18 - खुद की चुनौती और खुद से ही लड़ना

ऐसे ही अनेक दिनों में से किसी एक दिन ड्रेसिंग के लिए ऑपरेशन थियेटर की टेबल पर आराम फ़रमाया जा रहा था. अब तो बेहोश भी नहीं किया जाता था, आँखों को पट्टी से ढांकना बंद कर दिया गया था, रवि से और बाकी स्टाफ से भी बातचीत, हँसी-मजाक होता रहता था. ऐसे में अपनी उस अवस्था को आराम फरमाना ही कह सकते हैं.


दाहिने पैर की पट्टियाँ खोल दी गईं और बाँयी जाँघ की पट्टी खोले जाने की तैयारी हो रही थी. इस बीच कुछ गरमी जैसा आभास होने के बारे में नर्सिंग होम के स्टाफ से कहा. पता चला वहाँ लगे एसी में से एक ने काम करना बंद कर दिया था. बगल वाले बड़े ऑपरेशन थियेटर में शिफ्ट करने की तैयारी होने लगी.

तब तक दाहिने पंजे की पट्टियाँ खुल चुकी थीं और बाँयी जाँघ की पट्टियाँ खोली जानी थीं. बगल वाले ओटी की तैयारी के कारण पट्टियों खोलना बंद कर दिया गया. ड्रेसिंग, साफ़-सफाई आदि से सम्बंधित सामानों को ले जाया जाने लगा. इस बीच हमारे आसपास कोई न था. मन में दाहिने पैर को देखने की इच्छा अचानक से हो आई. जाल के सहारे से पंजे को बाँधा गया है, कैसा होगा पंजा ये उत्कंठा जगी. उससे पहले पंजे को न तो देखा था और न ही कभी इच्छा हुई थी. उस दिन पता नहीं क्यों ऐसा मन कर गया. पंजे की असल स्थिति के बारे में हमें किसी ने बताया भी नहीं था और खुद हमें भी इसकी स्थिति का आभास नहीं था.


आँखों को पट्टी से ढांकना बंद कर दिया गया था इस कारण देखना और भी आसान था. अपनी गरदन को जरा सा ऊपर उठाकर पंजे की तरफ देखा तो धक्क से रह गए. एक पल को विश्वास ही नहीं हुआ कि ये हमारा ही पंजा है. अभी तक हम सिर्फ बाँयी जाँघ के कटे होने की और दाहिने पंजे के चोटिल होने भर की कल्पना किये हुए थे मगर वास्तविकता कुछ और ही थी. अँगूठा और उसके बगल की उँगली गायब थी. पंजे की ऊपरी खाल और माँस का नामोनिशान नहीं था. कहीं-कहीं लाल और काला रंग ही दिख रहा था. लाल रंग खून से सनी हड्डियों का और काला रंग उस जगह का जहाँ पर ग्राफ्टिंग के द्वारा खाल लगाई गई थी. पंजा किसी लकड़ी के जले-जलाए टुकड़े जैसा लग रहा था. हमारा ही पंजा हमें किसी कोयले के टुकड़े जैसा लगा. उसको देख खूब तेज चिल्लाने का मन हुआ. लगा कि एक अनजाना सा भय अन्दर ही अन्दर जन्मने लगा है. आशंका होने लगी अपने चलने पर. उसका आकार, स्थिति, रूप-स्वरूप देखकर चलने की बात तो दूर, अपने खड़े होने पर ही संशय होने लगा.

किसी तरह अपने को नियंत्रित कर ड्रेसिंग करवा कर वापस आ गए. घर पर सबके बीच पहुँचने पर खुद को बहुत कमजोर सा महसूस किया. परिजनों के हाथों पर अधलेटे स्थिति में एम्बुलेंस से पलंग तक की दूरी अपना भविष्य नजर आई. कहीं यही तो हमारा भविष्य नहीं? क्या अब इन्हीं हाथों के सहारे ही सारे क्रियाकलाप पूरे करने होंगे? क्या अब पूरी ज़िन्दगी ऐसे ही लेटे-बैठे बितानी होगी? अपनी मजबूती एक पल में कमजोर होते दिखी. अपने पंजे की असलियत देख लेने के बाद आत्मविश्वास को, आत्मबल को उसी उच्च स्तर पर ले जाना अब हमारे लिए चुनौती बन गई थी. उस चुनौती को उसी क्षण स्वीकार करते हुए मन ही मन निश्चय किया कि यदि दाहिना पंजा हमें खड़ा करने में, चलने में सहायक न हुआ तो उसे कटवा कर उसकी जगह नकली पैर ही लगवा लेंगे. सोच लिया कि अब कुछ भी हो जाये खड़े अपने पैरों पर ही होना है. चलना अपने पैरों से ही है.

समय के साथ स्वास्थ्य लाभ होता रहा. पंजे की, जाँघ की स्थिति में सुधार होता रहा. यद्यपि पंजा एकाधिक अवसरों पर साथ देने से इनकार कर देता है, एकाधिक अवसरों पर कष्ट के चरम तक ले जाता है तथापि उसने हमारे खड़े होने में, चलने में हमारा आज तक साथ देना स्वीकार किया. अपनी जगह कृत्रिम पैर को नहीं आने दिया.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

4 comments:

  1. आपकी हिम्मत और सहनशक्ति हमेशा बनी रहे.

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    1. शुरू से अभी तक के सारे घटना क्रम एक साथ पढ़ गई. सोच कर ही सिहरन हो रही कि इतने दर्द को कैसे सहा होगा आपने. और यह भी कि दूसरों के सामने हँसते रहना है, ताकि आपके दुःख से वे दुखी न हो. आपकी आत्मशक्ति, मनोबल और जीवटता को सलाम करती हूँ.

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