32 - आशा-निराशा के बनते-बिगड़ते पल

गुजरते, इंतजार करते-करते अंततः वह दिन भी आ गया जबकि कृत्रिम पैर लगवाने की अनुमति दोनों पैरों के घावों की तरफ से मिल गई. अभी पैर बना भी नहीं था, पैर का नाप भी नहीं दिया गया था मगर अपने आपमें लगने लगा था जैसे कि हम अपने पैरों पर चलने लगे हैं. व्हीलचेयर भी अपने पैरों जैसी महसूस होने लगी. यद्यपि उन्हीं दिनों में खड़े होने के अभ्यास के साथ-साथ चलने का प्रयास भी किया था तथापि वह सफल नहीं हो सका था.


हाँ, सही कह रहे हैं, उस समय जबकि हमारा पैर नहीं बना था तो घर पर चलने की कोशिश की. इस कोशिश को दो-तीन बार अंजाम दिया गया मगर हर बार परिणाम हमारे पक्ष में नहीं आया. पैरों की स्थिति देखकर लग रहा था कि अभी घावों के भरने में समय लगेगा, उसके बाद उन पर आने वाली त्वचा के पूरी तरह से सही होने में भी समय लग सकता है. ऐसे में व्हीलचेयर के अलावा चलने-फिरने के अन्य साधनों पर भी विचार किया गया था. उन्हीं विचारों में बैसाखियों को स्वीकारते हुए हमारा साथी बनाने की कोशिश की गई. हमने भी बड़े झिझकते हुए उनके साथ खुद का तालमेल बिठाने की कोशिश की.

घर में कई बार उनके सहारे चलने की कोशिश की मगर हर बार नाकामी ही हाथ लगी. कभी भी बिना सहारे के दो-चार कदम से ज्यादा आगे नहीं बढ़ सके. जब भी बिना सहारे के चलने का प्रयास किया तो बस गिरने की स्थिति में पहुँच गए. उस समय हमारे लिए हमारे चलने से ज्यादा अपनी उसी बची-खुची शारीरिक स्थिति को बनाये रखना था. नहीं चाहते थे कि हमारी किसी भी तरह की गलती से चोटिल पैरों में कोई और चोट आये या फिर हम ही किसी और रूप में घायल हो जाएँ. तीन-चार बार की असफल कोशिश के बाद बैसाखियों के साथ चलने का इरादा हमने छोड़ दिया.


नया वर्ष आ चुका था. पुराने बीते वर्ष की बुरी यादों को उसी के साथ छोड़ आने का विचार था मगर दिल-दिमाग सबकुछ अपने साथ समेट कर नए वर्ष में ले आया. उन्हीं सब यादों को समेटे एक दिन कृत्रिम पैर बनवाने के लिए कानपुर को चल दिए. कृत्रिम पैर बनवाने के लिए कानपुर और जयपुर ही बताया गया था. अपनी चलने-फिरने की स्थिति को देखते हुए कानपुर में पैर बनवाना उचित लगा. वहाँ स्थित एलिम्को के बारे में सुन भी रखा था.

अभी तक कृत्रिम पैरों के बारे में सुन रखा था, कुछ लोगों को कभी लगाये देखा भी तो उनसे इस बारे में जानकारी करने की कोशिश नहीं की. इसके पीछे कारण यही रहता था कि कहीं अगले व्यक्ति को ख़राब न लगे. अब जबकि खुद इस स्थिति से गुजरे तो लगा कि इस बारे में भी जानकारी सार्वजनिक होनी चाहिए ताकि ऐसे लोगों को भी इसका लाभ मिल सके, जिनके सम्बन्ध व्यापक रूप से फैले नहीं हैं.

एलिम्को के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. कैसे पैर बनेगा, कब मिलेगा, कैसे चलना होगा, कैसे लगेगा आदि-आदि सवालों को दिमाग में लेकर हम लोग एलिम्को पहुँचे. सम्बंधित संस्थान के कर्मियों के अलावा इक्का-दुक्का लोग ही वहाँ उपस्थित थे. पैर बनवाने की प्रक्रिया की जानकारी करने के बाद वहाँ के डॉक्टर का इंतजार किया जाने लगा. उनकी अनुमति के बाद ही पैर के नाप लेने की, उसके बनाये जाने की प्रक्रिया आगे चलती.

जिस हॉल में हम लोगों को बिठाया गया वहाँ कई सारे पैर बने हुए रखे थे. उनके आकार को देखकर स्पष्ट समझ आ रहा था कि पैरों की स्थिति के अनुसार वे विशेषज्ञ टीम द्वारा बनाये गए हैं. पैर बन जाने के बाद उसी हॉल में एक तरफ बनी पट्टी पर चलने का अभ्यास करना पड़ता है. एलिम्को के कर्मियों की देखरेख में चलने का अभ्यास पूरे दिन करना होता है. किसी तरह की तकलीफ होने की स्थिति में, कृत्रिम पैर के दूसरे सही पैर के नाप से छोटे-बड़े होने की स्थिति में, चलने में किसी दिक्कत को लेकर अथवा किसी अन्य समस्या के समाधान के लिए वहाँ के कर्मचारी, डॉक्टर लगातार तत्पर, सजग बने रहते हैं. पैर पहनने, चलने का अभ्यास सही से हो जाने के बाद ही वहाँ के डॉक्टर द्वारा हरी झंडी मिलती है.

जब तक डॉक्टर साहब का आना नहीं हुआ, उतनी देर तक अनेक विचार दिमाग में बनते-बिगड़ते रहे. उस पूरे हॉल के वातावरण के साथ अपना साम्य बिठाने की कोशिश करते रहे. उन बने रखे हुए तमाम कृत्रिम पैरों में से अपने नाप के पैर के साथ तादाम्य बनाते रहे. मन ही मन उनको पहनने की प्रक्रिया पर विचार होता रहा. उनके खोलने, पैर के मोड़े जाने के बारे में विचार किया जाता रहा. चूँकि हमारा पैर घुटने के ऊपर से कटा हुआ था ऐसे में यह निश्चित था कि जो कृत्रिम पैर बनेगा उसमें घुटने की मुड़ने वाली प्रक्रिया अब हमारे नियंत्रण में नहीं होगी. इसी स्थिति का संतुलन हमारे चलने में सहायक सिद्ध होगा.

कुछ देर बाद डॉक्टर साहब का आना हुआ. उन्होंने पैर की स्थिति का मुआयना किया. पैर बनने की प्रक्रिया से सम्बंधित बाँयी जाँघ की, उसकी त्वचा की जाँच करने के बाद उन्होंने उस समय पैर का नाप लेने से इंकार कर दिया. उनके परीक्षण के अनुसार अभी बाँयी जाँघ की खाल इतनी मजबूत नहीं हो सकी थी कि कृत्रिम पैर के दवाब को, उसके घर्षण को बर्दाश्त कर सके. उन्होंने दाहिने पंजे की भी स्थिति को देखा था. उसके चलते भी वे हम लोगों के लगातार अनुरोध के बाद भी पैर का नाप के लिए तैयार नहीं हुए.  

जिस आशा के साथ एलिम्को आना हुआ था वह क्षीण होती नजर आई. पता नहीं कब तक स्किन ऐसी होगी, घाव ऐसा होगा कि पैर बनाया जा सकेगा? पता नहीं कब हम बिना किसी सहारे के, बिना व्हीलचेयर के चल सकेंगे?

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

31 - फीलिंग्स ने परेशान ही किया, रियल हों या फाल्स

यह किसी भी व्यक्ति का सौभाग्य ही होता है कि वह जिस संस्था में अध्ययन करे उसी में उसको अध्यापन करने का अवसर मिले. यह उसके लिए आशीर्वाद ही होता है कि जिन गुरुजनों का आशीर्वाद उसे मिला, उन्हीं के साथ उसे अध्यापन करने का मौका मिले. हमें ये सौभाग्य अर्थशास्त्र और हिन्दी साहित्य, दोनों विषयों के साथ मिला. स्थानीय दयानंद वैदिक महाविद्यालय में अर्थशास्त्र से परास्नातक करने के साथ ही अध्यापन का अवसर मिला था. इसी तरह गाँधी महाविद्यालय में जब हम मानदेय प्रवक्ता के रूप में कार्यभार ग्रहण करने गए तो वहाँ हमें आशीर्वाद प्रदान करने के लिए हमारे गुरु जी डॉ० दिनेश चन्द्र द्विवेदी जी उपस्थित थे.


गाँधी महाविद्यालय से हिन्दी साहित्य परास्नातक करने के दौरान गुरु जी का आशीर्वाद लगातार मिलता रहा था. उस दिन हमारे लिए अधिक ख़ुशी देने वाला क्षण यह भी रहा कि उस दिन प्राचार्य पद का दायित्व गुरु जी के पास था. उनके आशीर्वाद के साथ हमने हिन्दी साहित्य विषय से मानदेय प्रवक्ता पद पर कार्य करना आरम्भ किया. पैर बनवाया नहीं था, इस कारण दो लोगों के कन्धों का उपयोग बैसाखी की तरह करते हुए कॉलेज जाना होता था. लगभग समूचा स्टाफ परिचित होने के कारण वहाँ समस्या आने वाली नहीं थी, ऐसा विश्वास था मगर ऐसा पूरी तरह न हो सका. कुछ समस्याएँ सामने आईं मगर जब बहुत बड़ी समस्या दूर हो चुकी थी तो इस समस्या का कोई अर्थ नहीं था.


उन दिनों तो समस्याएँ जैसे इंतजार करती थीं कि एक जाए और दूसरी आए. कभी एक समस्या से मिलने उसकी अनेक परिचित अपरिचित समस्याएँ चली आतीं. उन सभी से निपटते हुए दिमाग में बस पैर लगवाने का विचार चलता रहता. पैर के घाव की उसके ऊपर आने वाली त्वचा की स्थिति को देखते हुए लग रहा था कि फरवरी, मार्च तक पैर बनवाया जा सकता है. ऐसे में पूरा फोकस सिर्फ अपने आपको सशक्त करने पर था. दूसरे पैर पर जोर देकर खड़े होने का अभ्यास करना था. बुरी तरह से क्षतिग्रस्त दाहिने पंजे को मजबूती प्रदान करने पर था. ऐसे में किसी और तरफ ध्यान भी नहीं जाता था.

समस्यायों का निपटारा इसलिए भी सहजता से किया जाता ताकि आगे के लिए वे फिर न खड़ी हो सकें. ऐसे में बहुत सारी समस्याओं का समाधान होने के बीच में एक ऐसी उलझन पैदा होती जिसका निदान न तब हो सका था और न ही आ तक हो सका है. बाँए तरफ के कटे पैर में तब भी और अब भी ऐसा आभास होता जैसे पिंडली में खुजली मच रही है. कभी एहसास होता कि पंजे की उँगलियों में खुजली मच रही है; तलवे में कुछ झनझनाहट हो रही है; घुटने में किसी तरह की जकड़न महसूस होती.

समझ नहीं आता कि इन सबका इलाज कैसे किया जाये? दिमाग काम करना बंद कर देता कि जब जाँघ के नीचे पैर का हिस्सा है ही नहीं तो घुटने पर, पिंडली पर, पंजे पर कैसे खुजलाया जाये? उसकी जकड़न को कैसे दूर किया जाये? वहाँ कैसे हाथ फेर कर कुछ आराम महसूस किया जाये? ये समस्याएँ न दिन देखतीं न रात. उस समय सिवाय इधर उधर सिर, हाथ पटकने के अलावा कोई और काम नहीं रह जाता. बाँयी जाँघ पर घाव भरने की स्थिति में था, वहाँ भी हाथ फेरने अथवा किसी अन्य तरह से आराम नहीं दिलवाया जा सकता था.

मेडिकल भाषा में इसे फाल्स फीलिंग कहते हैं. इसके बारे में रवि ने बताया था मगर कानपुर में रहने के दौरान इसका अनुभव नहीं हो सका था. बाद में इस बारे में एलिम्को में कृत्रिम पैर लगवाने के दौरान कई लोगों ने भी बताया. यह फाल्स फीलिंग आज भी होती है. उन तमाम विधियों को भी आजमा लिया जिसमें कि मनुष्य की हथेली में सम्पूर्ण देह की संरचना छिपी दिखाई जाती है मगर किसी तरह का कोई आराम नहीं मिलता है. यह फाल्स फीलिंग तब भी होती थी, अब भी होती है. कब, कहाँ यह एहसास परेशान करने लगे कहा नहीं जा सकता.

घर में होने पर ऐसी स्थिति पर बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं होती क्योंकि उस समय हम किसी भी तरह से अपनी दैहिक भाव-भंगिमा बनाते हुए इस आभासी कष्ट से निकलने का प्रयास कर लेते हैं. इस तरह की फीलिंग से सामना करना उस समय बहुत मुश्किल होता है जबकि हम कहीं बाहर होते हैं. कभी स्कूटर चलाते समय, कभी सफ़र में, कभी क्लास में पढ़ाते समय, कभी किसी अन्य कार्यक्रम में होने पर इस एहसास से निपट पाना दुसाध्य होता है. उस समय बस भीतर ही भीतर इस एहसास से जूझते हुए आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

30 - खुशियों की आहट भी है दुखों के बीच

कभी-कभी समय भी परिस्थितियों के वशीभूत अच्छे-बुरे का खेल खेलता रहता है. अनेक मिश्रित स्मृतियों का संजाल दिल-दिमाग पर हावी रहता है. सुखद घटनाओं की स्मृतियाँ क्षणिक रूप में याद रहकर विस्मृत हो जाती हैं वहीं दुखद घटनाएँ लम्बे समय तक अपनी टीस देती रहती हैं. मनुष्य का स्वभाव सुख को जितना सहेज कर रखने का होता है, सुख उतनी ही तेजी से उसके हाथ से फिसलता जाता है. इसके उलट वह दुःख से जितना भागना चाहता है, दुःख उसके भागने की रफ़्तार से कहीं तज दौड़ कर इन्सान को दबोच लेता है. दुःख की एक छोटी सी मार सुख की प्यार भरी लम्बी थपकी से कहीं अधिक तीव्र होती है. कई बार दुखों की तीव्रता सुखों से भले ही बहुत कम हो पर इंसानी स्वभाव के चलते छोटे-छोटे दुखों को भी बहुत बड़ा बना लिया जाता है. हाँ, कुछ दुःख ऐसे होते हैं जिनकी पीड़ा और टीस किसी भी सुख से कम नहीं होती है, नियंत्रित नहीं होती है.

वर्ष 2005 भी ऐसी ही मिश्रित अनुभूति लेकर आया. इस अनुभूति में समय ने वह खेल दिखाया जिसका असर पूरी ज़िन्दगी रहेगा, पूरी ज़िन्दगी पर रहेगा. सुखों और दुखों के तराजू में दुखों का पलड़ा इतना भारी हुआ कि ज़िन्दगी भर के सुख भी उसे हल्का नहीं कर सकेंगे. मार्च ने हमारे सिर से पिताजी का साया छीन कर इस दुनिया में अकेला खड़ा कर दिया. परिवार की अनपेक्षित जिम्मेवारी एकदम से कंधे पर आ गई. अभी अपनी जिम्मेवारियों को, पारिवारिक दायित्वों का ककहरा भी न सीख सके थे कि अप्रैल ने ज़िन्दगी भर के लिए हमें दूसरे पर निर्भर कर दिया. कृत्रिम पैर के सहारे, छड़ी के सहारे, किसी न किसी व्यक्ति के सहारे. यह और बात है कि आत्मविश्वास ने इन सहारों पर निर्भर रहते हुए भी इन पर निर्भर सा महसूस न होने दिया.

लोगों से मिलते-जुलते रहने, कार्यक्रमों में सहभागिता करते रहने, लेखन-पठन-पाठन आदि में व्यस्त रहने के कारण दिल-दिमाग को दुर्घटना के प्रति बहुत ज्यादा सोचने का अवसर नहीं मिलता था. घर के सदस्य भी ऐसी व्यस्तता देखकर कहीं न कहीं खुद में संतुष्टि महसूस करते होंगे. कहते हैं कि समय के साथ दुःख कम होते जाते हैं, उनकी टीस कम होती जाती है, ऐसा कुछ होने के संकेत मिलने लगे थे. समय ने एक साथ दो-दो कष्टों को दिया था, समय ही उन दो कष्टों को सहने वाले परिवार को कुछ मरहम भी लगाना चाहता था.


वर्ष 2005 अपने माथे पर सिर्फ कष्टों का कलंक लगवाकर विदा नहीं होना चाहता था. तभी जाते-जाते उसने दिसम्बर में कुछ खुशियाँ परिवार को देने का प्रयास किया. शिक्षा विभाग में अध्यापन हेतु छोटे भाई की नियुक्ति सम्बन्धी सुखद समाचार मिला. विशिष्ट बीटीसी के माध्यम से पूर्व में भी उसकी यह नियुक्ति की प्रक्रिया बीच में रुक गई थी. संभवतः नियति भी साथ में खेल रही थी. यह ख़ुशी भी उसी समय मिलनी थी जबकि परिवार दुखों में गोते लगा रहा था. उसकी नियुक्ति पास के जनपद उन्नाव में हुई थी. छोटे भाई ने हमारी शारीरिक स्थिति देखते हुए नियुक्ति हेतु कार्य-स्थल पर जाने से इंकार किया. तमाम तर्कों, कारकों के साथ उसे समझा कर अध्यापन कार्य ग्रहण करने के लिए तैयार किया.  

इसी तरह हम जो काम कभी भी नहीं करना चाहते थे, उसी अध्यापन कार्य का नियुक्ति-पत्र मिला. जिस महाविद्यालय में दो-दो बार हमारी नियुक्ति को रुकवाया, रोका गया हो उसी महाविद्यालय ने हमें अपने यहाँ अध्यापन कार्य करने हेतु नियुक्ति-पत्र निर्गत किया. अध्यापन के प्रति रुचि न होने के कारण हमने सिरे से इस प्रस्ताव को नकार दिया. इस नियुक्ति पर घरवालों के अपने तर्क थे. बिना एक पैर, चलने-फिरने, बाहर बिना सहारे निकलने में हमारी असमर्थता को इसी बहाने दूर होने का बहाना बताया गया. दो-चार महीनों में अध्यापन कार्य छोड़ देने के हमारे पिछले रिकॉर्ड के कारण भी सबने विश्वास जताया कि चंद महीने ही करोगे इस काम को, कर लो जब तक मन लगे. अंततः पारिवारिक तर्कों, दबावों के चलते देश की ऐतिहासिक तिथि 06 दिसम्बर 2005 को हमने भी अपनी नियुक्ति को ऐतिहासिक बना दिया. मानदेय प्रवक्ता के रूप में हिन्दी विभाग में नियुक्ति के पश्चात् कई बार छोड़ना-जुड़ना लगा रहा. अंततः वर्ष 2019 में प्रदेश भर के मानदेय प्रवक्ताओं के साथ हम भी स्थायी हो गए.

इस तरह के सुखद समाचारों से आभास हो रहा था कि परिवार के साथ सिर्फ बुरा ही बुरा नहीं होना है. इन ख़ुशी भरे समाचारों के बीच हम सबको उस दिन का इंतजार था जबकि डॉक्टर की तरफ से पैर लगवाने की सहमति मिले. घावों का सूखना तेजी से बना हुआ था. उनके ऊपर बनती खाल के मजबूत होने का इंतजार किया जा रहा था. खुद को मानसिक रूप से इस सन्दर्भ में किसी तरह की सकारात्मक अथवा नकारात्मक खबर के लिए तैयार कर लिया था.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

29 - प्रकाश पुंज के रहस्य में सकारात्मकता

सब दिन न होत एकसमान, यह बात जिसने भी कही है अपने अनुभव से ही कही होगी. वाकई ऐसा होता है कि सभी दिन एक जैसे नहीं रहते हैं. समय का चक्र तो अपनी गति से ही चलता है पर हम मनुष्यों को प्रयास करने चाहिए कि अपने कार्यों से, अपनी जिजीविषा से बुरे दिनों के प्रभाव को कम से कम कर सकें. उन दिनों में घर में सभी सदस्यों का प्रयास यही रहता कि बुरे समय को याद न किया जाये.


पिताजी की अनुपस्थिति स्पष्ट समझ आती थी, उसका एहसास किया जाता था मगर कोशिश यही की जाती कि उनके एहसास को ही उनकी उपस्थिति बना दिया जाये. हमारी ड्रेसिंग के दौरान, दैनिक क्रियाओं के दौरान अथवा अपने नियमित शारीरिक व्यायाम के दौरान हमारी स्थिति सबके सामने रहती. अनचाहे रूप में दुःख सब पर हावी होता मगर उसी के पीछे से खुशियों को सामने लाया जाता.

दुःख-सुख के मिले जुले अनुभव सामने आते. हँसने-रोने के कई-कई पल सामने आते. अपनों का मिलने आना भावनात्मक रूप से कमजोर भी करता और मजबूती भी देता. कुछ अपनों का परायों जैसा बर्ताव दुखी भी करता तो भविष्य के लिए एक सीख भी देता.


इधर एक अजीब सा अनुभव हमारे साथ हो रहा था. यह कानपुर में उसी समय से होता आ रहा था जबकि हम मामा जी के घर पर पनकी में थे. दिन का समय हो या रात का, हम अकेले हों या सबके साथ, सोए हुए हों या जागे, लेटे हों या बैठे ऐसा आभास होता जैसे कोई प्रकाश पुंज ऊपर से तैरता हुआ आकर हमारे बगल में रुक गया. बैठे होने की स्थिति में वह प्रकाश पुंज हमारी आँखों के सामने लगभग दो-तीन सेकेण्ड को रहता और फिर गायब हो जाता. लेटे होने की दशा में वह प्रकाश पुंज सिर के बगल में आकर गायब हो जाता.

ऐसा कृत्रिम पैर लगवाने के बाद भी कुछ महीनों तक हमारे साथ होता रहा. उसके बाद वह रौशनी जिस तरह से अचानक आना शुरू हुई थी, अचानक ही बंद भी हो गई. एक दो बार घरवालों से इस सम्बन्ध में उसी समय जानकारी ली कि क्या उनको भी ऐसा कुछ दिखाई दिया या आभास हुआ. घर में और किसी के साथ न तो ऐसा हो रहा था और न ही हमारे साथ होते समय किसी को वह रौशनी दिखाई देती.

आज इतने वर्षों के बाद भी अच्छे से याद है गोल आकार के उस पुंज के केन्द्र में पीला रंग हुआ करता था. उसके किनारे केसरिया, गुलाबी और हरे रंग का मिला-जुला रूप लिए होते थे. आज भी समझ नहीं आया कि किस तरह का सन्देश देने आती थी वह रौशनी? कौन सा विश्वास और मजबूत करने को आता था वह प्रकाश पुंज? उस रौशनी का आभास होने पर कभी डर का एहसास न हुआ, कभी घबराहट भी न हुई.

जैसी कि आदत में है कि जो विषय अपनी समझ से परे हो, जिस बिंदु पर स्वयं किसी तरह का निर्णय न ले पाने की स्थिति हो उसे आने वाले समय के ऊपर छोड़ देना चाहिए. इसी आदत के चलते हमेशा कोशिश यही रहती ऐसे किसी भी विषय पर सिर्फ सकारात्मकता रखनी चाहिए, अच्छा या बुरा जो भी हो उसके आने पर अगला कदम उठाया जाये. इस बिंदु पर भी सकारात्मकता बनाये रहे क्योंकि उस रौशनी का रहस्य समझ से बाहर था. चूँकि पिताजी का निधन हमारी दुर्घटना के ठीक एक महीने पहले हुआ था, इसलिए सकारात्मक विचार यही बनाये रखते कि किसी न किसी रूप में उनकी ऊर्जा, उनकी शक्ति हमें हौसला बँधाने आती है.  

ये प्रकृति ही जानती होगी, ईश्वरीय सत्ता ही जानती होगी कि वह रौशनी क्या थी, उस प्रकाश पुंज का क्या रहस्य था? हम तो आज भी बस इतना जानते हैं कि उस एहसास के कारण न तो कोई नुकसान हुआ, न कोई परेशानी हुई, न किसी तरह का डर लगा. जिस नुकसान, जिस परेशानी, जिस भय का एहसास होना था वह हम कर ही चुके थे.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

28 - अनुभवों की दौड़ में एक-एक कदम आगे बढ़ते हुए

उन दिनों में आराम जितना हो सकता था किया जा रहा था क्योंकि घावों के भर जाने के बाद उनकी त्वचा की कोमलता दूर होने के बाद ही कृत्रिम पैर लगने वाली प्रक्रिया शुरू की जा सकती थी. चलने की, अपने पैरों पर खड़े होने की जल्दी थी मगर जल्दबाजी में किसी तरह की हड़बड़ी करना नहीं चाहते थे. नहीं चाहते थे कि हमारे किसी भी एक कदम से पैर लगने की प्रक्रिया आगे टल जाए. इसलिए उरई में कार्यक्रमों में जाने को लेकर बहुत सावधानी रखी जाती, आने-जाने, बैठने-उठने आदि का भी ध्यान रखा जाता.


उस एक वर्ष को निकाल दें तो न उसके पहले इतना आराम किया और न उसके बाद किया. उस वर्ष भी जो आराम कानपुर में किया वह मुख्य कहा जा सकता है. उरई आने के बाद बहुत सारे अधूरे पड़े कार्यों को पूरा करने सम्बन्धी माथापच्ची की जाने लगी. खेती के सम्बन्ध में गाँव जाना छोटे भाइयों का होता था. पिताजी के बाद की तमाम कानूनी, सरकारी औपचारिकतायें पूरी करना, उनके कागजात तैयार करना आदि भी व्यस्तता बनाये हुए थे. इसके साथ-साथ छोटे भाई के विवाह की तैयारियों पर भी चर्चा होती रहती थी.

इन सबके बीच अपने पठन-पाठन की तरफ भी ध्यान बना हुआ था. यद्यपि उस समय किसी तरह से हम रोजगार वाली स्थिति में नहीं थे. वह समय हमारा निपट बेरोजगारी वाला दौर था. इसके बाद भी पढ़ने-लिखने का शौक इससे जोड़े हुए था. इसी कारण से पत्राचार से किये जाने वाले कुछ पाठ्यक्रमों को, जिनका कार्य अधूरा रह गया था, इसी अवधि में पूरा किया. समय का ज्यादा से ज्यादा सदुपयोग कर लेना चाहते थे. इसी से इस बीच कई मित्रों के, कई परिचितों के शोध-कार्यों को भी पूर्ण करवाने में सहयोग किया.


उन्हीं आराम के बीच पढ़ाई, अध्ययन, लेखन भरे दिनों में, मिलने-जुलने के समय में गुरुजनों का आशीर्वाद हिम्मत बढ़ा रहा था. ऐसे ही हिम्मत बढ़ाने वाले पलों में एक दिन वह भी आया जिसे किसी के लिए भी गौरवानुभूति का क्षण कहा जायेगा. वह क्षण इस रूप में आया कि हमारे गुरु जी स्वयं अपने निर्देशन में शोधकार्य करवाने के लिए घर पर आए. इसे अपने आपमें परमशक्ति से भी बड़ा आशीर्वाद कहा जायेगा जो उस दिन डॉ० शरद जी श्रीवास्तव और बड़े भाई समान डॉ० परमात्मा शरण गुप्ता जी ने घर आकर हमें दिया. यद्यपि अपने नाम के आगे डॉ० लगाने की इच्छा पहले ही पूरी हो चुकी थी तथापि अर्थशास्त्र से शोधकार्य करने की जो अभिलाषा वर्ष 1995 में हुई थी, वह समय-समय पर अपना सिर उठाती रहती थी.

अर्थशास्त्र से परास्नातक करने के बाद कतिपय कारण से हमारी यह इच्छा पूरी न हो सकी थी. अब जबकि उन्होंने स्वयं घर आकर हमें अपने निर्देशन में पी-एच०डी० करने को कहा तो हमने भी पूरी तत्परता दिखाते हुए उनके प्रथम शोधार्थी के रूप में बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी में अपना पंजीकरण करवा लिया. बुन्देलखण्ड क्षेत्र के प्रति कार्य करने के विशेष लगाव के चलते जनपद जालौन में कृषि पद्धति का मूल्यांकन को अर्थशास्त्र शोधकार्य का विषय चुना. उनकी सहमति से विषय का चयन करने के पश्चात् आनन-फानन पाठ्य-सामग्री जुटाई गई. उस समय हमारे पास किसी भी रूप में इंटरनेट की सुविधा नहीं थी. ऐसे में इधर-उधर के कुछ पुस्तकों को एकत्र किया गया. छोटी बहिन हमीरपुर में महाविद्यालय में कार्यरत है, उसके पुस्तकालय की सहायता लेने के साथ-साथ उरई के सम्बंधित स्त्रोतों की सहायता ली गई. इस कार्य में भी छोटे भाई की भागदौड़ बराबर बनी रही. कालांतर में तमाम औपचारिकताओं की समाप्ति पश्चात् एक और डॉक्टरेट उपाधि प्राप्त हुई.

अर्थशास्त्र में पी-एच०डी० के पूर्व वर्ष 2002 में हिन्दी साहित्य से पी०-एच०डी० कर चुके थे. वह शोध-कार्य हिन्दी के विद्वान डॉ० दुर्गा प्रसाद खरे जी के निर्देशन में संपन्न हुआ था, जो स्वयं दो विषयों से डी०लिट्० उपाधि प्राप्त करने वाले देश के तीसरे व्यक्ति हैं. हमारी दोनों पी-एच०डी० को सफलतम रूप से अंतिम पायदान तक पहुँचाने में बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी में कार्यरत हमारे मित्र डॉ० राजीव सेंगर श्रीकृष्ण की भांति सदैव सारथी की मुद्रा में नजर आये. किसी भी तरह की समस्या पर वे उसी सहजता से हमारा शोध-कार्य सम्पन्नता की ओर ले गए जैसे कि कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण अर्जुन के रथ को शत्रु सेना के बीच से निकालकर विजय की ओर ले जाते थे.

जीवन में तमाम अनुभवों के बीच एक अत्यंत कष्टप्रद अनुभव दुर्घटना का मिला तो तमाम प्रमाण-पत्रों, अंक-पत्रों से भरी फाइल में एक और उपाधि अर्थशास्त्र की पी-एच०डी० के रूप में सम्मिलित हो गई.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

48 - हवा में उड़ता जाए मेरा दीवाना दिल

स्कूटर के आने के बाद शुरू के कुछ दिन तो उसे चलाना सीखने में निकले. पहले दिन ही अपने घर से सड़क तक की गली को पार करने में ही लगभग पंद्रह मिनट ...