तमाम
सारी दिक्कतें समय के साथ कम हो रही थीं. बाँयी जाँघ के ऊपर बनी पॉकेट में भी
सुधार हो गया था. इस कारण से वहाँ लगाई गईं कई नलियाँ निकाल दी गईं थीं. बाँयी
जाँघ को हल्का फुल्का हिलाना हो जाता था. दर्द में कमी नहीं आई थी, हाँ कुछ हरकत
होने से उसके जानदार होने का आभास ख़ुशी देता था. घावों में बहुत सी जगहों पर स्किन
ग्राफिंग सफलता से हो गई थी.
लेटे-लेटे
लगभग डेढ़-दो महीने होने को आये थे. हॉस्पिटल में शुरूआती दिनों में एक-दो बार बिठा
कर दाहिने पैर को पलंग से नीचे लटका कर देखा गया था. इसमें दो-चार सेकेण्ड बाद ही
खून आने के बाद ऐसा करवाया जाना बंद करवा दिया गया था. पनकी में आने के बाद पंजे
में बंधे जाल के कारण तथा खून निकलने के डर से पैर को लटका कर कभी न बैठे. दिन में
कई बार बैठना होता तो पैर को सीधे ही किये रहते थे. दाहिने पंजे की स्थिति देखने
के बाद और एक रात जाल की स्थिति को देखने के बाद तो और हिम्मत न कर सके पैर लटकाने
की.
नियमित
देखभाल, ड्रेसिंग आदि के कारण चक्कर लगाने में एक दिन रवि ने पैर को मोड़ने को कहा.
पैर जैसे मुड़ने से इंकार कर रहा था. रवि ने भी कोशिश की तो लगभग दस-बीस डिग्री के
कोण पर मुड़ने से ज्यादा नहीं मुड़ा. वह तो जैसे तोड़ने को आतुर था. हमारे बुरी तरह
चीखने पर उसके हाथ रुके. पैर को नियमित रूप से घुटने से मोड़ने की बात पर जोर दिया
गया. बताया गया कि इसके बिना घुटना जाम हो जायेगा तो चलना कठिन हो जायेगा, असंभव
भी. चूँकि हमारे लिए चलना प्राथमिकता में था, इसलिए इस काम को भी वरीयता दी गई.
अपने
आप पैर मोड़ना संभव ही नहीं होता था. जाल के कारण, पंजे के टूटे होने के कारण उसका
हिलाना, उठाना आसान न होता था. छोटा भाई पैर को सहारा देकर मोड़ने का काम करता,
सिकाई की जाती, कई-कई बार मोड़ा जाता मगर ऐसा लगता जैसे घुटने जाम हो गए हों. कई-कई
बार के अभ्यास के बाद घुटने ने हार मानी और कुछ-कुछ मुड़ने लगा.
एक
दिन किसी सर्जरी के लिए नर्सिंग होम जाना हुआ. वहाँ पैर मुड़ने की स्थिति देखने पर
रवि असंतुष्ट दिखा. उसने स्ट्रेचर पर बैठने को कहा. बैठते ही हम कुछ समझ पाते,
उसने पैर को पूरी ताकत लगाकर अन्दर तक मोड़ दिया. हमारी चीख निकल गई.
देखो, मुड़ता है कि नहीं. तुम लोग ताकत नहीं लगाते होगे. उसने छोटे भाई को दिखाते हुए कहा.
छोड़ दो अब, नहीं तो टूट जाएगा. हमने उससे अपना
मुड़ा पैर छोड़ने को कहा.
इस
पर उसने पैर तो न छोड़ा और बोला, टूट जाने दो. हम हैं यहाँ, प्लास्टर बाँध
देंगे. इसके बाद उसने कई-कई बार हमारा पूरा पैर मोड़कर दिखाया.
घर
आने के बाद ये विश्वास हो गया कि पैर मुड़ जायेगा. ये डर भी समाप्त हो गया कि घुटना
जाम हो जायेगा अथवा मोड़ने की ज्यादा कोशिश में टूट जायेगा. उसके बाद से तो लगातार
यह अभ्यास जारी रहा. अब भी इसे समय मिलने पर अथवा घुटने में दर्द होने पर कर लेते
हैं क्योंकि चलना बहुत होता नहीं है तो डर लगता है कि कहीं घुटना जाम न हो जाये. कहने
को घुटना पूरी तरह से मुड़ने लगा है मगर अभी भी एड़ी को अपनी ही जाँघ से मिला पाना
सहज नहीं होता, सरल नहीं होता.
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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र
काफी असहनीय पीड़ा की स्थिति थी, पर सुधार हो रहा था. अच्छा लगा.
ReplyDeleteसब साथ वालों की दुआओं का असर कहा जायेगा
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