46 - चेहरे पर भावनात्मक ख़ुशी और आँखों में नमी

सामाजिक जीवन में जो भागदौड़ बनी हुई थी, उसमें उन्हीं दिनों थोड़ा सा अवरोध रहा जबकि हम बिना कृत्रिम पैर के रहे. यद्यपि उस दौरान भी कुछ सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा एक पारिवारिक विवाह संस्कार में भी शामिल हुए तथापि उसमें सीमितता बनी रही. खुद में किसी तरह का अक्षम होने जैसा बोध कभी पनपने नहीं दिया, इस कारण से किसी कार्यक्रम में शामिल होने में झिझक महसूस नहीं होती थी. इसके बाद भी साथ के लोगों की तत्परता, उनकी सजगता देखकर कई बार लगता कि अपनी सामाजिकता के लिए अपने भाई को, दोस्तों को परेशान कर रहे हैं.


चूँकि जब पैर नहीं लगा था उस समय कहीं आने जाने के लिए बाइक का, कार का उपयोग किया जाता, इसमें भी बाइक का ही ज्यादातर इस्तेमाल किया जाता. कॉलेज आने-जाने में, कार्यक्रमों में सहभागिता करने के दौरान बाइक से चलने के दौरान बाइक चालक के साथ-साथ एक और व्यक्ति की आवश्यकता होती, जो पीछे से हमें सहारा दिए रहता था. बिना उसके हमें अपना संतुलन बनाना कठिन होता था. वर्ष 2006 मार्च-अप्रैल में कृत्रिम पैर लग जाने के बाद पीछे बैठ कर सहारा देने वाले व्यक्ति की आवश्यकता महसूस नहीं हुई मगर आवागमन के लिए किसी न किसी की आवश्यकता महसूस होती थी. पैर के दर्द और कृत्रिम पैर के साथ नया-नया जुड़ाव होने के कारण बहुत देर तक, बहुत दूर तक पैदल चलना नहीं हो पाता था. इसके अलावा हमारा बाइक चलाना, स्कूटर चलाना, साइकिल चलाना भी संभव नहीं लग रहा था. बाइक चलाने का असफल प्रयास हमारे द्वारा किया जा चुका था, इससे भी अपनी क्षमता का आकलन करने में आसानी हो गई थी.




ये हमारी खुशकिस्मती है कि हमारे सभी छोटे भाई हमारे साथ हमारी प्रतिकृति बनकर सदैव साथ बने हुए हैं. किसी भी भाई को जरा सा भी भान होता वो तुरंत पूरी सक्रियता, सजगता से हमारी आवश्यकता की पूर्ति के लिए उपस्थित रहता. कहाँ जाना है, क्यों जाना है, किस समय जाना है आदि से उनको कोई मतलब नहीं होता, कोई सवाल नहीं होता बस वे पूरी ईमानदारी, निष्ठा, प्रेम से अपने दायित्व का निर्वहन करने में लगे थे. ऐसा ही सहयोग हमें हमारे दोस्तों से मिला. कभी भी, दिन-रात में किसी भी समय, कहीं भी जाने के लिए, किसी भी आवश्यकता के लिए किसी भी दोस्त को पुकार लगाई वह बिना किसी प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ हमारे कंधे से कंधे मिलाकर खड़ा हुआ.


अपने छोटे भाइयों, दोस्तों के साथ समय कैसे बीतता रहा इसका अंदाजा भी न रहा. समय तेजी से खिसकता हुआ वर्ष 2006 से वर्ष 2009 में आ पहुँचा. सितम्बर का महीना था, हमारे जन्म का दिन. सुबह-सुबह से घर में छोटे भाई और उसके एक मित्र की हलचल मची हुई थी. यद्यपि हलचल देर रात भी समझ आई तथापि किसी तरह का अंदाजा हमें नहीं हुआ कि आखिर हो क्या रहा था. सुबह उठने के बाद, नित्यक्रिया से निपटने के बाद अपने कमरे में बैठे लिखा-पढ़ी का काम किया जा रहा था. अम्मा से जन्मदिन का आशीर्वाद मिल चुका था. घर के सदस्यों से भी शुभकामना सन्देश मिल चुके थे. मोबाइल, फोन से भी संदेशों का आना लगा हुआ था. उसी में हमें बाहर बुलाया गया.


बाहर दरवाजे की आहट पर ध्यान दिया तो कुछ ऐसा समझ नहीं आया कि कुछ विशेष है. ऐसा भी नहीं लगा कि कोई हमसे मिलने वाला आया है. ऐसे में हमें बाहर बुलाये जाने का अर्थ समझ नहीं आया. हालाँकि घर के दरवाजे पर कुछ चहल-पहल सी, फुसफुसाहट सी महसूस अवश्य हो रही थी. बाहर निकल कर देखा तो आँखें नम हो गईं. एक नया स्कूटर हमारे लिए तैयार खड़ा हुआ था, जो हमारे चलाये जाने के उद्देश्य से ही बनवाया गया था. घर के सभी सदस्यों के चेहरे पर भावनात्मक ख़ुशी और आँखों में नमी स्पष्ट दिख रही थी. ये आपके जन्मदिन का गिफ्ट है कहते हुए छोटे भाई ने स्कूटर की चाबी जब हमारी हथेली में रखी तो हम दोनों ही एक-दूसरे से आँखें मिलाने की हिम्मत न कर सके. हम दोनों ही जानते थे कि ऐसा होते ही आँखों की नमी बह निकलेगी.


उस दिन सुबह-सुबह ऐसा गिफ्ट मिलना बहुत ही भावनात्मकता से भर गया. घर में सबने कई-कई बार स्कूटर चला कर देख लेने को कहा मगर अन्दर से हिम्मत न जुटा सके. दुर्घटना के बाद से लेकर आज तक बहुत से पल ऐसे आये जबकि हमने खुद को अन्दर से कमजोर महसूस किया, ये और बात है कि ऐसा कुछ जाहिर न होने दिया. उस दिन भी कुछ ऐसा हो रहा था.


हाथों में चाबी लेकर वापस अपने कमरे में आकर बैठ गए. कुछ घंटों के बाद खुद में साहस बटोरा और छोटे भाई के साथ स्कूटर की यात्रा पर निकल पड़े. उस दिन से हमारे आने-जाने को जो गति मिली वह आज तक बनी हुई है.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

45 - ख़ामोशी से गुजर जाते हैं दर्द कितने

दाहिने पंजे के दर्द से कोई राहत नहीं मिल रही थी. उसकी स्थिति देखकर बहुत ज्यादा लाभ समझ भी नहीं आ रहा था. इस दर्द में उँगली भी अपने रंग-ढंग दिखाने में लगी थी. उसकी स्थिति ऐसी हो चुकी थी कि चलने में, खड़े रहने में बहुत ज्यादा दिक्कत आ रही थी. रवि की तरफ से जब यह निश्चित हो गया कि उँगली निकाल दिए जाने से कोई समस्या नहीं होनी है तो फिर उसी के अनुसार समय निश्चित किया गया. उन दिनों उसका दो दिनों शनिवार, रविवार उरई में बैठना होता था. बहुत बड़ा ऑपरेशन नहीं था, इसलिए उरई के उसी नर्सिंग होम में, जहाँ वह बैठता था, उँगली का निकाला जाना तय हुआ.


रविवार को दोपहर में ऑपरेशन थियेटर में एक बार फिर हम उपस्थित हुए. विगत कुछ वर्षों में ऑपरेशन थियेटर, हॉस्पिटल से गहरा रिश्ता बन गया था. ऑपरेशन थियेटर का माहौल जाना-पहचाना सा लगने लगा था. वहाँ फैली अजीब सी सुगंध, वहाँ रखे तमाम उपकरणों की आवाज़, उनकी महक को, उपस्थिति को अब बिना किसी परेशानी के महसूस किया जाता था.




फ़िलहाल, निश्चित समय पर उँगली को निकाले जाने की प्रक्रिया शुरू हुई. किसी सर्जन के हिसाब से यह बहुत छोटा सा ऑपरेशन था और हम जितने ऑपरेशन अपने साथ गुजरते देख चुके थे, उस हिसाब से हमें भी यह जरा सा ऑपरेशन मालूम हो रहा था. आराम से चलकर ऑपरेशन वाली टेबल पर लेट गए. रवि से उसी तरह अनौपचारिक बातें चलती रह रही थीं.


उँगली में ही लोकल एनेस्थेसिया देने के बाद उसका और उसके सहयोगियों का काम शुरू हो गया. पहले की तरह आँखों, चेहरे को किसी भी तरह की बंदिश से मुक्त रखा गया सो हम भी सहजता से वार्तालाप में शामिल हो रहे थे. ऑपरेशन के पहले रवि से कई बार इस बारे में चर्चा हुई थी कि उँगली का कितना हिस्सा निकाला जायेगा. ऑपरेशन थियेटर में भी उस दौरान हमने उससे पूछा कि कितनी उँगली काट दी?


बैठ कर देख लो, कितनी काटी है. रवि ने हँसते हुए कहा.

हमें लगा कि वह मजाक में ऐसा न कह रहा हो तो हमने पूछा बैठ जाएँ?

हाँ, बैठ जाओ और देखकर बताओ और काटें या इतनी ही? उसके ऐसा कहते ही हम बैठ गए.


पहली नजर में न उँगली समझ आई और न ही पंजा समझ आया. पूरे पंजे को कपड़े से ढांक रखा था. उँगली खून से सनी लाल दिखाई दे रही थी और चारों तरफ रुई के फाहों की जकड़ में थी.

अबे जरा साफ़ करके तो दिखाओ, तब तो समझ आए कि तुमने कितनी काट डाली. हमारे ऐसा कहते ही रवि के एक सहायक ने ऊँगली साफ़ की तो साफ़-साफ़ दिखाई देने लगा कि कितना हिस्सा काटा गया है.


हाँ, ठीक है. बाकी तुम भी देख-समझ लो. हमें चलने में, खड़े होने में समस्या न हो, बस.

हमने तो अपने हिसाब से काट ही दी है. तुम भी समझ लो. कहो तो और काट दें? हँसी के साथ रवि की इस बात पर हम सभी हँस पड़े.


वे सब फिर अपने काम में लग गए और हम बैठे-बैठे उनको उँगली के साथ खेलते देखने लगे. लोकल एनेस्थेसिया के कारण उँगली में कोई एहसास भी नहीं था सो न कोई दर्द मालूम हो रहा था, न ही कुछ महसूस हो रहा था. हमें बैठे देख रवि ने लेटने को कहा तो हमने कहा कि टाँके लगते भी देख लें. जरा सुन्दरता से लगाना, कहीं उँगली की खूबसूरती न बिगाड़ दो.


बिना कुछ कहे वे लोग अपने काम में फिर जुट गए. उस दिन पहली बार टाँके लगते देखे. जीवन में बहुत बार चोट से, मरहम-पट्टी करवाने से, लोगों की घायल हो जाने पर मदद करने का मौका मिला था मगर कभी ऐसा अवसर नहीं आया था कि किसी को टाँके लगवाने पड़े हों. टाँके लग जाने के बाद हम और रवि आपस में बातें करने लगे, उसके सहायक पैर में पट्टी बाँधने में जुट गए. सारा काम हो जाने के बाद एक आशा थी कि शायद अब दाहिने पंजे को कुछ राहत मिल सके. ऑपरेशन थियेटर से बाहर आकर आगे के कुछ दिनों की दवाई, मरहम-पट्टी के बारे में सलाह लेकर घर आ गए.


निश्चित समय के बाद टाँके खोले गए. उँगली जैसी सोची थी, उसी स्थिति में आ गई मगर दर्द न गया. उँगली के काट दिए जाने के बाद से उसकी तरफ से कोई समस्या नहीं हो रही थी मगर शेष तीन उँगलियों और पंजे की अपनी समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई थी. बची हुई तीन उँगलियाँ रक्त-प्रवाह सिर्फ नीचे की तरफ से था, ऊपर की तरफ से वे सभी अनुभूति-शून्य थीं. इसके अलावा उनमें किसी तरह की गतिविधि स्वयं नहीं होती थी, इस कारण वे तीनों भी धीरे-धीरे नीचे की तरफ मुड़ने लगीं. उनका भी एकमात्र निदान कटवाना समझ आ रहा है. हाल-फ़िलहाल तो इस पर भी कई बार रवि से चर्चा हुई है मगर अभी अंतिम निष्कर्ष नहीं निकला है. देखिये, क्या होता है.

  

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

48 - हवा में उड़ता जाए मेरा दीवाना दिल

स्कूटर के आने के बाद शुरू के कुछ दिन तो उसे चलाना सीखने में निकले. पहले दिन ही अपने घर से सड़क तक की गली को पार करने में ही लगभग पंद्रह मिनट ...