27 - अब तमन्ना है आसमां के पार जाने की

कभी हसरत थी आसमां छूने की, अब तमन्ना है आसमां पार जाने की, ये वे दो पंक्तियाँ हैं जिन्हें उरई में आयोजित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में नवम्बर 2005 में पढ़ा था. ये दो पंक्तियाँ बाद में हमारी पहचान बन कर हमारे साथ चलने लगीं. स्थानीय दयानंद वैदिक महाविद्यालय में हिन्दी साहित्य विषय से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था. महाविद्यालय में अध्ययन और अध्यापन करने के कारण तथा बचपन से यहाँ के बहुत से प्राध्यापकों के साथ पारिवारिक सम्बन्ध होने के कारण लगाव भी था. इस आपत्तिकाल में भी यहाँ के लोग हमारे साथ मजबूती से खड़े हुए थे. विषय से सम्बंधित संगोष्ठी होने के कारण और महाविद्यालय से अपनत्व होने के कारण संगोष्ठी में सहभागिता करना अनिवार्य स्थिति जैसा ही था.


उरई में कुछ दिनों की झिझक के बाद व्हीलचेयर का उपयोग करना शुरू कर दिया था. पीसीपीएनडीटी समिति की बैठक में कार से जाने के बाद कहीं जाना भी नहीं हुआ था. व्हीलचेयर से बस घर के अन्दर ही टहलना होता रहता था. ऐसा लोगों के घर पर मिलने आने के दौरान अथवा अपने सामान्य क्रियाकलापों के दौरान किया जाता. उसी समय एक साहित्यिक कार्यक्रम का आमंत्रण मिला. घर के पास स्थित उक्त महाविद्यालय के वाचनालय में इसका आयोजन किया जा रहा था. मन बहुत हो रहा था जाने का किन्तु साथ ही झिझक भी महसूस हो रही थी. झिझक एक तो अपनी स्थिति को लेकर थी, साथ ही वहाँ कैसे जाया जायेगा इसे लेकर भी थी. खुद को खुद की निगाहों में सिद्ध करने के लिए जाना भी चाहते थे. कार्यक्रम स्थल के घर से नजदीक होने के कारण व्हीलचेयर से ही जाने का निश्चय किया. उस कार्यक्रम में व्हीलचेयर सहित पहुँचने के बाद हिम्मत बढ़ी. बाहर निकलने की झिझक भी दूर हुई.

इस कार्यक्रम में शामिल होने से अपनी नजर में हमारी झिझक दूर हुई. यह भी समझ आया कि इस तरह के सार्वजनिक कार्यक्रमों में सहजता से सहभागिता की जा सकती है. इसी के साथ उन तमाम लोगों के मुँह पर तमाचा भी पड़ा जो हमें इस दुर्घटना के बाद सार्वजनिक जीवन से, सामाजिक जीवन से दूर हो जाने की भविष्यवाणी कर चुके थे. इस कार्यक्रम में सम्मिलित हो जाने के बाद राष्ट्रीय संगोष्ठी में सहभागिता करने का जोश आ गया. घरवालों में भी यह विश्वास बैठ गया कि हम व्हीलचेयर से आसानी से ऐसे कार्यक्रमों में आ-जा सकते हैं.


हिन्दी संगोष्ठी के लिए शोध-पत्र भी तैयार किया और यथासमय उसे पढ़ने का अवसर भी मिला. दुर्घटना के बाद यह पहला कार्यक्रम था जिसमें मंच से बोलने का अवसर मिला था. वह समय पूरे सभागार को अत्यंत भावुक करने वाला था. न केवल हमारी आँखों में नमी थी बल्कि हमारे बहुत से शुभेच्छुजनों की आँखें भी बरस रही थीं. माइक के सामने बोलने का विश्वास ज्यों का त्यों बना हुआ था, आवाज़ में भी आत्मबल झलक रहा था अंतर यदि कहीं नजर आया तो बस देखने वालों को. उनको उस समय हम बजाय खड़े होकर बैठे हुए बोलते दिखाई दिए. संगोष्ठी में जिस तरह से लोगों की उत्साहित करने वाली टिप्पणियाँ मिलीं उन्होंने आंतरिक शक्ति के संवर्द्धन का कार्य किया.  

इस संगोष्ठी के अगले महीने इसी महाविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग द्वारा आयोजित नेशनल सेमिनार में भी सहभागिता की. Stress and Coping विषय पर आयोजित सेमिनार में गुम होता बचपन शीर्षक से प्रस्तुत हमारे पेपर को बहुत सराहा गया. घर में खाली समय का सदुपयोग इस तरह के अकादमिक कार्यों के लिए, पठन-पाठन, लेखन में किया जा रहा था. इस सेमिनार में उस अनुभव से फिर गुजरना पड़ा जिससे कुछ वर्ष पहले आश्चर्यजनक रूप से हमें गुजरना पड़ा था. भोजनावकाश के समय महाविद्यालय के मनोविज्ञान के विद्यार्थियों ने हमें घेर लिया. हिन्दी विषय के विद्यार्थी द्वारा मनोविज्ञान जैसे वैज्ञानिक विषय पर अपना सारगर्भित पेपर प्रस्तुत करना उनके लिए आश्चर्य का विषय था. कई बिन्दुओं पर उन्होंने अपनी जिज्ञासाओं को दूर किया, कुछ समस्याओं का समाधान चाहा और उसके बाद उनमें से कुछ ने अपनी-अपनी नोटबुक हमारे सामने बढ़ा दी. हमारे चौंकने जैसी स्थिति पर उन्होंने हमसे ऑटोग्राफ देने का आग्रह किया. हँसते-मुस्कुराते सभी बच्चों को खुश किया. हमें समझ आ रहा था कि विषय सम्बन्धी आश्चर्य होने के साथ-साथ उन बच्चों के मन में हमारी शारीरिक स्थिति को लेकर भी आश्चर्य बना होगा. उनके लिए संभव है कि यह कौतूहल का विषय हो कि शारीरिक रूप से ऐसी स्थिति वाला व्यक्ति कैसे सक्रिय रह सकता है.

यह आज भी सहज रूप में देखने को मिलता है कि समाज में दिव्यांगजनों को लेकर मानसिकता में बहुत सकारात्मकता नहीं है. उनकी सक्रियता को आश्चर्य से देखने की आदत बनी हुई है. कहीं-कहीं उनकी शारीरिक स्थिति को हास्य का विषय भी जाने-अनजाने बना लिया जाता है. बहरहाल, उन बच्चों को आशीर्वाद के साथ ऑटोग्राफ तो दिया ही साथ ही उनको समझाया कि आत्मविश्वास को सशक्त बनाकर, आत्मबल को मजबूत करके किसी भी समस्या से निपटा जा सकता है. यही कदम सफलता की तरफ ले जाता है.

.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

26 - खुद को खुद के हाथों में सँवारना

घर आने के बाद समय का अकेलापन महसूस नहीं हो रहा था. अब समूचा परिदृश्य सामने दिख रहा था. कानपुर रहने के दौरान सिर्फ स्वास्थ्य लाभ लिया जा रहा था. घर के किसी सदस्य के उरई कई दिन रुकने की स्थिति भी नहीं बन सकती थी. इसके चलते गाँव के, खेती के, पिताजी के देहांत पश्चात् तमाम कानूनी कार्यों में विलम्ब हो रहा था. उरई आने के बाद छोटे भाइयों की भागदौड़ बढ़ गई. अम्मा और पत्नी की पारिवारिक कार्यों की व्यस्तता बढ़ गई. मिलने आने वालों की संख्या बढ़ गई. घावों के अभी पूरी तरह भरे न हो पाने के कारण संक्रमण का खतरा बना हुआ था. जिसके चलते मिलना-जुलना भी बहुत सीमित रूप में होता था.


कानपुर से उरई आना सिर्फ उरई आना भर नहीं था. यहाँ आने का अर्थ बहुत सी जिम्मेवारियों का निर्वहन था. उरई आना हुआ तो बहुत से अधूरे कामों को पूरा करने की तरफ ध्यान दिया गया. सामाजिक जीवन के अधूरेपन की तरफ भी ध्यान दिया जाना था मगर उससे पहले पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति करनी थी. तमाम वे दायित्व निर्वहन करने थे जो पिताजी के असमय जाने पर स्वतः ही हमारे कन्धों पर आ गए थे और हम उनके प्रति कुछ सोच भी पाते कि हम खुद पलंग पर आ गए थे. उरई में होने का अर्थ उसी जगह पर फिर से खुद को खड़ा करना था जहाँ पर लगातार सक्रियता रही थी. यहाँ होने का अर्थ अपने आपको साबित करना था.


खुद को अपनी नज़रों में कभी कमजोर नहीं होने दिया था और यही हमारे लिए पर्याप्त था. उरई आने के कुछ दिन बाद से ही सामाजिक सक्रियता को शुरू करने का मन होने लगा. इसके पीछे एक कारण खुद को खुद की निगाह में यह साबित करना था कि ऐसी स्थिति में भी काम करने का जज्बा शेष है या नहीं. इसके साथ-साथ उन तमाम लोगों की मानसिकता पर भी प्रहार करना था जिनको लगता था कि हम अब ख़तम हो गए हैं. हमारा अस्तित्व अब शून्य में विलीन हो गया है. उस समय कन्या भ्रूण हत्या निवारण से सम्बंधित हमारा एक प्रोजेक्ट जनपद जालौन में संचालित था.

इस विषय पर जनपद में सबसे पहले काम हमने उस समय आरम्भ किया था जबकि प्रशासनिक स्तर पर भी इस दिशा में कोई काम नहीं हो रहा था. इसी प्रोजेक्ट के चलते हमें जनपद की पीसीपीएनडीटी समिति का सदस्य भी बनाया गया था. इस समिति का कार्य जनपद में कन्या भ्रूण हत्या सम्बन्धी मामलों को रोकना, अल्ट्रासाउंड सेंटर्स की कार्यविधि पर निगाह रखना, नागरिकों के बीच इस विषय पर जागरूकता फैलाना आदि होता है. प्रति दो माह में इस समिति के पदाधिकारियों की एक बैठक होती है, जिसमें कन्या भ्रूण हत्या सम्बन्धी विषय पर तमाम बिन्दुओं पर विचार-विमर्श होता है. इस समिति का सदस्य होने के कारण अगस्त में होने वाली बैठक की सूचना मिली. अप्रैल से लेकर अगस्त तक हमारा आवागमन घर से हॉस्पिटल तक ही रहा था. ऐसे में बड़ी ऊहापोह बनी हुई थी कि बैठक में शामिल हुआ जाये अथवा नहीं?

दो-तीन दिन की ऊहापोह के बाद अंतिम रूप से हमारा उस बैठक में जाना तय हुआ. छोटे भाई का मित्र अपनी कार के साथ निश्चित दिन पर उपस्थित हुआ. भाइयों के कन्धों का सहारा लेकर हम सीएमओ ऑफिस पहुँचे. उन सभी के लिए हमारा उपस्थित होना आश्चर्य का विषय था. हमारे खुद के लिए उरई के सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सम्मिलित होने के प्रति यह एक ठोस कदम था. दर्द, घाव, कष्ट आदि को दरकिनार कर एक बार बढ़े कदम फिर थमे नहीं.

.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

25 - खुद से लड़ना और जीतना-हारना खुद से

कानपुर से उरई लौटने की तैयारी होने लगी थी. उन्हीं तैयारियों में हमारे चलने-फिरने का इंतजाम भी किया जाना था. चूँकि अभी अपने पैरों से चलना संभव नहीं था ऐसे में चलने-फिरने के लिए व्हील चेयर का इंतजाम किया गया. जिस दिन व्हील चेयर लाई गई उस दिन घर का माहौल कुछ उदास-उदास सा रहा. ऐसा किसी ने अपने शब्दों से महसूस न होने दिया मगर सभी की गतिविधियों से, चेहरे से, हाव-भाव से ऐसा ज़ाहिर हो रहा था. खुद हमारी स्थिति व्हील चेयर पर बैठने को लेकर बहुत सहज नहीं हो पा रही थी. 


कानपुर में मामा जी का घर काफी बड़ा था. जितने हिस्से में मकान बना हुआ था, उससे ज्यादा हिस्सा खुला हुआ था. सुबह-शाम वहाँ बैठकी लगती रहती थी. जब तक हमारे दाहिने पैर से फ्रेम और कील न निकली थी, तब दिक्कत थी बाहर जाने में मगर व्हील चेयर आने के बाद ये सहज समझ आया. इधर फ्रेम, कील भी निकल चुकी थी ऐसे में बनवाए गए जूते के सहारे खड़ा होना भी आसान था, पैर को लटकाना, जमीन पर टिकाए रखना भी सरल हो गया था. इसके बाद भी हमें व्हील चेयर का उपयोग करने में जबरदस्त झिझक हो रही थी. व्हील चेयर आये कई दिन हो गए थे और जब भी सुबह या फिर शाम को उसके सहारे बाहर लॉन में बैठने को कहा जाता था तो अपने आपमें बहुत ज्यादा असहजता महसूस होती थी.


ऐसा क्यों होता था, इस बारे में कुछ समझ नहीं आता था. कई बार लगता चलने-फिरने में खुद के बजाय किसी पर आश्रित हो जाना हमें कमजोर साबित करता था. कई बार ये भी लगता कि एथलेटिक्स में दस हजार मीटर की दूरी को हँसी-खेल से नाप देने वाला एथलीट अब एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने के लिए व्हील चेयर का सहारा लेगा. ऐसे न जाने कितने ख्याल हमारे भीतर उमड़ते रहते और हम खुद अपने आपसे लड़ते हुए हर बार व्हील चेयर पर बैठ कर बाहर आने का सबका आग्रह टाल देते. कई दिनों की ऐसी स्थिति के बाद बहुत अनमने भाव से मात्र एक दिन कुछ देर के लिए व्हील चेयर का सहारा लेकर लॉन में निकल शाम का नजारा अपने अन्दर भरते रहे. ऐसा बस एक दिन ही करने की हिम्मत अपने अन्दर ला सके.

कमजोर न होने के बाद भी एक कमजोरी सी महसूस हो रही थी. यह जानते हुए भी कि अब ऐसी स्थिति से लगातार सामना करना ही है एक असहजता बनी हुई थी. मन को धीरे-धीरे इसके लिए समझाते रहते, खुद को शांत भाव से ऐसे कई-कई उपकरणों के उपयोग करने के बारे में, उनके सहारे आगे बढ़ने के प्रति समझाते रहते. अपने भीतर खुद से लड़ने का विश्वास जगाते रहते. इसी सबके बीच वह दिन भी आया जबकि हम कानपुर में निवास कर रहे सभी परिजनों की आँखों में आँसू देकर उरई को चल दिए. अब तमाम जिम्मेवारियाँ, तमाम दायित्व हमारा इंतजार कर रहे थे. कानूनी, पारिवारिक, सामाजिक कार्यों की लम्बी सूची भी हमारे कन्धों पर अपना बोझ लादने को तैयार हो रही थी.

.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

24 - सफलता से पूरा हुआ मिशन स्टैंड अप

दिन-रात अपनी गति से ही चल रहे थे. किसी-किसी दिन लगता कि जल्द से सबकुछ सही हो और वापस उरई पहुंचें, चलना-फिरना शुरू करें, अपने काम पर फिर जुट जाएँ. यदि सोचने भर से ही बात बननी होती तो फिर जाने कब के सही हो जाते. घाव सही हो रहे थे पर अपनी ही गति से. बाँयी जाँघ में भी स्किन ग्राफ्टिंग ने अपनी पकड़ बना ली थी. दाहिने पंजे में घाव अब बहुत कम रह गया था. अंततः वह दिन भी आ गया जबकि हम बहुत दिनों बाद अपने पैर (पैरों तो नहीं कहेंगे क्योंकि खड़े तो एक पैर पर ही हुए थे) पर खड़े हुए.


तीन महीने से अधिक समय होने को आया था. अपने आँसू छिपा सामने वाले के आँसू पोंछते हुए, एक-दूसरे को दिलासा देते, हँसते-हँसाते इसी इंतजार में रहते थे कि कब वह दिन आये जबकि कानपुर से उरई जाने को हरी झंडी मिले. घावों की स्थिति देखने के बाद ये तय हो गया कि अब नर्सिंग होम की, ऑपरेशन की, स्किन ग्राफ्टिंग आदि की आवश्यकता नहीं है. जितनी ड्रेसिंग होती है वह उरई में भी संभव थी. इसके अलावा उस समय प्रत्येक शनिवार-रविवार रवि का उरई आना होता था. ऐसे में उसके द्वारा सुधार की स्थिति पर नजर रखी जा सकती थी.

दोपहर में नर्सिंग होम जाना हुआ. उस दिन दाहिने पंजे से फ्रेम भी हटना था, एड़ी में पड़ी लोहे की कील भी निकाली जानी थी, हमें अपने पैर पर खड़ा भी किया जाना था. हम सोच रहे थे कि हमें बेहोश करके या उस जगह को सुन्न करके कील को निकाला जायेगा. ऑपरेशन टेबल पर लेटे –लेटे रवि से बातें भी हो रहीं थीं, उसका अपना काम चल रहा था. वह आगे के बारे में बताता, समझाता जा रहा था कि पैर के साथ किस तरह का व्यायाम करना है, कैसे बाँयी जाँघ के बचे घाव की ड्रेसिंग करवानी है, उसे बचाए रखना है. उस समय वह दाहिने पंजे की ही सफाई करने में लगा था. बात करते-करते वह कुछ सेकेण्ड को शांत हुआ और एड़ी में पड़ी कील निकाल कर बगल की ट्रे में गिरा दी. हमें जबरदस्त आश्चर्य हुआ कि बिना किसी दर्द के, बिना किसी तकलीफ के वह निकल आई. कील को छोटे भाई ने उठाकर दिखाया तो एकबारगी विश्वास न हुआ कि वह हमारे पैर में इतने दिनों से लगी हुई थी.


दाहिना पंजा बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुका था. जोड़ से टूट कर लटक चुका था. हड्डियाँ छोटे-छोटे हिस्सों में बिखरी हुईं थीं. ऊपर के हिस्से पर न माँस का नामोनिशान बचा था, न खाल का, न किसी तरह की नसों का. अब भी खाल के नाम पर वही कुछ था जो स्किन ग्राफ्टिंग के रूप में चिपकाया गया था. हड्डियाँ उतनी ही मजबूत थीं जितनी कि फ्रेम के सहारे से हुई होंगीं. पंजे को गति देने वाली नसों के न होने के कारण उसके लटकने का भी अंदेशा बना हुआ था. ऐसी स्थिति में पंजे को, पैर को मजबूती देने के लिए रवि ने एक जूता बनवाया था. इसमें एड़ी के पास से एक क्लैम्प लगी हुई थी जो घुटने के नीचे तक आती थी. जूते के आगे के हिस्से में (उँगलियों के पास वाले भाग में) एक स्प्रिंग लगी हुई थी जो घुटने के नीचे तक आये क्लैम्प से जुड़ी हुई थी. यही स्प्रिंग पंजे को ऊपर की तरफ खींचे रहती थी. इस जूते को लम्बे समय तक पहनना था, जिससे पंजे के लटकने की आशंका कम हो, उसमें सुधार होने की सम्भावना बढ़ जाए.

कील निकाले जाने, ड्रेसिंग होने, पट्टी बांधे जाने के बाद का अगला चरण हमको खड़ा किये जाने का था. मिशन स्टैंडअप के लिए उलटी गिनती शुरू हो चुकी थी. हमारा बैठना हुआ, दाहिने पंजे को उसी बनवाए गए जूते में डाला और कस-कसा कर खड़े होने को तैयार हो गए. यह सोचना ही अपने आपमें बहुत अच्छा लग रहा था कि अब हम अपने पैर पर खड़े हो सकेंगे. इसके साथ ही पंजे की स्थिति, शरीर का भार सहने की उसकी स्थिति, तीन महीने से अधिक की अवधि के बाद हमें खड़े होने पर हमारी अपनी शारीरिक स्थिति आदि को लेकर एक संशय भी बना हुआ था.

बहरहाल, रवि के और छोटे भाई के कन्धों का सहारा लेकर हम खड़े हुए. महीनों बाद धरती पर हमारा पैर पड़ा था. महीनों बाद हम स्ट्रैचर पर लेटने के बजाय उसके बगल में खड़े हुए थे. कुछ देर सहारा देने के बाद रवि ने खुद को अलग करते हुए छोटे भाई से भी अपना कन्धा हटाकर हाथ से पकड़ने को कहा. अब हम छोटे भाई का हाथ पकड़े अपना संतुलन बनाने में सफल रहे. लगभग तीन-चार मिनट तक बिना किसी परेशानी के खड़े होने के दौरान तीन जोड़ी आँखें एक-दूसरे से अपनी नमी छिपाते हुए नम हुई जा रही थीं. हमें न चक्कर आये, न मिचली जैसी स्थिति, न पंजे के अत्यधिक दर्द जैसी महसूस हुआ, न गिरने जैसा एहसास हुआ. कुल मिलाकर महीनों बाद हमारे खड़े होने का मिशन सफल रहा.  

नर्सिंग होम में रवि ने अपने सामने कई-कई बार हमें इस टेस्टिंग से गुजारा और हम हर बार सफलतापूर्वक उसके टेस्ट पास करते रहे. एक आशंका अपने पैर की स्थिति के बाद खुद के फिर से खड़े होने को लेकर थी वह दूर हुई. अपने विश्वास के खजाने में खुद के फिर से खड़े हो सकने का विश्वास जोड़ कर हम घर लौट आये.

.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

23 - ख्वाहिश है उसकी छवि नजरों में छिपा लेने की

कुछ काम न होने के बाद भी एक दिनचर्या बनी हुई थी. इसे बनाये रखना भी आवश्यक था. खुद की सेहत के लिए साथ ही परिवार की सेहत के लिए. डेढ़-दो महीने बाद स्थिति में इतना सुधार हो गया था कि कुछ देर सहारा लेकर बैठ लेते थे. लेटने की आदत कभी न रही तो लेटे-लेटे उलझन बहुत होती थी. अब जब बैठने की स्थिति बन गई तो कुछ दिन बाद इसमें भी ऊबन होने लगी. इसी ऊबन से बचने के लिए कोशिश करते कुछ पढ़ने की, कुछ लिखने की.


यात्रा करते समय एक आदत अभी भी बनी हुई है, किताबें साथ लेकर चलने की. स्टेशन पर किताबें खरीदने की, यात्रा में उनको पढ़ने की. उस दिन भी हम अपने साथ एक उपन्यास लेकर घर से निकले थे. ट्रेन में बैठना ही नहीं हो सका था सो उस उपन्यास को खोल कर देख भी नहीं पाए थे. ऐसे में स्वास्थ्य लाभ लेते समय उसी उपन्यास को पढ़ने का मन बनाया. उपन्यास पढ़ना शुरू किया तो कुछ देर में ही सिर चकराने लगा. ऐसा कई बार हुआ.

लिखने-पढ़ने के दौरान कुछ मिनट बाद ही सिर चकराने लगता था. इस सिर चकराने को पहले दुर्घटना की चोट से जोड़कर देखा, समझा. इसी में एक दिन पढ़ने का काम बिना चश्मे के किया तो सिर चकराने वाली स्थिति लगभग न के बराबर रही. असल में उन दिनों हम पढ़ते समय चश्मा लगाते थे. आँखों के लाल हो जाने की समस्या के चलते हमें डॉक्टर ने पढ़ते समय, टीवी देखते समय इसका परामर्श दिया था. चूँकि उस दौर में हमारे पास कम्प्यूटर भी नहीं था और मोबाइल भी स्मार्ट न हो सका था, टीवी देखने का शौक कभी न रहा सो पढ़ते समय चश्मा लगा लिया करते थे. अब जबकि बिना चश्मे के पढ़ने में कोई समस्या नहीं और चश्मा लगाकर पढ़ने पर सिर चकराने जैसी स्थिति ने असमंजस में डाल दिया. इस दुविधा का इलाज तब हुआ जबकि हम उरई आ गए. उरई आने पर नेत्र चिकित्सक को दिखाने पर परिणाम चौंकाने वाले मिले. अभी तक हमें जिस चश्मे को लगाने की सलाह डॉक्टर से मिली थी वह +0.5 पॉवर का और 900 एक्सिस का था. उरई में जाँच करवाने पर यह -0.5 पॉवर का और 1800 एक्सिस का हो गया. डॉक्टर को निवर्तमान चश्मे से परिचित करवाया तो वे भी चौंक उठे. उन्हें भी समझ न आया आँखों में आये इस परिवर्तन का.


फिलहाल, इस बारे में आगे फिर कभी, उरई पहुँचने पर. अभी तो हम आपको कानपुर ही लिए चलते हैं. कानपुर में आराम से थोड़ा-थोड़ा करके पढ़ते रहे. मोबाइल से दोस्तों से बात होती रहती थी. ऐसे लोगों से जिनसे बात संभव नहीं थी, उनके साथ पत्राचार चलता रहता. इसी से सम्बंधित एक रोचक घटना हुई. हमारे एक अभिन्न मित्र का उसी समय विवाह हुआ था. विवाह के बाद हमारा उसके पास घूमने जाने का इरादा था मगर इस दुर्घटना के कारण प्लान मटियामेट हो गया. दूरी होने के कारण उन लोगों से फोन से नियमित रूप से बात होती रहती थी. उसी बातचीत में एक दिन भाभी ने हमसे कहा कि हमें पता चला है कि आप कविताएँ भी लिखते हैं. एक कविता हमारे लिए भी लिख कर भेज दीजिए.

अब पता नहीं कि उन्होंने इसे सीरियसली कहा या मजाक में, ये सोचकर हम उनकी बात को टालते रहे. उनके दो-तीन बार कहने-टोकने के बाद एक दिन हमने उनके लिए ग़ज़ल रच ही दी. लिखने की पीड़ा के बीच उपजी वे पंक्तियाँ कुछ इस तरह की रहीं-

हूर के नूर के नज़ारे को सारे नज़ारे चले,
दिन में फूल बने, रात को चाँद-सितारे बन चले.

उसकी आँखों की हर इक अदा है कातिल,
उठे तो सुबह बने, झुके तो शाम नशीली चले.

चलना निराला, चल के रुकने की अदा निराली,
बलखाती नदी की हर लहर चलने-रुकने पर मचले.

ख्वाहिश है उसकी छवि नजरों में छिपा लेने की,
फिर सोचता हूँ कहीं दूर किसी का दिल न जले.

बातचीत के दौरान पता चला कि वे इसे पढ़-पढ़कर शरमाती रहीं. चूँकि भाभी से हमारी बातचीत उनकी शादी तय होने के बाद से होती रहती थी, शादी के बाद कुछ दिन उनके साथ बीते थे, इस कारण आपस में हँसी-मजाक होता रहता था. उसी में हमने उनके लिए बहुत संजीदा टाइप की रचना न लिखकर इसे लिखना पसंद किया.

दुर्घटना के बाद की ये पहली रचना है जो हमने कानपुर में ही लिखी गई. अपनी चोटिल अवस्था में लिखी गई. उँगलियों के दर्द के बीच लिखी गई. एक-एक पंक्ति में कई-कई बार रुक-रुक कर लिखी गई. अपने मूल रूप में यह रचना आज भी हमारे पास सुरक्षित है. इस कारण नहीं कि यह दुर्घटना के बाद की पहली रचना है बल्कि इसलिए कि यह हमारे संबंधों, रिश्तों की विश्वसनीयता का आधार दर्शाती है.

.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

22 - सुलझ जाएँगी उलझनें भी एक-एक करके

तमाम सारी दिक्कतें समय के साथ कम हो रही थीं. बाँयी जाँघ के ऊपर बनी पॉकेट में भी सुधार हो गया था. इस कारण से वहाँ लगाई गईं कई नलियाँ निकाल दी गईं थीं. बाँयी जाँघ को हल्का फुल्का हिलाना हो जाता था. दर्द में कमी नहीं आई थी, हाँ कुछ हरकत होने से उसके जानदार होने का आभास ख़ुशी देता था. घावों में बहुत सी जगहों पर स्किन ग्राफिंग सफलता से हो गई थी.


लेटे-लेटे लगभग डेढ़-दो महीने होने को आये थे. हॉस्पिटल में शुरूआती दिनों में एक-दो बार बिठा कर दाहिने पैर को पलंग से नीचे लटका कर देखा गया था. इसमें दो-चार सेकेण्ड बाद ही खून आने के बाद ऐसा करवाया जाना बंद करवा दिया गया था. पनकी में आने के बाद पंजे में बंधे जाल के कारण तथा खून निकलने के डर से पैर को लटका कर कभी न बैठे. दिन में कई बार बैठना होता तो पैर को सीधे ही किये रहते थे. दाहिने पंजे की स्थिति देखने के बाद और एक रात जाल की स्थिति को देखने के बाद तो और हिम्मत न कर सके पैर लटकाने की.


नियमित देखभाल, ड्रेसिंग आदि के कारण चक्कर लगाने में एक दिन रवि ने पैर को मोड़ने को कहा. पैर जैसे मुड़ने से इंकार कर रहा था. रवि ने भी कोशिश की तो लगभग दस-बीस डिग्री के कोण पर मुड़ने से ज्यादा नहीं मुड़ा. वह तो जैसे तोड़ने को आतुर था. हमारे बुरी तरह चीखने पर उसके हाथ रुके. पैर को नियमित रूप से घुटने से मोड़ने की बात पर जोर दिया गया. बताया गया कि इसके बिना घुटना जाम हो जायेगा तो चलना कठिन हो जायेगा, असंभव भी. चूँकि हमारे लिए चलना प्राथमिकता में था, इसलिए इस काम को भी वरीयता दी गई.

अपने आप पैर मोड़ना संभव ही नहीं होता था. जाल के कारण, पंजे के टूटे होने के कारण उसका हिलाना, उठाना आसान न होता था. छोटा भाई पैर को सहारा देकर मोड़ने का काम करता, सिकाई की जाती, कई-कई बार मोड़ा जाता मगर ऐसा लगता जैसे घुटने जाम हो गए हों. कई-कई बार के अभ्यास के बाद घुटने ने हार मानी और कुछ-कुछ मुड़ने लगा.

एक दिन किसी सर्जरी के लिए नर्सिंग होम जाना हुआ. वहाँ पैर मुड़ने की स्थिति देखने पर रवि असंतुष्ट दिखा. उसने स्ट्रेचर पर बैठने को कहा. बैठते ही हम कुछ समझ पाते, उसने पैर को पूरी ताकत लगाकर अन्दर तक मोड़ दिया. हमारी चीख निकल गई.

देखो, मुड़ता है कि नहीं. तुम लोग ताकत नहीं लगाते होगे. उसने छोटे भाई को दिखाते हुए कहा.

छोड़ दो अब, नहीं तो टूट जाएगा. हमने उससे अपना मुड़ा पैर छोड़ने को कहा.

इस पर उसने पैर तो न छोड़ा और बोला, टूट जाने दो. हम हैं यहाँ, प्लास्टर बाँध देंगे. इसके बाद उसने कई-कई बार हमारा पूरा पैर मोड़कर दिखाया.   

घर आने के बाद ये विश्वास हो गया कि पैर मुड़ जायेगा. ये डर भी समाप्त हो गया कि घुटना जाम हो जायेगा अथवा मोड़ने की ज्यादा कोशिश में टूट जायेगा. उसके बाद से तो लगातार यह अभ्यास जारी रहा. अब भी इसे समय मिलने पर अथवा घुटने में दर्द होने पर कर लेते हैं क्योंकि चलना बहुत होता नहीं है तो डर लगता है कि कहीं घुटना जाम न हो जाये. कहने को घुटना पूरी तरह से मुड़ने लगा है मगर अभी भी एड़ी को अपनी ही जाँघ से मिला पाना सहज नहीं होता, सरल नहीं होता.

.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

21 - अपने साथ हों तो सारे कष्ट छोटे लगते हैं

बहुत राहत मिली थी दिल को जबकि मई माह बिना किसी समस्या के निकल गया था. लगातार दो महीनों में परिवार ने दो बड़े संकट सहे तो एक हलकी सी आहट भी किसी आशंका की आहट समझ आती. हम सभी लोग परिवार पर आये इस संकट से उबरने की कोशिश में एक-दूसरे की हिम्मत बनते. जो हो चुका था, उसे बदला नहीं जा सकता था बस यही सोच आगे बढ़ने की कोशिश की जाती. हँसते-मुस्कुराते समय बिताया जा रहा था.


पनकी में लाइट का जाना उस समय न के बराबर था. यदि किसी दिन लाइट का जाना हुआ तो इतनी देर नहीं कि परेशान हुआ जाये. हमारी शारीरिक स्थिति को देखते हुए हवा की आवश्यकता अधिक थी. एक शाम लाइट नहीं आ रही थी. बड़े मामा जी अपनी नियमित टहलने, मिलने की चर्या में आये और खबर दी कि उस क्षेत्र में कोई बड़ी समस्या आ गई है, संभव है कि रात भर लाइट न आये. उन्हीं की बताई दुकान से जेनरेटर की व्यवस्था करवा ली गई. रात भर उसी के सहारे काटी गई. दिन में भी पता किया गया तो मालूम चला कि देर रात बिजली आने की संभावना है. इस चक्कर में जेनरेटर उस रात भी रोक लिया गया.


इस तरफ मामा-भांजे के बीच खूब मजाक चलता है, सो हम सभी मामा लोगों साथ खूब मौज लिया करते. उस दिन लगा जैसे मामा के घर के आसपास का वातावरण भी मौज लेने के मूड में आ गया था. हम सबको हँसता-मुस्कुराता देख उसने भी हँसने-मुस्कुराने की सोच ली. इसका परिणाम ये हुआ कि दोपहर बाद खूब आँधी चली और उसके बाद जो पानी बरसना शुरू हुआ तो लगा जैसे कि सदियों से बरसने को तरस रहे थे. ऐसे में बिजली आने का सवाल ही नहीं उठता था.


रात को बरसते में ही छाता लगाये मामा जी प्रकट हुए. उनका दिन भर में एक बार हमारे पास आना जरूर होता था. उसमें भी ज्यादातर रात को ही आना होता था लेकिन इस मूसलाधार बारिश में उनका आना चौंकाने वाला था. आते ही उन्होने जेनरेटर को अन्दर रखने की सलाह दी. जेनरेटर घर के दरवाजे पर बाहर गली में ही रखा हुआ था. मामा जी ने ही बताया कि यदि पानी बरसने की यही रफ़्तार घंटे-दो घंटे और रही तो गलियाँ उफनाने लगेंगी, किसी नदी की तरह. मामा जी कुछ देर बैठे. हाहा-हीही हुई आपस में, इसी बहाने चाय पी गई और मामा के जाने के बाद ऑपरेशन जेनरेटर शुरू किया गया.

छोटे भाइयों और हमारे साले ने भीगते हुए मेहनत करके जेनरेटर को घर के अन्दर प्रवेश करवाया. कुछ देर को छाया अँधेरा फिर उजाले में बदल गया. पानी रात भर अपनी रफ़्तार से बरसता रहा. हम तो अपने आपसे कहीं आने-जाने की स्थिति में थे नहीं, कमरे में अपने पलंग पर अधलेटी मुद्रा में मौसम का आनंद ले रहे थे. कमरे के दरवाजे, खिड़की से पानी का रौद्र रूप अब उस तरह का नहीं दिख रहा था, जैसा कि रात में था. इन्हीं लोगों ने बताया कि बाहर गली तो गायब ही है, घर पर चढ़ने की सीढ़ियाँ भी गायब हैं बस नदी सी बह रही है.

उस दिन शायद रविवार था. पानी भी अब हल्का हो गया था. कुछ देर बाद मामा जी अपनी पेंट घुटनों तक चढ़ाए मुस्कुराते हुए आये. आते ही उन्होंने मजाकिया अंदाज में छेड़ा कि देखा बचा लिया जेनरेटर न तो दुकान वाला आकर वसूल लेता. हम लोगों ने भी मामा को परेशान करना शुरू कर दिया. कोई कहे मामा जी ने बहुत दिनों से नहाया नहीं था, इसलिए पानी बरसाया है. कोई कहे मामा जी को तैरने का मन है, अब खूब तैरेंगे. कोई कहे कि मामा जी अब इसी नदी में तैर कर बैंक चले जाया करेंगे. इसी मौज-मस्ती में दिन गुजरता हुआ सूखी शाम तक आ पहुँचा और अपने साथ लाइट भी ले आया.

इसी तरह कभी कुछ समस्याओं, परेशानियों और अपनों के हँसी-मजाक के साथ उन लगभग तीन महीनों को निकाला गया. सच है, जब अपने साथ हों तो सारे कष्ट छोटे लगते हैं.

.

ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

20 - कभी सुनहली धूप तो कभी शाम धुँधली सी

मई की गर्मी अपने रंग में थी. किसी-किसी दिन बहुत ही उलझन होती. न बैठे चैन आता और न लेटे. कभी बैठते, कभी लेटते. कई बार अपनी उलझन बताते नहीं थे क्योंकि सभी लोग परेशान होने लगते थे. किसी भी तरह की उलझन होने के बाद भी दिन तो आसानी से गुजर जाता मगर रात को दिक्कत हो जाती. न चाहते हुए भी इस डर से आँखें बंद रखनी पड़तीं कि घरवालों को भनक न लग जाये कि हम जाग रहे हैं नहीं तो सबकी नींद गायब. उनको लगता कि हम अपनी शारीरिक अवस्था को लेकर चिंताग्रस्त तो नहीं. उनको ये लगता कि हमारे नींद न आने का या फिर हमारे परेशान होने का कारण हमारी वर्तमान स्थिति तो नहीं.


उस रात सभी लोग अपने-अपने काम निपटाकर लेट गए. हम भी सोने की कोशिश में थे मगर अजीब सी उलझन हो रही थी. बिना किसी सहारे के करवट ले नहीं पाते थे सो उसी एक अवस्था में लेटे रहने से कई बार उलझन होने लगती थी. एक बार खुद से हिम्मत करके करवट लेने की कोशिश की फिर डर गए कि कहीं दाहिना पंजा न हिल जाए. उसका हिलना भयंकर दर्द देता था. इसके साथ ही हिलना-डुलना बाँयी जाँघ की चोट के लिए हानिकारक हो सकता था. ऐसी कोई भी स्थिति बनी तो रात में उसका निदान मुश्किल हो जायेगा. यह विचार आते ही शांत लेटे रहे.

उलझन मानसिक से ज्यादा शारीरिक समझ आई. दाहिने पैर में कुछ अजीब सा दर्द महसूस होने लगा. ऐसा दर्द इससे पहले किसी दिन और हुआ हो, ऐसा याद नहीं आ रहा था. ड्रेसिंग उसी दिन हुई थी तो लगा उसी कारण से दर्द, जलन की अनुभूति हो रही होगी. एक-दो बार ऐसा हुआ कि क्रैप बैंडेज कुछ टाइट बाँध दी गई तो भी उलझन महसूस होती थी. पहले लगा कि आज ड्रेसिंग के बाद शायद क्रैप बैंडेज टाइट बाँध दी गई हो मगर जिस तरह की जलन, जिस तरह का एहसास पंजे में हो रहा था वह कुछ नया और अजीब सा लगा. पंजे की चोट पर प्रभाव न पड़े, इसे सोचकर हलके से पैर को हिलाया भी मगर कोई आराम समझ नहीं आया. लगभग एक-डेढ़ घंटे तक इस स्थिति से जूझने के बाद जब धैर्य जवाब दे गया तो हमने आवाज़ लगाई.


सभी सदस्य इकट्ठे हो गए. हमारे आवाज़ देने का अर्थ ही था कि हमें कोई बड़ी समस्या है. सबके चेहरे पर एक चिंता सी दिखाई दी. हमने पंजे की तरफ इशारा करते हुए वहाँ जलन, दर्द जैसे अनुभव के बारे में बताया. हमें सहारा देकर बिठाया गया और छोटे भाई ने पंजे की तरफ ध्यान दिया. छोटे भाई सहित सबकी एक हलकी सी चीख निकल गई. दाहिने पंजे पर तमाम सारी लाल चीटियों ने झुण्ड बनाकर कब्ज़ा कर रखा था. किसी और जगह चींटियाँ लगी होतीं तो उनको हाथ के सहारे या फिर किसी कपड़े की मदद से झाड दिया जाता लेकिन यहाँ तो चोट के कारण ऐसा कर भी नहीं सकते थे. एक तरफ से फूँकते हुए हवा के द्वारा चींटियों को उड़ाने की कोशिश की गई.

क्रैप बैंडेज को ऊपर से हलके से हटाते हुए देखा तो चींटियों ने उँगलियों तक अपनी पहुँच बना रखी थी. उनका काटना, रेंगना ही पंजे में अजीब सा एहसास जगा रहा था. रवि को फोन करके इस बारे में बताया गया. उसके कहे अनुसार पैर के दोनों तरफ तकियाँ लगाकर हिलने-डुलने से रोका गया. इसके बाद हलके हाथों से क्रैप बैंडेज को खोला गया. उसे पूरा हटाने के बाद पट्टियों को हटाने का उपक्रम किया जाने लगा. चूँकि अनेक पट्टियाँ घावों पर बंधीं होती थीं ऐसे में तीन-चार पट्टियों के उतार दिए जाने के बाद उँगलियाँ चींटी-मुक्त समझ आने लगीं. इसके बाद भी बहुत गौर से एक-एक करके सबने जाँच-परीक्षण किया और अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की. अब चींटियाँ बिलकुल भी नहीं थीं और कुछ समय पहले हो रही उलझन भी कुछ कम समझ आई.

यह समझ आ गया था कि पट्टियों में खून के लग जाने के कारण चींटियाँ उसकी गंध के चलते वहाँ अपना भोजन तलाशने चली आईं होंगीं. इसके बाद कमरे की सफाई, हमारी देखभाल के बीच एक प्रक्रिया बीच-बीच में हमारे घावों को देखने की भी अपनाई जाने लगी. इस सजगता के कारण उस रात का यह अनुभव फिर किसी दिन हमारे साथ न गुजरा.

.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

19 - ज़िन्दगी को ज़िन्दगी के करीब लाती है ज़िन्दगी

उस रात बहुत असमंजस रही, उलझन भी बहुत रही. आँखों के सामने दाहिने पैर का पंजा आ जाता और उसके साथ आती बहुत सारी शंकाएँ. सारी रात उलझन में निकल गई. एक विशेष गुण बचपन से रहा है कि कोई भी समस्या, कोई परेशानी हमारे ऊपर बहुत देर हावी नहीं रह पाती. इस दुर्घटना के पहले भी कई बार ऐसे अवसर आये जबकि किसी न किसी समस्या का सामना करना पड़ा, किसी न किसी तरह की परेशानी में पड़ गए मगर इसका असर बहुत देर नहीं रहा. इस बारे में हमारा मानना है कि परेशान उस बात के लिए होना चाहिए जिसका समाधान हमारे पास हो. परेशान उसके लिए नहीं होना चाहिए जिसका समाधान हमारे पास न हो. आखिर जब किसी समस्या का समाधान हमारे पास है तो उसके लिए काहे परेशान होना और जिसका समाधान हमारे पास नहीं उसके लिए परेशान होकर हम क्या कर लेंगे. ऐसा करके हम न केवल खुद को तनाव में रखेंगे बल्कि अपने साथ वालों को भी तनाव में रखेंगे.



कुछ ऐसी ही सोच के कारण रात में किसी को अपनी परेशानी नहीं बताई. अपनी दिमागी उलझन को नहीं बताया. हमें ये भी मालूम था कि ये सब बातें भी कुछ देर में समाप्त हो जाएँगी और ऐसा हुआ भी. सुबह का सूरज हमेशा की तरह उत्साहित करने के लिए ही निकला. सुबह जागने के बाद काम उसी तरह से बंधे-बँधाए तरीके से चलने लगे. कोई काम तो था नहीं और दिनचर्या भी कुछ विशेष नहीं थी. दो-चार बार दवाई खाना, एक-दो इंजेक्शन, दाहिने पैर की खाल निकाली गई कुछ जगहों पर नारियल तेल की मालिश, गप्पें मारना, खाना, सोना.

हम यह समझ रहे थे कि उस पंजे का या फिर अपनी शारीरिक स्थिति का कोई उपाय हमारे पास नहीं है, ऐसे में उसके लिए परेशान होने का कोई अर्थ भी नहीं था. जो भी होगा अथवा जैसी स्थिति बनेगी वह भविष्य के गर्भ में है. इसलिए ऐसी किसी स्थिति के लिए उस समय परेशान होने का कोई कारण न था. उन दिनों में परेशानियाँ अवश्य आती रहीं, समस्याएँ घेरती रहीं मगर उनके कारण हम बजाय टूटने के और मजबूत होते रहे.

हमारे बाबा जी कहा करते थे कि रोज रात को सोने के पहले आँखें बंद करके दिन भर की घटनाओं, दिन भर के कामों पर विचार किया करो. देखा करो कि दिन भर में क्या सही किया, क्या गलत किया. जो गलत किया हो उसके लिए खुद से वादा करो कि आगे से ऐसा काम नहीं करेंगे और जो काम अच्छे किये हों उनसे सीख लेकर आत्मविश्वास बढ़ाओ, आत्मबल बढ़ाओ. ये सीख बाबा जी ने बचपन में दी थी जो हमारे दिल-दिमाग में बस गई थी. तब से आज तक हम रोज रात को सोने के पहले ऐसा अवश्य ही करते हैं. यह निश्चित ही हमें अपने लिए फायदेमंद समझ आया है.

कानपुर में रहने के दौरान कोई काम तो था नहीं कि उसमें अच्छा या बुरा हो जायेगा सो रात को सोने के पहले दिन भर के बारे में सोचने पर सिर्फ अच्छा ही अच्छा दिखाई देता. इस अच्छे-अच्छे ने सकारात्मक ऊर्जा हमारे अन्दर बनाये रखी. इसके साथ-साथ फुर्सत के समय में लेटे-लेटे मेडिटेशन भी किया करते. इसने भी आत्मविश्वास और आत्मबल को खूब बढ़ाया. इसी आत्मविश्वास का सुखद परिणाम रहा कि उसके बाद की बहुत सारी छोटी-मोटी समस्याएँ आराम से निकल गईं या कहें कि परेशानियाँ छोटी ही समझ आईं.

.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

18 - खुद की चुनौती और खुद से ही लड़ना

ऐसे ही अनेक दिनों में से किसी एक दिन ड्रेसिंग के लिए ऑपरेशन थियेटर की टेबल पर आराम फ़रमाया जा रहा था. अब तो बेहोश भी नहीं किया जाता था, आँखों को पट्टी से ढांकना बंद कर दिया गया था, रवि से और बाकी स्टाफ से भी बातचीत, हँसी-मजाक होता रहता था. ऐसे में अपनी उस अवस्था को आराम फरमाना ही कह सकते हैं.


दाहिने पैर की पट्टियाँ खोल दी गईं और बाँयी जाँघ की पट्टी खोले जाने की तैयारी हो रही थी. इस बीच कुछ गरमी जैसा आभास होने के बारे में नर्सिंग होम के स्टाफ से कहा. पता चला वहाँ लगे एसी में से एक ने काम करना बंद कर दिया था. बगल वाले बड़े ऑपरेशन थियेटर में शिफ्ट करने की तैयारी होने लगी.

तब तक दाहिने पंजे की पट्टियाँ खुल चुकी थीं और बाँयी जाँघ की पट्टियाँ खोली जानी थीं. बगल वाले ओटी की तैयारी के कारण पट्टियों खोलना बंद कर दिया गया. ड्रेसिंग, साफ़-सफाई आदि से सम्बंधित सामानों को ले जाया जाने लगा. इस बीच हमारे आसपास कोई न था. मन में दाहिने पैर को देखने की इच्छा अचानक से हो आई. जाल के सहारे से पंजे को बाँधा गया है, कैसा होगा पंजा ये उत्कंठा जगी. उससे पहले पंजे को न तो देखा था और न ही कभी इच्छा हुई थी. उस दिन पता नहीं क्यों ऐसा मन कर गया. पंजे की असल स्थिति के बारे में हमें किसी ने बताया भी नहीं था और खुद हमें भी इसकी स्थिति का आभास नहीं था.


आँखों को पट्टी से ढांकना बंद कर दिया गया था इस कारण देखना और भी आसान था. अपनी गरदन को जरा सा ऊपर उठाकर पंजे की तरफ देखा तो धक्क से रह गए. एक पल को विश्वास ही नहीं हुआ कि ये हमारा ही पंजा है. अभी तक हम सिर्फ बाँयी जाँघ के कटे होने की और दाहिने पंजे के चोटिल होने भर की कल्पना किये हुए थे मगर वास्तविकता कुछ और ही थी. अँगूठा और उसके बगल की उँगली गायब थी. पंजे की ऊपरी खाल और माँस का नामोनिशान नहीं था. कहीं-कहीं लाल और काला रंग ही दिख रहा था. लाल रंग खून से सनी हड्डियों का और काला रंग उस जगह का जहाँ पर ग्राफ्टिंग के द्वारा खाल लगाई गई थी. पंजा किसी लकड़ी के जले-जलाए टुकड़े जैसा लग रहा था. हमारा ही पंजा हमें किसी कोयले के टुकड़े जैसा लगा. उसको देख खूब तेज चिल्लाने का मन हुआ. लगा कि एक अनजाना सा भय अन्दर ही अन्दर जन्मने लगा है. आशंका होने लगी अपने चलने पर. उसका आकार, स्थिति, रूप-स्वरूप देखकर चलने की बात तो दूर, अपने खड़े होने पर ही संशय होने लगा.

किसी तरह अपने को नियंत्रित कर ड्रेसिंग करवा कर वापस आ गए. घर पर सबके बीच पहुँचने पर खुद को बहुत कमजोर सा महसूस किया. परिजनों के हाथों पर अधलेटे स्थिति में एम्बुलेंस से पलंग तक की दूरी अपना भविष्य नजर आई. कहीं यही तो हमारा भविष्य नहीं? क्या अब इन्हीं हाथों के सहारे ही सारे क्रियाकलाप पूरे करने होंगे? क्या अब पूरी ज़िन्दगी ऐसे ही लेटे-बैठे बितानी होगी? अपनी मजबूती एक पल में कमजोर होते दिखी. अपने पंजे की असलियत देख लेने के बाद आत्मविश्वास को, आत्मबल को उसी उच्च स्तर पर ले जाना अब हमारे लिए चुनौती बन गई थी. उस चुनौती को उसी क्षण स्वीकार करते हुए मन ही मन निश्चय किया कि यदि दाहिना पंजा हमें खड़ा करने में, चलने में सहायक न हुआ तो उसे कटवा कर उसकी जगह नकली पैर ही लगवा लेंगे. सोच लिया कि अब कुछ भी हो जाये खड़े अपने पैरों पर ही होना है. चलना अपने पैरों से ही है.

समय के साथ स्वास्थ्य लाभ होता रहा. पंजे की, जाँघ की स्थिति में सुधार होता रहा. यद्यपि पंजा एकाधिक अवसरों पर साथ देने से इनकार कर देता है, एकाधिक अवसरों पर कष्ट के चरम तक ले जाता है तथापि उसने हमारे खड़े होने में, चलने में हमारा आज तक साथ देना स्वीकार किया. अपनी जगह कृत्रिम पैर को नहीं आने दिया.

.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

17 - ये राह नहीं आसां बस इतना समझ लीजे

मामा के घर से हफ्ते में दो-तीन दिन ड्रेसिंग के लिए पास के नर्सिंग होम में जाना पड़ता था. उस नर्सिंग होम के डॉक्टर और अन्य स्टाफ को हमारे बारे में बताया जा चुका था. फोन करने पर वहाँ से एम्बुलेंस आकर हमें ले जाती और ड्रेसिंग के बाद वापस छोड़ जाती. अब बाँयी जाँघ को थोड़ा बहुत सहारा हम दे लेते थे. इसी तरह दाहिना पंजे को कुछ हद तक उठाया जाना भी संभव होने लगा था. इसी कारण से एम्बुलेंस में आने जाने के दौरान उठाने वालों को हमारी तरफ से भी कुछ सहायता मिल जाती. इसी में कई बार दाहिने पंजे के जाल का हिल जाना, बाँयी जाँघ की चोट पर किसी का हाथ लग जाना अत्यंत पीड़ादायक हो जाता.


यहाँ आने के बाद कई बार बाँयी जाँघ और दाहिने पंजे की स्किन ग्राफ्टिंग की गई. याद नहीं कि स्किन ग्राफ्टिंग ट्रीटमेंट हॉस्पिटल में भी किया गया था या नहीं. स्पाइनल कार्ड में इंजेक्शन के द्वारा कमर के नीचे का हिस्सा पूरी तरह से असंवेदित किया जाता. उसके बाद वहाँ किसी भी तरह का एहसास हमें नहीं होता था. दाहिने पैर के उस हिस्से से, जहाँ चोट नहीं थी, स्किन को निकाल पर दाहिने पंजे के घाव पर, बाँयी जाँघ के घाव पर लगाया जाता. दाहिने पैर की सम्बंधित जगह की स्किन पर किसी तरल पदार्थ का लेप लगाया जाता और कुछ देर बाद उसे मेडिकल ब्लेड के सहारे से निकाल कर चिकित्सा पद्धति से घाव पर लगा कर पट्टी बाँध दी जाती. चूँकि इस बारे में एक तरह की अनिश्चितता बनी रहती कि घाव पर लगाई स्किन चिपकेगी या नहीं, इस कारण दाहिने पैर से थोड़े-थोड़े हिस्से की खाल को निकाल कर घावों पर लगाया जाता.


स्पाइनल कार्ड में लगने वाले इंजेक्शन के अलावा भी कुछ और इंजेक्शन लगाये जाते. इसका असर ये होता कि इस प्रक्रिया के बाद पाँच-छह घंटे हम पर अचेतावस्था हावी रहती. लगभग बेहोशी जैसी स्थिति बनी रहती. रात भर वहीं नर्सिंग होम में रुकना पड़ता. कमर के नीचे का हिस्सा सुन्न रहता था, किसी तरह की संवेदना का एहसास नहीं होता. ऐसी संज्ञाशून्य स्थिति में कई बार मूत्र-विसर्जन हो जाने के कारण, कई बार पसीने की अधिकता के चलते अथवा किसी अन्य शारीरिक स्थिति के कारण स्किन घावों पर चिपक न पाती. इसकी जानकारी भी दो-तीन दिन बाद होने वाली ड्रेसिंग के समय हो पाती. स्किन न चिपक पाने के कारण ग्राफ्टिंग ट्रीटमेंट का सारा प्रयास व्यर्थ हो जाता. कुछ दिन बाद यही प्रक्रिया फिर अपनाई जाती. चूँकि बाँयी जाँघ में घाव भी नीचे तरफ था इस कारण वहाँ हवा कम लगने से पसीने की नमी घाव तक जल्द पहुँच जाती. इसके अलावा कई बार उठने-बैठने के कारण उसका हिलना-डुलना भी होता, जिसके कारण भी स्किन को कई बार घाव पर लगने का पर्याप्त वातावरण मिल नहीं पाता था. इसके उलट दाहिने पंजे में हवा भी लगती रहती थी और उसके हिलाने-डुलाने में घाव की तरफ कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. इस कारण से बाँयी जाँघ की अपेक्षा दाहिने पंजे में स्किन जल्द स्वीकार्य हो रही थी.

घाव पर स्किन का लग जाना ख़ुशी देता कि अब घाव जल्द भरेगा और न लगने की स्थिति में उसी पीड़ादायक स्थिति से गुजरने का ख्याल एकबारगी परेशान कर जाता. परेशानी, कष्ट का अनुभव स्किन निकालने वाली प्रक्रिया से कम बल्कि कुछ दिन बाद वहाँ लगाई गई पट्टी को खींचे जाने से ज्यादा होता. जहाँ से खाल निकाली जाती वहाँ पर एक अलग तरह की पट्टी बाँध दी जाती जो उस जगह पर चिपक जाती थी. इसको एक निश्चित समय बाद निकालना होता था, यह काम भी अत्यंत कष्टकारक होता. पूरी पट्टी पर ऊपर से अलग-अलग हिस्सों में ब्लेड से कट लगा दिए जाते. इसके बाद उन हिस्सों को एक झटके से खींच कर निकाला जाता. ऐसा होने पर एकाधिक बार वहाँ से रक्त की बूँदें भी छलछला उठतीं. उस जगह पर नारियल तेल की मालिश से आराम मिलता था. अपनी उस पीड़ा पर वे सौन्दर्य-प्रेमियों याद आये, उनका कष्ट याद आया जिनका शरीर सुन्दरता के नाम पर वैक्सिंग की प्रयोगशाला बना रहता है.  

पूरे दाहिने पैर की खाल कई-कई बार निकाली गई. वर्षों तक उन जगहों पर नारियल का तेल लगाया जाता रहा. अभी भी पूरी तरह से आराम तो नहीं मिला है. अक्सर गर्मियों में उन जगहों पर खुजली होना, दानों का निकल आना सामान्य सी बात है, फिर भी शुरूआती दिनों की अपेक्षा बहुत राहत है.

.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

16 - जीते कभी समंदर से, कभी एक बूँद से हार गए

हॉस्पिटल में अंतिम रात ऑपरेशन थियेटर में जाना हुआ. गले के पास, शरीर की मेन लाइन में लगी नलियों को हटा दिया गया. ब्लड चढ़ने की प्रक्रिया बंद कर दी गई. अब बस वहाँ से निकल कर पनकी मामा के यहाँ शिफ्ट होने का इंतजार किया जा रहा था. शाम के लगभग चार-पाँच बजे करीब हमें डिस्चार्ज किया गया. खुला आसमान देखना, धूप देखना, हॉस्पिटल वाली सड़क पर लगे पेड़ों, दुकानों को देखना बहुत सुखद लग रहा था. उस शाम कानपुर का आसमान जितना चमकदार देखा, वैसा कभी नहीं देखा था. जितनी चमकती धूप उस दिन देखने को मिली थी वैसी तेज और चमकीली धूप फिर कभी देखने को नहीं मिली. पेड़ कुछ ज्यादा ही हरे समझ आ रहे थे. सड़क पर दौड़ते वाहन कुछ ज्यादा ही शोर करते लग रहे थे. एक महीने से अधिक हो गया था एक कमरे में बंद, सो अब खुला हुआ माहौल अच्छा सा मगर अचंभित करने जैसा लग रहा था.


मामा के घर पहुँचने के बाद सबसे बड़ी समस्या सामने आई हमारे खुद को उस वातावरण के साथ समन्वय बनाने की. हॉस्पिटल में अभी तक वातानुकूलित कमरे में रहना हो रहा था ऐसे में कुछ दिन परेशानी जैसा अनुभव होने के बारे में पहले से सचेत कर दिया गया था. शाम को नाना-नानी, मामा-मामी, सभी लोग बैठे रहे, हँसी-मजाक होता रहा तो इस तरफ ध्यान नहीं दिया मगर रात में दिक्कत महसूस हुई. उलझन सी समझ आने लगी. लगे जैसे साँस लेने में समस्या हो रही है. कभी घावों में जलन की अनुभूति हो, कभी दाहिने पंजे में खिंचाव जैसा हो. पसीना बहुत ज्यादा आने की समस्या बहुत पहले से बनी थी, ऐसे में इसकी उलझन भी सामने आ रही थी. मामा जी की तरफ से पंखे, कूलर की पर्याप्त व्यवस्था कर दी गई थी मगर यह नए वातावरण के साथ सामंजस्य बनाने का संक्रमण-काल समझकर जैसे-तैसे रात काटी.


दो-चार दिन की परेशानी के बाद उस माहौल में घावों ने, शरीर ने, हम सबने अपने आपको उसी अनुसार खपा लिया. यहाँ आने से दो-चार दिन पहले ही जानकारी हुई कि दाहिने पंजे को जाल के सहारे कसा गया है. पिछले एक महीने से होती आ रही ड्रेसिंग के बाद कुछ आराम सा रहा होगा जिस कारण पट्टी ज्यादा नहीं बाँधी जाती थी. दोनों तरफ की चोटों पर ड्रेसिंग के बाद की पट्टी बाँधने के बाद क्रैप बैंडेज बाँध दी जाती थी. उसी से उँगलियों को सहारा देने के लिए लगाये गए तार बाहर निकले दिखाई पड़ते थे. यहाँ आने के बाद पनकी में बने एक नर्सिंग होम में ड्रेसिंग के लिए हफ्ते में दो-तीन बार जाना होता था. इसी नर्सिंग होम में स्किन ग्राफ्टिंग की प्रक्रिया कई बार अपनाई गई. इसमें कभी आंशिक सफलता मिलती, कभी यह पूरी तरह से असफल हो जाती.

ऐसा शायद नियति ने पहले से निर्धारित कर रखा होगा क्योंकि दुर्घटना में बाँया पैर कटने, दाहिने पंजे के क्षतिग्रस्त होने के अलावा पूरे शरीर में कहीं भी गंभीर चोट नहीं थी. दाहिना पैर, पीठ, पैर में हलके-फुल्के खरोंच के निशान थे. इस कारण से स्किन ग्राफ्टिंग के लिए हमारी ही खाल निकालने में सहजता रही. इस प्रक्रिया के बाद इतनी मुश्किल और सहनी पड़ी कि दाहिना पैर से जहाँ-जहाँ से स्किन निकाली गई थी, वह हिस्सा भी पट्टियों से बाँध दिया गया. यहाँ मौसम के गर्म होने के कारण, पसीना आने के कारण बहुत बुरी तरह जलन होती. इसे सहन करने के अलावा और कोई रास्ता भी नहीं था. ऐसा इसलिए क्योंकि उस पट्टी को किसी लोशन के द्वारा स्किन निकाली जगह पर चिपका दिया जाता था, जो एक निश्चित समय बाद निकलने लायक होती थी.

मामा के घर आने के बाद हॉस्पिटल की नर्सेज से, सहायकों से, रोज-रोज के ऑपरेशन थियेटर से, उसकी अजीब सी महक से, गले में लगी नलियों से, ब्लड चढ़ाती नली से, थोड़ी-थोड़ी देर में लगते इंजेक्शन से मुक्ति मिल गई थी. अम्मा, निशा, दोनों छोटे भाई, साला सुनील बराबर साथ रहते. घर में, घर जैसे माहौल में हँसी-मजाक करते, बातचीत करते, इधर-उधर की बातें करते समय बिताया जाता. यहीं आकर एक बार फिर पढ़ने, लिखने की इच्छा हुई. अपने साथ लेकर चले एक उपन्यास को पढ़ना शुरू किया गया. कुछ अंतरदेशीय पत्र मँगवाए गए और पत्र लिखने का काम किया गया.

दोनों हाथों की कलाई में भी धमक के कारण, झटका लगने के कारण मोच बनी रही थी बहुत दिन. इस कारण लिखना बहुत मुश्किल का काम होता था. एक लाइन लिखने में शुरू में पाँच-पाँच, दस-दस मिनट लग जाते. अक्षरों ने अपना रूप-स्वरूप बदल लिया. बनाना कुछ चाहते, बन कुछ और जाता. लाइन कहीं खींचते थे, खिंचती कहीं और थी. रोना आता अपनी इस हालत पर कि अब कभी लिख भी सकेंगे या नहीं? क्या राइटिंग पहले जैसी सुन्दर फिर आ सकेगी या नहीं?

समय के साथ बहुत कुछ सही हो गया. सही ढंग से लिखने भी लगे. राइटिंग भी पहले की तरह आने लगी. हाँ, कुछ अक्षरों ने अपना रूप जो बदला, सो वे अपने पुराने रंग में न आये.

.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

15 - इस राह से उस राह की तरफ

रात भर जागना, जगाना फिर दिन भर सोना-जागना, सबसे गपशप करना यही दिनचर्या बन गई थी. मोबाइल की मनाही हो गई थी सो बहुत इमरजेंसी की स्थिति में ही बात करवाई जाती थी. दिन-रात करते-करते वह समय भी आने वाला था जबकि हॉस्पिटल से हमें जाना था. यद्यपि अभी घावों का भरना शुरू भी नहीं हुआ था तथापि हॉस्पिटल में रहने वाली स्थिति से अवश्य ही बाहर आ गए थे. हॉस्पिटल से निकल कर कहीं रहने की व्यवस्था करनी थी जो मामा जी के कारण स्वतः बन गई. पनकी स्थित उनके मकान का उपयोग हमने आगे दो से अधिक महीनों के लिए किया. रवि को भी वहाँ पर हमारा रुकना इस कारण उचित लगा क्योंकि उसके घर और एक अन्य नर्सिंग होम से हम उसकी पहुँच में बने हुए थे. अभी दोनों पैरों की न केवल ड्रेसिंग होनी थी बल्कि कई तरह के छोटे-छोटे से ऑपरेशन भी होने थे, इस कारण से ऐसी जगह भी रहना आवश्यक था जहाँ से नर्सिंग होम तक सहज पहुँच हो. 


पैरों के घाव अभी भरने जैसी हालत में नहीं थे इस कारण उन पर स्किन ग्राफ्टिंग का विचार बनाया गया. एक तरफ यह घावों को जल्द भरने में कारगर सिद्ध होने वाला इलाज था दूसरी तरफ दर्द से भरे शरीर में एक और नया दर्द पैदा करने वाली स्थिति भी थी. इस समय याद नहीं आ रहा कि इस सम्बन्ध में हॉस्पिटल में ही शुरुआत की गई या फिर वहाँ से जाने के बाद जब हम पनकी में शिफ्ट हुए, तब. हाँ, इतना याद है कि इसके कारण पैर में से कई जगह से खाल और निकाल ली गई. इस पर बाद में.


हॉस्पिटल में रहने के दौरान अनेक किस्से हुए. कुछ हमारे सामने ही तो कुछ हमें बताए गए. आईसीयू से निकले कोई तीन-चार दिन ही हुए थे. रवि का दोपहर में आना हुआ. आने के बाद उसने दोनों पैरों को हिला-डुला कर देखा फिर बोला बैठो. हमें सहारा देकर बिठाया गया. अपने आप बैठना मुश्किल होता था. छोटा भाई पकडे बैठा था तो रवि ने कहा छोड़ दो. हमें डर सा लगा. गिर जायेंगे, कह कर उसकी बात को टालना चाहा.

गिर जाना, कहते हुए उसने छोटे भाई को देखा. छोड़ दो इसे, गिर जाने दो. छोटे भाई ने हमें छोड़ दिया. एक एक हल्का सा झटका सा लगा हमें. लगा कि अब गिरे मगर अगले ही पल खुद को सँभाल लिया. दोनों हाथों से पलंग पकड़े बैठे थे, सो वैसे ही बैठे रहे. लगभग पाँच-छह मिनट उसी स्थिति में बैठे रहने के बाद रवि ने पूछा, गिरे? हमने जवाब में बस हँस दिया. उसने फिर पूछा चक्कर तो नहीं आ रहे? हमारे मना करते ही वह बोला, अब पैर लटका कर बैठो.

बाँयी जांघ के दर्द और सूजन, दाहिने पंजे के जाल और उसकी बुरी स्थिति के कारण हिलना संभव नहीं था. उसने और छोटे भाई ने सहारा देकर हमें घुमाया. इसके बाद दाहिने पैर को लटकाने के लिए कहा. दाहिना पैर लटकाया तो करंट सा दौड़ गया पूरे शरीर में. ऐसा लगा जैसे पंजा पैर के साथ जुड़ा नहीं है और अभी अलग होकर नीचे गिर पड़ेगा. लगभग आधा या एक मिनट ही हुआ होगा और पंजे से अँगूठे की तरफ से खून टपकने लगा. रवि ने तुरंत रुई उसमें ठूँस कर टपकते खून को रोकने की कोशिश की. पंजे की ऐसी हालत देख उसने पैर ऊपर किया और हमें लिटा दिया. उसने हमसे या परिवार के किसी सदस्य से कुछ नहीं कहा बस अपने साथ आये अपने सहायक से कुछ कहा और उसने सिर हिला दिया.

ऐसे ही एक दिन हमको लगने वाले लगभग दो दर्जन इंजेक्शन में से कोई एक बिना जाँचे लगा दिया गया. इसकी खबर रवि को होते ही उसने हॉस्पिटल के स्टाफ की जमकर लताड़ लगाई. असल में लगभग दो दर्जन इंजेक्शन हमें लगाये जाने थे. रवि का कहना था प्रत्येक इंजेक्शन टेस्ट करने के बाद ही लगाया जायेगा. जब उस दिन ऐसा नहीं हुआ तो उसका कहना था कि किसी को क्या जानकारी कि इस शीशी की दवा रिएक्शन नहीं कर सकती. उसने बड़े ही साफ़ और कड़े शब्दों में कहा कि इसके इलाज में किसी तरफ की कोताही बर्दाश्त नहीं.

इसके अलावा हमारी बैंगलोर वाली मामी का फोन कई बार आया. हॉस्पिटल के कमरे में सिग्नल बहुत सही से नहीं आते थे सो वहाँ हमसे बात नहीं हो पाती थी. एक दिन मामी ने हमसे बात करवाने की बहुत इच्छा व्यक्त की. हमें बताया गया तो हमने कहा कि पलंग को सरका कर खिड़की तक ले चलो, फिर खिड़की खोल देना, शायद सिग्नल मिल सकें. दोपहर बाद जबकि हमारा आराम का समय होता था, मेडिकल स्टाफ नहीं आता था तब पलंग को सरका कर खिड़की तक लाया गया. खिड़की खोलकर सिग्नल पकड़े गए और मामी से बात हो सकी. पहियों पर चलने वाले पलंग को सरकाने में किसी तरह की समस्या नहीं हुई और बात करने के बाद उसे फिर अपनी जगह कर दिया गया. इस दौरान ध्यान इसका रखा गया कि दाहिना पंजा न हिल जाए, बाँयी जाँघ के ऊपर बनी पॉकेट में किसी तरह की छेड़छाड़ न हो जाये. कुछ न हुआ, सब सही-सलामत रहा.

ऐसी ही बहुत सी छोटी-बड़ी घटनाओं के साथ हॉस्पिटल में समय निकलता रहा. कुछ दिन बाद रवि की सहमति से हॉस्पिटल से हम डिस्चार्ज होकर पनकी मामा के घर आ गए. हॉस्पिटल के एसी रूम से पीछा छूटा मगर न ऑपरेशन थियेटर ने पीछा छोड़ा, न सर्जरी ने.

.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

48 - हवा में उड़ता जाए मेरा दीवाना दिल

स्कूटर के आने के बाद शुरू के कुछ दिन तो उसे चलाना सीखने में निकले. पहले दिन ही अपने घर से सड़क तक की गली को पार करने में ही लगभग पंद्रह मिनट ...