12 - उजियारे की चाह में रात को निकलता सूरज

पन्द्रह-सोलह दिन हो गए थे मगर घावों की स्थिति में उस तेजी से सुधार होता नहीं दिख रहा था, जिस तेजी से रवि चाहता था. एक तरफ घावों का जल्द भरना नहीं हो रहा था, दूसरी तरफ बेहोशी वाली दवा का हम पर बहुत ज्यादा असर न होना भी चिंता का विषय था. स्पाइनल कोर्ड में इंजेक्शन के द्वारा बहुत दिनों तक इलाज किया जाना उचित नहीं था. हम दोस्तों की इस बारे में बात भी होती रहती थी. संदीप, अभिनव, रवि और हम कॉमन दोस्तों में थे. हॉस्पिटल में कुछ दिन इस चौकड़ी का समय एकसाथ बीता. उसी दौरान बेहोशी की दवा की अधिकता के साइड इफेक्ट भी हमें बताए गए. इन लोगों के द्वारा हमें दर्द सहने की क्षमता बढ़ाने को कहा गया. हम समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर अपनी सहनशक्ति को किस स्थिति तक ले जाएँ? ऑपरेशन थियेटर में दर्द के कारण हमारा चीखना उस समय होता था जबकि चुप साधे रहने की हमारी सारी हदें पार हो जातीं. इसी बातचीत में इसकी भी सम्भावना जताई गई कि हो सकता है कि आने वाले दिनों में ड्रेसिंग के दौरान बेहोशी का एक डोज ही दिया जाए. धीरे-धीरे उसे भी बंद कर दिया जायेगा.


घावों की स्थिति देख लग रहा था जैसे ड्रेसिंग बहुत दिनों तक चलेगी. और हुआ भी कुछ ऐसा. तमाम सारे उपाय करने के बाद भी ड्रेसिंग लगभग पाँच महीने तक चली. तीन महीने तो कानपुर में इस पीड़ा से जूझना पड़ा, बाद में दो-ढाई महीने यह कष्ट उरई में सहा. उस दिन रविवार था जबकि घावों की साफ़-सफाई, ड्रेसिंग, मरहम-पट्टी का बहुत बड़ा काम हमारे होश रहने के दौरान किया गया. हमें इसका अंदाजा नहीं था कि जिस सम्भावना की चर्चा हमारे सामने ही हुई है, उसे आज से ही शुरू कर दिया जायेगा. उस रात ड्रेसिंग के दौरान हमारे साथ बचपन का एक और दोस्त अभिनव भी वहीं रुक गया.


बेहोशी की दवा की एक डोज देने के बाद रवि और उसके सहयोगियों का काम शुरू हो गया. जैसा कि और दिनों में होता था, असर जल्द ही ख़त्म हो गया. हम फिर अपनी चेतना के साथ ऑपरेशन टेबल पर थे. दूसरी डोज हमें लगनी नहीं थी, सो नहीं लगी. इसका भान हमें बिलकुल नहीं था कि जिस स्थिति को जल्द ही अपनाए जाने की बात हमारे सामने हुई थी, उसे आज से ही अपना लिया गया. उस रात बहुत देर तक दर्द जैसी स्थिति बनी रही, हमारे होश में रहने जैसी स्थिति बनी रही तो इसका एहसास होने लगा.

हम जितना दर्द सहन कर सकते थे किया, उसके बाद तो वही हाल. उस रात ऐसा लग रहा था जैसे यही अंतिम रात है. अपनी पूरी ताकत से होंठ भींच लेते, अभिनव का हाथ थाम लेते मगर दर्द से चीखना बहुत देर रोक नहीं पाते थे. ऑपरेशन टेबल पर हमारे लिटाने के साथ ही आँखों पर एक भारी सी पट्टी डाल दी जाती थी. कमर से लेकर सीने तक भी एक मोटा सा कपड़ा ओढ़ा दिया जाता. जब स्थिति हमारे नियंत्रण से बाहर लगती नजर आई. दम घुटता सा लगने लगा. महसूस होने लगा जैसे सबकुछ अंधकार में विलीन होने वाला है तो चिल्ला कर रवि को आवाज़ दी. उससे अपनी आँखों से पट्टी हटाने को कहा.

दो-चार पलों के लिए उन सबके चलते हाथ रुक गए. आँखों से पट्टी हटा दी गई. चकाचौंध रौशनी भी हमें किसी टिमटिमाते बल्ब जैसी समझ आ रही थी. चारों तरफ अँधेरा सा मालूम पड़ रहा था. किसी के भी चेहरे स्पष्ट नजर नहीं आ रहे थे. एक हाथ रवि ने, दूसरा हाथ अभिनव ने थाम रखा था. साँस तेजी से चल रही थी. अपने होंठों पर जीभ फेरते हुए कुछ कहने की कोशिश की उससे पहले अभिनव ने रुमाल निकाल माथे, चेहरे, गरदन आदि पर बहते पसीने को पोंछा.

चंद मिनट बाद आँखों को पट्टी से ढाँकने की कोशिश की तो रवि से ऐसा न करने को कहा. रवि ने बिना कुछ कहे उस पट्टी को अलग रखवा दिया. अब खुली आँखें कभी दर्द से बंद हो जातीं, कभी अभिनव के चेहरे पर जम जातीं. ड्रेसिंग के बाद बहुत देर हम और अभिनव उसी कमरे में बने रहे. हमारी स्थिति ऐसी भी नहीं थी कि उसकी किसी बात का सहजता के साथ जवाब दे पाते. दुर्घटना की पहली शाम जिस तरह से साँसों का टूटना हो रहा था, हाँफना हो रहा था, आवाज़ का लड़खड़ाना हो रहा था कुछ ऐसा ही या कहें उससे अधिक उस रात हो रहा था. रात भर पैर बुरी तरह से दर्द करता रहा.

उस रात के बाद आँखों को पट्टी से ढंकना बंद कर दिया गया. बेहोशी की दवा का प्रयोग कम से कम होने लगा. फिर एक रात वो भी आई जबकि बिना बेहोश किये दोनों पैरों की ड्रेसिंग हुई. असहनीय दर्द से गुजरते-गुजरते आत्मबल इतना मजबूत हो गया था कि हर रात दर्द से गुजरने का डर ख़त्म हो गया. इसका लाभ आने वाले दिनों में मिला जबकि कई महीनों तक चलने वाली मरहम-पट्टी में और उसके बाद के दौर में दर्द की अनुभूति साँस लेने जैसी, पलक झपकने जैसी, दिल के धड़कने जैसी होने लगी.  

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

4 comments:

  1. असहनीय दर्द से गुजरते-गुजरते आत्मबल इतना मजबूत हो गया था !
    उफ्फ्फ !!

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    1. खुद को मजबूत करना मजबूरी भी थी क्योंकि इससे लगातार जूझना था, जूझ भी रहे हैं.

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  2. ये आत्मबल सबमें नहीं होता लेकिन उस दर्द को सहन करना भी आसान नहीं था ।

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