उन
दिनों में आराम जितना हो सकता था किया जा रहा था क्योंकि घावों के भर जाने के बाद
उनकी त्वचा की कोमलता दूर होने के बाद ही कृत्रिम पैर लगने वाली प्रक्रिया शुरू की
जा सकती थी. चलने की, अपने पैरों पर खड़े होने की जल्दी थी मगर जल्दबाजी में किसी
तरह की हड़बड़ी करना नहीं चाहते थे. नहीं चाहते थे कि हमारे किसी भी एक कदम से पैर
लगने की प्रक्रिया आगे टल जाए. इसलिए उरई में कार्यक्रमों में जाने को लेकर बहुत
सावधानी रखी जाती, आने-जाने, बैठने-उठने आदि का भी ध्यान रखा जाता.
उस
एक वर्ष को निकाल दें तो न उसके पहले इतना आराम किया और न उसके बाद किया. उस वर्ष
भी जो आराम कानपुर में किया वह मुख्य कहा जा सकता है. उरई आने के बाद बहुत सारे
अधूरे पड़े कार्यों को पूरा करने सम्बन्धी माथापच्ची की जाने लगी. खेती के सम्बन्ध
में गाँव जाना छोटे भाइयों का होता था. पिताजी के बाद की तमाम कानूनी, सरकारी
औपचारिकतायें पूरी करना, उनके कागजात तैयार करना आदि भी व्यस्तता बनाये हुए थे.
इसके साथ-साथ छोटे भाई के विवाह की तैयारियों पर भी चर्चा होती रहती थी.
इन
सबके बीच अपने पठन-पाठन की तरफ भी ध्यान बना हुआ था. यद्यपि उस समय किसी तरह से हम
रोजगार वाली स्थिति में नहीं थे. वह समय हमारा निपट बेरोजगारी वाला दौर था. इसके
बाद भी पढ़ने-लिखने का शौक इससे जोड़े हुए था. इसी कारण से पत्राचार से किये जाने वाले
कुछ पाठ्यक्रमों को, जिनका कार्य अधूरा रह गया था, इसी अवधि में पूरा किया. समय का
ज्यादा से ज्यादा सदुपयोग कर लेना चाहते थे. इसी से इस बीच कई मित्रों के, कई
परिचितों के शोध-कार्यों को भी पूर्ण करवाने में सहयोग किया.
उन्हीं
आराम के बीच पढ़ाई, अध्ययन, लेखन भरे दिनों में, मिलने-जुलने के समय में गुरुजनों
का आशीर्वाद हिम्मत बढ़ा रहा था. ऐसे ही हिम्मत बढ़ाने वाले पलों में एक दिन वह भी
आया जिसे किसी के लिए भी गौरवानुभूति का क्षण कहा जायेगा. वह क्षण इस रूप में आया
कि हमारे गुरु जी स्वयं अपने निर्देशन में शोधकार्य करवाने के लिए घर पर आए. इसे
अपने आपमें परमशक्ति से भी बड़ा आशीर्वाद कहा जायेगा जो उस दिन डॉ० शरद जी
श्रीवास्तव और बड़े भाई समान डॉ० परमात्मा शरण गुप्ता जी ने घर आकर हमें दिया. यद्यपि
अपने नाम के आगे डॉ० लगाने की इच्छा पहले ही पूरी हो चुकी थी तथापि अर्थशास्त्र से
शोधकार्य करने की जो अभिलाषा वर्ष 1995 में हुई थी, वह समय-समय
पर अपना सिर उठाती रहती थी.
अर्थशास्त्र
से परास्नातक करने के बाद कतिपय कारण से हमारी यह इच्छा पूरी न हो सकी थी. अब जबकि
उन्होंने स्वयं घर आकर हमें अपने निर्देशन में पी-एच०डी० करने को कहा तो हमने भी
पूरी तत्परता दिखाते हुए उनके प्रथम शोधार्थी के रूप में बुन्देलखण्ड
विश्वविद्यालय, झाँसी में अपना पंजीकरण करवा लिया. बुन्देलखण्ड क्षेत्र के प्रति
कार्य करने के विशेष लगाव के चलते जनपद जालौन में कृषि पद्धति का मूल्यांकन
को अर्थशास्त्र शोधकार्य का विषय चुना. उनकी सहमति से विषय का चयन करने के पश्चात्
आनन-फानन पाठ्य-सामग्री जुटाई गई. उस समय हमारे पास किसी भी रूप में इंटरनेट की
सुविधा नहीं थी. ऐसे में इधर-उधर के कुछ पुस्तकों को एकत्र किया गया. छोटी बहिन
हमीरपुर में महाविद्यालय में कार्यरत है, उसके पुस्तकालय की सहायता लेने के
साथ-साथ उरई के सम्बंधित स्त्रोतों की सहायता ली गई. इस कार्य में भी छोटे भाई की
भागदौड़ बराबर बनी रही. कालांतर में तमाम औपचारिकताओं की समाप्ति पश्चात् एक और
डॉक्टरेट उपाधि प्राप्त हुई.
अर्थशास्त्र
में पी-एच०डी० के पूर्व वर्ष 2002 में हिन्दी साहित्य से
पी०-एच०डी० कर चुके थे. वह शोध-कार्य हिन्दी के विद्वान डॉ० दुर्गा प्रसाद खरे जी
के निर्देशन में संपन्न हुआ था, जो स्वयं दो विषयों से डी०लिट्० उपाधि प्राप्त
करने वाले देश के तीसरे व्यक्ति हैं. हमारी दोनों पी-एच०डी० को सफलतम रूप से अंतिम
पायदान तक पहुँचाने में बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी में कार्यरत हमारे मित्र
डॉ० राजीव सेंगर श्रीकृष्ण की भांति सदैव सारथी की मुद्रा में नजर आये. किसी भी
तरह की समस्या पर वे उसी सहजता से हमारा शोध-कार्य सम्पन्नता की ओर ले गए जैसे कि
कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण अर्जुन के रथ को शत्रु सेना के बीच से निकालकर विजय की
ओर ले जाते थे.
जीवन
में तमाम अनुभवों के बीच एक अत्यंत कष्टप्रद अनुभव दुर्घटना का मिला तो तमाम
प्रमाण-पत्रों, अंक-पत्रों से भरी फाइल में एक और उपाधि अर्थशास्त्र की पी-एच०डी०
के रूप में सम्मिलित हो गई.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र
वाह। दो बार पी एच डी। यह तो बहुत कठिन है। पर आपने सभी मुश्किलों को आसानी से पार किया। बधाई।
ReplyDeleteआभार आपका
Deleteजीवन की जीवटता व चेहरे की मुस्कराहट देखकर परेशानिया दूर भाग जाती हैं।इसलिए दुहरी शोध उपाधि जैसे दुरूह कार्य को आसानी से सम्पन्न कर लिया। लोगो के लिए प्रेरणादायक है।
ReplyDeleteआभार आपका
Deleteआपकी कोशिशों ने मुश्किल चीजों को भी आसान बना दिया ,बहुत ही बढ़िया ,
ReplyDeleteसबके साथ से कोशिशें भी आसान हो गईं, आभार
Deleteबधाई...हो।
ReplyDeleteआभार आपका
Deleteमुश्किल में साहस की डोर थामने का भी एक रास्ता सिखाता संस्मरण है ... शक्ति प्राप्त करने का साहस धैर्य ज़रूरी है ...
ReplyDeleteआभार आपका. कोशिश यही रहती है कि साहस न छूटे....
Deleteजीवन के संघर्ष, आपकी जीवटता निश्चित ही अनुकरणीय है, आदरणीय भाई साहब।
ReplyDeleteकोशिश यही है कि यह कभी कमजोर न पड़े...
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