे आप. आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास आदि को घर से ही विकसित किया जा सकता है.
Deleteआत्मबल बहुत बड़ी चीज होती है, अगर वह है तो किसी भी परिस्थिति को अनुकूल बनाया जा सकता है.
ReplyDeleteआत्मबल बनाए रखना चाहिए व्यक्ति को। इसके लिए वो कुछ ऐसे काम करे जिससे उसे खुशी मिले, इससे उसके आत्मबल और आत्मविश्वास में वृद्धि होती है।
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