2 - आशंकाओं के बीच आत्मबल की आश्वस्ति

सबकुछ सामान्य ही था, रोज की तरह ही. दूर-दूर तक किसी अनहोनी की आशंका भी नहीं थी. मन में किसी तरह का भय अथवा शंका जैसा भी कुछ नहीं था. दिन भी आम दिनों की तरह गुजर रहा था. आने वाले दिनों की कुछ योजनायें बनाकर आगे की यात्रा की तैयारी हो चुकी थी.

सबकुछ सामान्य से दिखने वाले दिन में अचानक ही आने वाला पल अपने साथ एक तूफ़ान सा लेकर आया. उस तूफ़ान की तेजी, उसकी विभीषिका के बारे में भी कोई अंदेशा नहीं था. होता भी कैसे? इस बारे में न उस दिन, न उससे पहले, न कभी विचार किया न ही कभी सोचा.

तूफ़ान आकर जब थमा तो चंद पलों पहले जिस रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर अपने छोटे भाई, पिंटू के साथ खड़े ट्रेन का इंतजार कर रहे थे, खुद को उसी जगह पाया. अब यहाँ होने में और चंद पलों पहले होने में बहुत बड़ा अंतर आ गया था. अब उसी प्लेटफ़ॉर्म पर हम खून से लथपथ पड़े थे. तालाब जैसा तो नहीं कहेंगे मगर हमारे चारों तरफ खून ही खून बिखरा हुआ था. इन सबसे बेखबर हमारी जिन आँखों में कुछ देर पहले योजनायें बन रही थीं, ट्रेन का इंतजार झलक रहा था, अब वे आँखें पिंटू को तलाश रही थीं.

हादसे की भयावहता देखने-समझने के बाद भी एक पल को मन ने विचार किया, कहीं यह सब सपना तो नहीं? पर अगले ही पल उसी मन ने कहा, नहीं... यह सपना नहीं, हकीकत है.

आत्मबल को समेट अपने को संयमित कर पिंटू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, रो नहीं, हमें कुछ नहीं होगा. कोशिश थी कि आवाज़ में असहनीय दर्द की पीड़ा न उभरे, हाथों का कंपन छोटा भाई महसूस न करे. उसकी मानसिक स्थिति और कष्ट की कल्पना ही नहीं की जा सकती. ठीक एक माह पहले अपने जिन कन्धों पर वह पिताजी की पार्थिव देह को लेकर आया था, उन कन्धों पर क्या हमारी देह भी उसे घर ले जानी होगी?

नहीं... खुद से सवाल कर, खुद को ही जवाब देकर पिंटू की पीठ थपथपाते हुए उसे आश्वस्त करना चाहा. बचपन से ही वह अत्यंत कोमल प्रवृत्ति का रहा है. छोटी-छोटी चोट, खून देखकर उसका बेहोश हो जाने वाला भाई आज हमें खून से लथपथ देखने के बाद भी खुद को संयमित बनाये हुए था, बस हमारे लिए. उसकी आँखों से बहते आँसुओं में परेशानी के नहीं वरन एक आश्वस्ति के भाव झलक रहे थे. उस आश्वस्ति भाव में छिपी पीड़ा और दर्द को हम आज तक महसूस करते हैं. हमें लेकर उस शाम से शुरू हुई उसकी चिंता आज तक ज्यों की त्यों बनी हुई है.

परिचितों, अपरिचितों की भीड़ के बीच हम दोनों भाई एक-दूसरे को दिलासा दे रहे थे, एक-दूसरे को हौसला बंधा रहे थे. इसके बीच भी शायद मन ही मन शायद एक आशंका भी जन्म ले रही थी कि क्या होगा अब?

जाँघ से अलग हुआ बाँया पैर तथा बुरी तरह क्षतिग्रस्त दाहिना पंजा शरीर का पूरा खून प्लेटफ़ॉर्म पर ही बहा देने पर आमादा थे. बाँया पैर शरीर का साथ छोड़कर रेलवे ट्रैक पर पड़ा हुआ था. उसका साथ यहीं तक का था सो वह अलग हो चुका था किन्तु हम किसी का साथ छोड़ने को तैयार नहीं थे. अगले कुछ पलों में अस्पताल ले जाने की प्रक्रिया साथ के लोगों द्वारा पूरी की गई. इसी दौरान अपने घर के बजाय चाचा को फोन करवा कर जिला चिकित्सालय पहुँचने को कहलवाया.


सैकड़ों मोबाइल नंबर, बेसिक फोन नंबर याद किये रहने के कारण चाचा का नंबर लड़खड़ाते, हकलाते बता सके. नंबर बोलने में उखड़ती साँस चिकित्सालय के इमरजेंसी वार्ड तक पहुँचते-पहुँचते टूटती सी महसूस होने लगी. इसके बाद भी जैसे एक विश्वास पूरी दृढ़ता से हमारे भीतर जन्म ले चुका था कि हमें कुछ होगा नहीं. उसी विश्वास ने साँसों को फिर एकसूत्र में बाँधा और जल्द से जल्द उरई से रेफर किये जाने का अनुरोध इमरजेंसी के चिकित्सकों से किया. इधर पुलिसकर्मी अपनी कानूनी कार्यवाही करने में लगे थे. कुछ बयान जैसा फिर कई कागजों पर अंगूठे के निशान लेना होता रहा उधर हम चिकित्सकों की गतिविधियों पर अपना ध्यान लगाये थे. दिमाग को अचेत नहीं होने देना था, खुद को बेहोश नहीं होने देना था इसलिए वहाँ तैनात डॉक्टर्स से ऐसा कोई इंजेक्शन न लगाने को कहा जो हमें बेहोशी की स्थिति में पहुँचा दे.

बाँए पैर, जिसे अब पैर नहीं कहा जा सकता था, जाँघ कह सकते थे, सो उस खून बहाती, खून से सनी जाँघ पर डॉक्टर्स और उनके सहायकों द्वारा पट्टियों की परत-दर-परत चढ़ा कर बहते खून को रोकने का प्रयास किया गया. रेलवे ट्रैक की तमाम गन्दगी, पत्तियां, मिट्टी, गिट्टी आदि सबकुछ उन्हीं पट्टियों में बाँध दिए गए. इमरजेंसी स्टाफ का पूरा ध्यान हमें जल्द से जल्द अपने यहाँ से निकाल भेजने का था. हमारी स्थिति देखकर उन्हें हमारे बचने की कोई उम्मीद न होगी. उन्हें ही क्या, उस समय वहाँ उपस्थित सैकड़ों लोगों में से शायद ही कोई होगा जो ऐसी उम्मीद हमें देखने के बाद लगाये होगा.

उरई से तुरंत ही कानपुर जाने का विचार किया. तब तक हमारे मन्ना चाचा का भी आना हो गया. वे भी हमारे साथ चलने को हुए तो उनको यहीं, घर पर रुकने को कहा. हमारा सोचना उस समय यही था कि चाचा का साथ जाना घर में यही सन्देश देगा कि मामला ज्यादा ही गंभीर है. हम नहीं चाहते थे कि घर पर अम्मा, चाची, छोटा भाई मिंटू और वह नवयुवती जो अभी एक वर्ष तीन माह पूर्व ही हमारी पत्नी बनकर आई, हमारी दुर्घटना की भयावहता को सुन-समझ कर परेशान हों.

बदहवास चाचा जी को समझाते हुए घर पर सबकी देखभाल करने की बात कहकर रोका. निस्तेज चेहरा लिए चाचा जी का फटी-फटी आँखों से हमें देखते हुए कार से उतरना आज भी हमारी आँखों के सामने है. चाचा जी के साथ-साथ पिंटू के दोस्त धर्मेन्द्र को भी उसकी हालत देखकर रुकने को कहा मगर वह रुकने को न माना. इमरजेंसी में हमें इस स्थिति में देखते ही वह लगभग बेहोश होकर गिर पड़ा था. हमें चिंता उसकी लग रही थी कि कहीं इसे कुछ न हो जाये.


बहरहाल, चाचा जी को और साथ के बहुत से लोगों को सांत्वना देते हुए कार छोटे भाई और उसके चिंतातुर दोस्तों को हमारे साथ लेकर कानपुर को दौड़ चली.  
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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

1 - कहानी खुद एक कहानी बन जाने की

जीवन में अनिश्चितता न हो तो व्यक्ति होश संभालते ही पागलपन का शिकार हो जाये. आने वाले पल की स्थिति से अनभिज्ञ व्यक्ति आत्मविश्वास, आत्मबल के द्वारा अपनी जीवन-यात्रा को पूरा करता रहता है. इस अनिश्चित जीवन में पल-पल वह ज़िन्दगी को बदलते देखता है, उसके कई-कई रंग देखता है. ज़िन्दगी का पल-पल रंग बदलना, एक-एक पल में सैकड़ों कहानियों का समावेश करना, उनको देख-समझ पाना आसान नहीं होता है. बहुत बार ऐसा होता है कि सहजता से आगे चलती जीवन-यात्रा अचानक से यू-टर्न ले लेती है. किसी और मंजिल को बढ़ रहे होते हैं पर किसी दूसरी पर पहुँच जाते हैं.


उस दिन हमारी ज़िन्दगी का वो यू-टर्न तो नहीं था; हाँ एक अवरोध जैसा अवश्य था; एक डायवर्जन जैसा अवश्य था. सड़क पर निर्माण कार्य के दौरान लगे पथ-प्रदर्शकों की भाषा रास्ता इधर से है की तरह ही उस दुर्घटना ने हमारी जीवन-यात्रा का रास्ता कुछ परिवर्तित सा कर दिया. उस एक पल ने जीवन के बहुत से रंग दिखा दिए. हर पल में सैकड़ों कहानियाँ सुनाने वाली ज़िन्दगी ने उस एक पल में सैकड़ों कहानियाँ दिखा दीं. अनिश्चितता भरी ज़िन्दगी में अनिश्चितता ही अनिश्चितता भर दी.

एक पल में ज़िन्दगी ने अनेक रंग भले ही दिखाए हों. एक पल में भले ही हजारों रंग भरे रहते हों पर उस समय हमारे पल में सिर्फ लाल रंग भरा था जो काले रंग के आवरण में हमें ढाँकने को लगातार फैलता जा रहा था. कहानियों भरे पल के साए में वो पल किसी कहानी का हिस्सा नहीं बल्कि खुद कहानी जैसा हो गया था.

कहानी ढलते दिन में खुद को समेटने की. कहानी उखड़ती साँसों को एकत्र कर एक और साँस भरने की. कहानी असहनीय दर्द के बीच हँसने-मुस्कुराने की. कहानी काँपते हाथों को कांपती हथेलियों के बीच थामकर सांत्वना देने की. कहानी पल-पल अपनी तरफ बढ़ती मौत को हर पल दूर भगाने की. कहानी गिर कर फिर सँभलने की. कहानी लड़खड़ाते क़दमों को मंजिल तक पहुँचाने की. कहानी खुद को एक बार फिर साबित कर पाने की. कहानी अनेक आँखों में उभरे सवालों का जवाब बन जाने की. कहानी ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बनाने की. कहानी अनिश्चय की धुंध के बीच ज़िन्दादिली की रौशनी भरने की. कहानी ज़िन्दगी को ज़िन्दाबाद कहे जाने की. कहानी न होकर भी खुद एक कहानी बन जाने की.

रोज की तरह उस दिन भी सबकुछ सामान्य सा था. कहीं कुछ अलग सा नहीं, कहीं कुछ बदलाव सा नहीं. उसी साधारण से पलों के बीच अपने साथ सबकुछ उड़ा लेने की नीयत से अचानक कहीं से एक तूफ़ान उठा. जब बवंडर थमा तो बहुत कुछ ख़तम होने जैसा एहसास जगा. उस एहसास के बीच सबकुछ बनाये रखने की जीवटता ने, जिजीविषा ने कुछ भी ख़तम न होने दिया. आकाशीय बिजली की तरह कौंध दिखाकर, सपने की तरह नींद में चौंका कर वह पल गुजर गया. बार-बार उस घटना को महज सपना समझने का एहसास करने की काल्पनिकता के बीच आभास करना ही पड़ा कि वह एक सपना नहीं, कोई काल्पनिकता नहीं वरन एक डरावनी हकीकत है, भयावह वास्तविकता है.

अंततः उस वास्तविकता को, उस विभीषिका को, उस दुर्घटना को स्वीकारते हुए जीवन-यात्रा नए सिरे से फिर आरम्भ कर दी गई.  नए सिरे से इसलिए क्योंकि उस एक पल ने बहुत पीछे ले जाकर खड़ा कर दिया था. बैठना, खड़े होना, चलना, काम करना, लिखना आदि-आदि नए सिरे से सीखा जाने लगा. इस अभ्यास में कई-कई बार बिखरना होता फिर अगले पल आत्मविश्वास, आत्मबल के मिले-जुले मिश्रण के साथ खुद को जोड़ने का काम भी आरम्भ होता.

उस दिन से शुरू हुआ बिखरना-सहेजना, टूटना-जुड़ना, रोना-हँसना, गिरना-उठना, बिगड़ना-बनना, हारना-जीतना आज भी बना हुआ है. ये सब ज़िन्दगी के रंग हैं. ये सब ज़िन्दगी की कहानियाँ हैं. इनके साथ उल्लासित रहना है. इनके साथ रंगीन रहना है. हतोत्साहित नहीं होना है. विश्वास को कमजोर नहीं पड़ने देना है. आखिर ज़िन्दगी अपनी है मगर सिर्फ अपने लिए नहीं है. ज़िन्दगी सिर्फ डराती नहीं वरन सिखाती भी है. वह सिर्फ कष्ट ही नहीं देती वरन मंजिल तक पहुँचाती भी है. बस... ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद का जयघोष करते हुए आगे बढ़ना है. एक और नई मंजिल की खोज करना है. उस मंजिल के आगे भी बढ़ना है.

कभी हसरत थी आसमां छूने की,
अब तमन्ना है आसमां पार जाने की.


ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद
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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

48 - हवा में उड़ता जाए मेरा दीवाना दिल

स्कूटर के आने के बाद शुरू के कुछ दिन तो उसे चलाना सीखने में निकले. पहले दिन ही अपने घर से सड़क तक की गली को पार करने में ही लगभग पंद्रह मिनट ...