10 - अपनों की संजीवनी से मिला नया जीवन

हम आईसीयू से मुक्ति पा गए किन्तु ऑपरेशन थियेटर से मुक्ति नहीं मिली, दर्द से मुक्ति नहीं मिली, घनघोर कष्टों से मुक्ति नहीं मिली. ऑपरेशन थियेटर में कई-कई रातों उस अथाह पीड़ा और कष्ट से गुजरना पड़ा. अपनी चीखों से खुद ही लड़ना पड़ा. आईसीयू से निकलने के बाद इतना अंतर आया कि उँगलियों से लगी तमाम क्लिप्स हटा दी गईं. आसपास मशीनों की बीप-बीप सुनाई देना बंद हो गई. आईसीयू का अकेलापन मिट गया. अब उस कमरे में परिवार के लोग आँखों के सामने रहते थे. घर-परिवार के सभी लोग किसी न किसी समय दिखाई दे जाते थे, बस नहीं दिखाई देते थे तो पिताजी. उनका दिखाई देना अब संभव भी नहीं था. पलंग पर लेटे-लेटे अनेक बार उनका स्मरण होने पर रोने को मन करता मगर अपने आँसुओं को आँखों ही आँखों में पी जाते. ये हम अच्छी तरह से जानते थे कि हमारी आँखों में एक आँसू भी सबको परेशान कर देगा.


उस कमरे में आने के बाद घर के लोगों से मिलना सहज हो गया था. उस कष्ट में सबका वहाँ हमारे साथ होना हमारा बहुत बड़ा संबल था. अम्मा, बच्चा चाचा, निशा, दोनों छोटे भाई तो हमारे साथ बराबर रहते थे. बच्चा चाचा से बचपन से ही एक अलग तरह का लगाव रहा है. उनके साथ छह-सात वर्ष की आयु की एक घटना आज भी याद है जबकि वे कुछ दिन के लिए उरई आने के बाद वापस अपने काम पर चले गए तो हमारा रोना-पीटना इतना बढ़ा कि हम बीमार तक पड़ गए. बहरहाल, बच्चा चाचा हॉस्पिटल में हमारे साथ हमारी साँस बनकर सदैव साथ बने रहे. कानपुर में ही रहने वाले नाना, मामा-मामी, जिज्जी-जीजा जी तो रोज ही आते थे. उनके आने से भी हमें आत्मविश्वास, आत्मबल बढ़ाने में मदद मिलती. इसके साथ-साथ चाचा-चाची, भाई-बहिन, ससुराल पक्ष के लोग, दोस्त, रिश्तेदार, सहयोगी, शुभेच्छुजन, जान-पहचान के लोग नियमित रूप से हमसे मिलने आते थे. इन सभी का आना, मिलना, बातचीत करना हमारा हौसला बढ़ाता था.



रहिमन विपदा हू भली, जो थोड़े दिन होए,
हित अनहित या जगत में, जान पड़े सब कोए.
ये पंक्तियाँ उस समय तो याद नहीं आईं मगर बाद में ये सन्दर्भ-प्रसंग सहित स्पष्ट समझ आईं. दुर्घटना के बाद कानपुर में रुकने के दौरान अनेक तरह के अनुभव हुए. अपनों का बेगानापन दिखा, बेगानों का जबरदस्त अपनापन देखा. हॉस्पिटल में एक महीने भर्ती रहने के दौरान उरई से मिलने-देखने वालों का ताँता लगा रहता. बहुत से लोग तो बस कमरे के दरवाजे से झाँक कर देखकर ही लौट जाते. कुछ लोग परिवार वालों से मिलकर हालचाल लेते और बिना हमें देखे, बिना हमसे मिले इस कारण लौट जाते कि हमें परेशानी न हो. ऐसे मिलने और हमारी कुशल क्षेम जानने वालों में ऐसे बहुत से लोग रहे जो हमें बस नाम से जानते थे.

लोगों का स्नेह हमसे मिलने मात्र को लेकर ही नहीं था. पहले दिन से लेकर हॉस्पिटल में भर्ती रहने तक छब्बीस यूनिट ब्लड की आवश्यकता हमें पड़ी. पहले दिन की चार यूनिट ब्लड को छोड़ दिया जाये तो शेष ब्लड उरई से आकर लोगों ने दिया. हमने अपने सामाजिक कार्यों में स्वयं महसूस किया है कि एक-एक यूनिट ब्लड की प्राप्ति के लिए रक्तदाताओं की बड़ी समस्या आती है. लोगों का हमारे प्रति स्नेह, प्रेम, विश्वास ही कहा जायेगा कि इतनी बड़ी संख्या में फ्रेश ब्लड हमें उपलब्ध हुआ. चूँकि एक दिन में सिर्फ दो यूनिट ब्लड हमें चढ़ाया जाता था, इस कारण लोगों को रक्तदान के लिए रोकना पड़ रहा था, समझाना पड़ रहा था. कुछ लोग हमें रक्त न दे पाने की नाराजगी भी प्रकट करते मगर वह भी उनका हमारे प्रति स्नेह, प्यार ही था. मिलने वालों की, रक्त देने वालों की संख्या, इन स्थितियों से हमारे परिजन हमें अवगत कराते रहते थे. हमें खुद में आश्चर्य लगता था कि आखिर लोगों का हमारे प्रति इतना प्रेम, स्नेह किस कारण?

कुछ ऐसा आश्चर्य हॉस्पिटल की व्यवस्था देखने वाले एक डॉक्टर साहब भी व्यक्त करते थे. वे प्रतिदिन सुबह-शाम हमसे मिलने आया करते थे. तमाम सारी बातों, हालचाल के साथ-साथ वे एक सवाल निश्चित रूप से रोज पूछते थे कि कुमारेन्द्र जी, आप उरई में करते क्या हैं, जो मिलने वालों की इतनी भीड़ आती है?  इस सवाल का कोई जवाब हमारे पास नहीं होता था. बस उनके सवाल को सुनकर मुस्कुरा देते थे.

इसके साथ ही रक्तदान करने वालों के बारे में भी उनका कहना था कि अपनी लम्बी मेडिकल सेवा में मैंने किसी को इतना फ्रेश ब्लड मिलते नहीं देखा है. ऐसा पहली बार हुआ है कि ब्लड डोनेट करने वालों को रोकना पड़ रहा है.

उनकी बातों को सुनकर हम तब भी नहीं समझ सके थे कि वास्तव में हमने किया क्या है? वास्तव में हम करते क्या हैं? क्यों इतने लोग हमें देखने आ रहे हैं? क्यों इतने लोग अपना रक्त दान कर हमें बचाने आ रहे हैं? यह बात तब भी न हम खुद समझ सके थे, न उन डॉक्टर साहब को समझा सके थे. न ही आज समझ सके हैं, न ही आज भी समझा सकते हैं. न कोई पद, न कोई दायित्व, न कोई नौकरी, न कोई व्यापार, न धनवान, न राजनीतिज्ञ पर नगरवासियों का, जनपदवासियों का यही अपार स्नेह हमारे लिए संजीवनी बना.

इसी संजीवनी ने एक माह पहले परिवार पर आये विकट संकट में भी खड़ा रहने का साहस प्रदान किया. इसी संजीवनी ने अपनों के बेगानेपन को भुलाने में अपनी भूमिका अदा की. इसी संजीवनी शक्ति ने आर्थिक समस्या में घिरे होने के बाद भी आर्थिक संबल प्रदान किया. इसी संजीवनी ने तमाम सारे दुखों को कम करने की ताकत दी, उनसे लड़ने का हौसला दिया.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

6 comments:

  1. कुमार पद ,धन, स्तर या रसूख से बड़ा होता है इंसान का व्यवहार । विनम्रता, मधुर वाणी और दूसरे के सुख दुख में शरीक होना ही इसके लिए काफी है और वही तुम्हारे लिए सकारात्मक पक्ष है ।

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    1. बुआ जी, जैसा आप बड़ों ने सिखाया, वैसा करने का प्रयास रहता है.

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  2. बढ़िया - बाक़ी के अंक भी पढ़ने का मन बन गया है

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  3. अपनों का अपनापन ही तो संजीवनी होता है. बहुत बढ़िया.

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