3 - क़यामत बन कर आई वो शाम

22 अप्रैल 2005 की शाम जैसे क़यामत की शाम बनकर आई. एक माह पूर्व 16 मार्च को पिताजी के असमय निधन से हम सभी अभी उबर भी न सके थे कि एक और हादसा सहना पड़ा. इस हादसे के होना कोई अकेले हमारे साथ नहीं था. एक अकेले ही हम इससे प्रभावित नहीं हो रहे थे. पूरा परिवार इससे प्रभावित हो रहा था. अनेक जिम्मेवारियाँ इसके साथ प्रभावित हो रही थीं. अनेक कर्तव्य इसके साथ याद आ रहे थे. इन्हीं सबको याद करते हुए, समझते हुए खुद को बस एक साँस और की स्थिति तक बार-बार ले जा रहे थे.


कार सड़क पर तेजी से भागने में लगी थी. बाँया पैर घुटने से पाँच-छः इंच ऊपर से कट चुका था. दाँया पैर भी, ख़ास तौर से पंजा बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका था. पंजा अपने जोड़ से टूट कर लटका हुआ था. अँगूठा, उँगलियाँ और पंजे की हड्डियाँ लगभग चूर-चूर हो चुकीं थीं. रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर और बाद के कार में इस पैर की वास्तविक स्थिति समझ नहीं आ रही थी और न ही इस तरफ अधिक ध्यान था. उस समय पूरा ध्यान खुद को और छोटे भाई को सही-सलामत बनाए रखने पर था. ध्यान इस पर था कि हमारे पैर काटने की खबर घर न पहुँचे. ऐसे में इस पैर की हालत न समझ सके और न इस बारे में कुछ सोच सके.





इस पैर की असलियत या कहें कि वास्तविक स्थिति लगभग डेढ़ महीने बाद हमारी नज़रों के सामने से गुजरी. पूरा पंजा एक फ्रेम की सहायता से कसा हुआ था. जो उँगलियाँ बच गईं थीं उनको यथास्थिति लाने की कोशिश में सभी को तार के द्वारा सहारा दिया गया था. पंजा लटका न रहे, उसके लिए एड़ी से लगभग चार-पाँच इंच लम्बीएक मोटी कील पैर के अन्दर धँसी हुई थी. उस दिन भी शायद हमें उस पंजे के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने का आभास न होता मगर उस पंजे की ड्रेसिंग के दौरान ऐसी स्थिति सामने आई कि वह पंजा दिखाई दे गया.

दुर्घटना के ठीक पहले दिन से रवि के द्वारा ही हमारा उपचार किया गया. वह हमारे लंगोटिया यारों में एक है और वर्तमान के कानपुर में प्रसिद्द सर्जन है. इलाज के दौरान जब भी हलकी-फुलकी ड्रेसिंग का दौर होता या फिर कुछ ऐसा कि हमें बेहोश न किया जाता तो रवि अपना काम करता रहता और साथ ही हम दोनों दोस्त गप्प भी मारते रहते. उसी गप्पबाजी में अपने उस पंजे की हकीकत समझ सके.

अपना ही पंजा देखकर एक पल को पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई. ऐसा महसूस हुआ जैसे एक अजीब तरह की ठंडक, एक अनजाना सा भय शरीर में घुसकर नस-नस में दौड़ने लगा हो. ऐसी स्थिति तो उस दिन प्लेटफ़ॉर्म के ऊपर अपने बाँए कटे पैर को देखने के बाद भी नहीं हुई थी. अँगूठा गायब, पंजा लगभग एड़ी तक कटा हुआ, ऊपर का पूरा माँस गायब, सिर्फ हड्डियाँ और खाल के नाम पर उन्हीं हड्डियों पर जगह-जगह सर्जरी के द्वारा चिपकाई गई हमारे ही शरीर की खाल. आँखों की कोर से छलकने को आतुर आँसुओं की बूँदों को उन्हीं पलकों में सहेज लिया. याद आ गई पुरानी एक बात कि सँभाल कर रखिये अपने ये आँसू, कभी हमारे लिए भी रोना पड़ेगा. हॉस्पिटल से वापस घर आकर सबको सामने देखकर फूट-फूट कर रोने का मन हुआ मगर सबके परेशान हो जाने का विचार आते ही वही चिरपरिचित हँसी होंठों पर उभर आई जो सबके सामने पहले दिन आईसीयू में उभरी थी.

दोनों पैरों में से कौन सा पैर ज्यादा कष्ट दे रहा था, किस पैर में ज्यादा दर्द हो रहा था इसका अंदाजा ही नहीं लग पा रहा था. सड़क के गड्ढों से उठने वाली धमक पूरे शरीर में दर्द भर देती थी. बायाँ पैर तो पट्टियों की मोटी परत में बंधा हुआ था, जिसके कारण खून बहुत तेजी से नहीं बह रहा था. इसके उलट बहते खून से सनी पट्टी अब खून को रोकने का ही काम कर रही थी. डॉक्टर की सलाह पर दाहिने पंजे से बहते खून को रोकने के लिए ड्रिप चढ़ाने वाली प्लास्टिक की नली का सहारा लिया जा रहा था. प्लास्टिक की नली को कुछ देर तक पैर में खूब तेजी से बाँध कर खून का बहाव रोका जाता. लगभग पाँच-सात मिनट बाद उस प्लास्टिक की नली को लगभग इतनी देर के लिए खोल दिया जाता.

पैर को नली से बाँधने और ढीला करने की कसरत डॉक्टर साहब की सलाह पर की जा रही थी. उनका कहना था कि यदि पैर को खुला रखा गया तो शरीर का शेष खून भी तेजी से बह जायेगा, जिसके चलते हमारा बचना मुश्किल हो जायेगा. उस प्लास्टिक नली को बहुत देर बाँधना भी हमारे लिए इसलिए घातक था क्योंकि ज्यादा देर बाँधे रहने से पैरालाइसिस होने का खतरा था. इसके खुलते ही पैर से खून का तेजी से बहना तुरंत शुरू हो जाता. ऐसा लग रहा था जैसे मौत हमारे साथ-साथ चल रही थी कि मौका मिलते ही वह हमारी ज़िन्दगी को निगल जाए.

.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

2 comments:

  1. एक ऐसा स्वप्न जो बुरे स्वप्न की संज्ञा देने से भी पूर्णतः परिभाषित नही होता
    22 अप्रैल 2005 को ही 11 बजे आप घर आये थे और हमारी आपकी मुलाकात हुई
    हमने घर पर बनी आइसक्रीम खाने का आग्रह किया आप बोले रखी रहने देना लखनऊ से लौट कर खाएंगे और फिर 4 बजे हमको दुर्घटना की सूचना मिली
    सके पश्चात से अब तक आप क्रमशः लौह व्यक्तित्व को गढ़ते ही रहे हैं जिसका साक्षी पूरा जनपद जालौन है

    ReplyDelete
    Replies
    1. उस दिन खा लेनी थी आइसक्रीम. उससे और हाथ धो बैठे.

      Delete

48 - हवा में उड़ता जाए मेरा दीवाना दिल

स्कूटर के आने के बाद शुरू के कुछ दिन तो उसे चलाना सीखने में निकले. पहले दिन ही अपने घर से सड़क तक की गली को पार करने में ही लगभग पंद्रह मिनट ...