मामा
के घर से हफ्ते में दो-तीन दिन ड्रेसिंग के लिए पास के नर्सिंग होम में जाना पड़ता
था. उस नर्सिंग होम के डॉक्टर और अन्य स्टाफ को हमारे बारे में बताया जा चुका था.
फोन करने पर वहाँ से एम्बुलेंस आकर हमें ले जाती और ड्रेसिंग के बाद वापस छोड़
जाती. अब बाँयी जाँघ को थोड़ा बहुत सहारा हम दे लेते थे. इसी तरह दाहिना पंजे को
कुछ हद तक उठाया जाना भी संभव होने लगा था. इसी कारण से एम्बुलेंस में आने जाने के
दौरान उठाने वालों को हमारी तरफ से भी कुछ सहायता मिल जाती. इसी में कई बार दाहिने
पंजे के जाल का हिल जाना, बाँयी जाँघ की चोट पर किसी का हाथ लग जाना अत्यंत
पीड़ादायक हो जाता.
यहाँ
आने के बाद कई बार बाँयी जाँघ और दाहिने पंजे की स्किन ग्राफ्टिंग की गई. याद नहीं
कि स्किन ग्राफ्टिंग ट्रीटमेंट हॉस्पिटल में भी किया गया था या नहीं. स्पाइनल
कार्ड में इंजेक्शन के द्वारा कमर के नीचे का हिस्सा पूरी तरह से असंवेदित किया
जाता. उसके बाद वहाँ किसी भी तरह का एहसास हमें नहीं होता था. दाहिने पैर के उस
हिस्से से, जहाँ चोट नहीं थी, स्किन को निकाल पर दाहिने पंजे के घाव पर, बाँयी
जाँघ के घाव पर लगाया जाता. दाहिने पैर की सम्बंधित जगह की स्किन पर किसी तरल
पदार्थ का लेप लगाया जाता और कुछ देर बाद उसे मेडिकल ब्लेड के सहारे से निकाल कर
चिकित्सा पद्धति से घाव पर लगा कर पट्टी बाँध दी जाती. चूँकि इस बारे में एक तरह
की अनिश्चितता बनी रहती कि घाव पर लगाई स्किन चिपकेगी या नहीं, इस कारण दाहिने पैर
से थोड़े-थोड़े हिस्से की खाल को निकाल कर घावों पर लगाया जाता.
स्पाइनल
कार्ड में लगने वाले इंजेक्शन के अलावा भी कुछ और इंजेक्शन लगाये जाते. इसका असर
ये होता कि इस प्रक्रिया के बाद पाँच-छह घंटे हम पर अचेतावस्था हावी रहती. लगभग
बेहोशी जैसी स्थिति बनी रहती. रात भर वहीं नर्सिंग होम में रुकना पड़ता. कमर के नीचे
का हिस्सा सुन्न रहता था, किसी तरह की संवेदना का एहसास नहीं
होता. ऐसी संज्ञाशून्य स्थिति में कई बार मूत्र-विसर्जन हो जाने के कारण, कई बार पसीने की अधिकता के चलते अथवा किसी अन्य शारीरिक स्थिति के कारण स्किन
घावों पर चिपक न पाती. इसकी जानकारी भी दो-तीन दिन बाद होने वाली ड्रेसिंग के समय
हो पाती. स्किन न चिपक पाने के कारण ग्राफ्टिंग ट्रीटमेंट का सारा प्रयास व्यर्थ हो
जाता. कुछ दिन बाद यही प्रक्रिया फिर अपनाई जाती. चूँकि बाँयी जाँघ में घाव भी
नीचे तरफ था इस कारण वहाँ हवा कम लगने से पसीने की नमी घाव तक जल्द पहुँच जाती.
इसके अलावा कई बार उठने-बैठने के कारण उसका हिलना-डुलना भी होता, जिसके कारण भी
स्किन को कई बार घाव पर लगने का पर्याप्त वातावरण मिल नहीं पाता था. इसके उलट दाहिने
पंजे में हवा भी लगती रहती थी और उसके हिलाने-डुलाने में घाव की तरफ कोई प्रभाव
नहीं पड़ता था. इस कारण से बाँयी जाँघ की अपेक्षा दाहिने पंजे में स्किन जल्द स्वीकार्य
हो रही थी.
घाव
पर स्किन का लग जाना ख़ुशी देता कि अब घाव जल्द भरेगा और न लगने की स्थिति में उसी
पीड़ादायक स्थिति से गुजरने का ख्याल एकबारगी परेशान कर जाता. परेशानी, कष्ट का
अनुभव स्किन निकालने वाली प्रक्रिया से कम बल्कि कुछ दिन बाद वहाँ लगाई गई पट्टी
को खींचे जाने से ज्यादा होता. जहाँ से खाल निकाली जाती वहाँ पर एक अलग तरह की
पट्टी बाँध दी जाती जो उस जगह पर चिपक जाती थी. इसको एक निश्चित समय बाद निकालना
होता था, यह काम भी अत्यंत कष्टकारक होता. पूरी पट्टी पर ऊपर से अलग-अलग हिस्सों
में ब्लेड से कट लगा दिए जाते. इसके बाद उन हिस्सों को एक झटके से खींच कर निकाला
जाता. ऐसा होने पर एकाधिक बार वहाँ से रक्त की बूँदें भी छलछला उठतीं. उस जगह पर
नारियल तेल की मालिश से आराम मिलता था. अपनी उस पीड़ा पर वे सौन्दर्य-प्रेमियों याद
आये, उनका कष्ट याद आया जिनका शरीर सुन्दरता के नाम पर वैक्सिंग की प्रयोगशाला बना
रहता है.
पूरे
दाहिने पैर की खाल कई-कई बार निकाली गई. वर्षों तक उन जगहों पर नारियल का तेल लगाया
जाता रहा. अभी भी पूरी तरह से आराम तो नहीं मिला है. अक्सर गर्मियों में उन जगहों
पर खुजली होना, दानों का निकल आना सामान्य सी बात है, फिर भी शुरूआती दिनों की
अपेक्षा बहुत राहत है.
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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र
सर आपको पढ़ कर लगता है कि वाकई ज़िंदगी जिंदाबाद | आपका कलेजा शेर का है हमें नाज़ है आप पर | लिखते रहिये सर और हमें ज़िंदा रहने की ताकत यूं ही देते रहिये | बहुत सारा स्नेह और दुआएं आपको
ReplyDeleteहाहाहा... हम तो आप लोगों से ताकत ले रहे हैं. हाँ, लिखना बराबर रहेगा. इस ज़िन्दगी को ज़िन्दाबाद तो कहते ही रहना है.
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