कभी-कभी
समय भी परिस्थितियों के वशीभूत अच्छे-बुरे का खेल खेलता रहता है. अनेक मिश्रित
स्मृतियों का संजाल दिल-दिमाग पर हावी रहता है. सुखद घटनाओं की स्मृतियाँ क्षणिक
रूप में याद रहकर विस्मृत हो जाती हैं वहीं दुखद घटनाएँ लम्बे समय तक अपनी टीस
देती रहती हैं. मनुष्य का स्वभाव सुख को जितना सहेज कर रखने का होता है, सुख उतनी
ही तेजी से उसके हाथ से फिसलता जाता है. इसके उलट वह दुःख से जितना भागना चाहता
है, दुःख उसके भागने की रफ़्तार से कहीं तज दौड़ कर इन्सान को दबोच लेता है. दुःख की
एक छोटी सी मार सुख की प्यार भरी लम्बी थपकी से कहीं अधिक तीव्र होती है. कई बार
दुखों की तीव्रता सुखों से भले ही बहुत कम हो पर इंसानी स्वभाव के चलते छोटे-छोटे
दुखों को भी बहुत बड़ा बना लिया जाता है. हाँ, कुछ दुःख ऐसे होते हैं जिनकी पीड़ा और
टीस किसी भी सुख से कम नहीं होती है, नियंत्रित नहीं होती है.
वर्ष
2005 भी ऐसी ही मिश्रित अनुभूति लेकर आया. इस अनुभूति में
समय ने वह खेल दिखाया जिसका असर पूरी ज़िन्दगी रहेगा, पूरी ज़िन्दगी पर रहेगा. सुखों
और दुखों के तराजू में दुखों का पलड़ा इतना भारी हुआ कि ज़िन्दगी भर के सुख भी उसे
हल्का नहीं कर सकेंगे. मार्च ने हमारे सिर से पिताजी का साया छीन कर इस दुनिया में
अकेला खड़ा कर दिया. परिवार की अनपेक्षित जिम्मेवारी एकदम से कंधे पर आ गई. अभी
अपनी जिम्मेवारियों को, पारिवारिक दायित्वों का ककहरा भी न सीख सके थे कि अप्रैल
ने ज़िन्दगी भर के लिए हमें दूसरे पर निर्भर कर दिया. कृत्रिम पैर के सहारे, छड़ी के
सहारे, किसी न किसी व्यक्ति के सहारे. यह और बात है कि आत्मविश्वास ने इन सहारों
पर निर्भर रहते हुए भी इन पर निर्भर सा महसूस न होने दिया.
लोगों
से मिलते-जुलते रहने, कार्यक्रमों में सहभागिता करते रहने, लेखन-पठन-पाठन आदि में
व्यस्त रहने के कारण दिल-दिमाग को दुर्घटना के प्रति बहुत ज्यादा सोचने का अवसर
नहीं मिलता था. घर के सदस्य भी ऐसी व्यस्तता देखकर कहीं न कहीं खुद में संतुष्टि
महसूस करते होंगे. कहते हैं कि समय के साथ दुःख कम होते जाते हैं, उनकी टीस कम
होती जाती है, ऐसा कुछ होने के संकेत मिलने लगे थे. समय ने एक साथ दो-दो कष्टों को
दिया था, समय ही उन दो कष्टों को सहने वाले परिवार को कुछ मरहम भी लगाना चाहता था.
वर्ष
2005 अपने माथे पर सिर्फ कष्टों का कलंक लगवाकर विदा नहीं
होना चाहता था. तभी जाते-जाते उसने दिसम्बर में कुछ खुशियाँ परिवार को देने का
प्रयास किया. शिक्षा विभाग में अध्यापन हेतु छोटे भाई की नियुक्ति सम्बन्धी सुखद समाचार
मिला. विशिष्ट बीटीसी के माध्यम से पूर्व में भी उसकी यह नियुक्ति की प्रक्रिया
बीच में रुक गई थी. संभवतः नियति भी साथ में खेल रही थी. यह ख़ुशी भी उसी समय मिलनी
थी जबकि परिवार दुखों में गोते लगा रहा था. उसकी नियुक्ति पास के जनपद उन्नाव में
हुई थी. छोटे भाई ने हमारी शारीरिक स्थिति देखते हुए नियुक्ति हेतु कार्य-स्थल पर
जाने से इंकार किया. तमाम तर्कों, कारकों के साथ उसे समझा कर अध्यापन कार्य ग्रहण
करने के लिए तैयार किया.
इसी
तरह हम जो काम कभी भी नहीं करना चाहते थे, उसी अध्यापन कार्य
का नियुक्ति-पत्र मिला. जिस महाविद्यालय में दो-दो बार हमारी नियुक्ति को रुकवाया,
रोका गया हो उसी महाविद्यालय ने हमें अपने यहाँ अध्यापन कार्य करने हेतु
नियुक्ति-पत्र निर्गत किया. अध्यापन के प्रति रुचि न होने के कारण हमने सिरे से इस
प्रस्ताव को नकार दिया. इस नियुक्ति पर घरवालों के अपने तर्क थे. बिना एक पैर,
चलने-फिरने, बाहर बिना सहारे निकलने में हमारी
असमर्थता को इसी बहाने दूर होने का बहाना बताया गया. दो-चार महीनों में अध्यापन कार्य
छोड़ देने के हमारे पिछले रिकॉर्ड के कारण भी सबने विश्वास जताया कि चंद महीने ही करोगे
इस काम को, कर लो जब तक मन लगे. अंततः पारिवारिक तर्कों,
दबावों के चलते देश की ऐतिहासिक तिथि 06 दिसम्बर 2005 को हमने भी अपनी
नियुक्ति को ऐतिहासिक बना दिया. मानदेय प्रवक्ता के रूप में हिन्दी विभाग में
नियुक्ति के पश्चात् कई बार छोड़ना-जुड़ना लगा रहा. अंततः वर्ष 2019 में प्रदेश भर के मानदेय प्रवक्ताओं के साथ हम भी स्थायी हो गए.
इस
तरह के सुखद समाचारों से आभास हो रहा था कि परिवार के साथ सिर्फ बुरा ही बुरा नहीं
होना है. इन ख़ुशी भरे समाचारों के बीच हम सबको उस दिन का इंतजार था जबकि डॉक्टर की
तरफ से पैर लगवाने की सहमति मिले. घावों का सूखना तेजी से बना हुआ था. उनके ऊपर
बनती खाल के मजबूत होने का इंतजार किया जा रहा था. खुद को मानसिक रूप से इस
सन्दर्भ में किसी तरह की सकारात्मक अथवा नकारात्मक खबर के लिए तैयार कर लिया था.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र
समय ने ख़ुद पर से सिर्फ़ बुरा होने का कलंक मिटाया, आपकी नियुक्ति के रूप में। सच है एक दुख तमाम सुख पर भारी हो जाता है। ज़िन्दगी अब सहज होने लगी थी, अच्छा लगा।
ReplyDeleteज़िन्दगी सहज होने का एहसास करवा रही थी मगर हो न रही थी. खैर अभी तो आगे की बहुत लम्बी कहानी शेष है. बस ये है कि कुछ-कुछ अच्छा होने का एहसास होने लगा था.
Deleteसुख दुःख जीवन चक्र है। यह सही है और यह भी कि एक दुख तमाम सुख पर भारी हो जाता है।
ReplyDeleteसमय ने कुछ मरहम भी लगाया...जिंदगी इस तरह से कुछ हल्की तो अवश्य हो जाती है।
सुखद भविष्य के लिए शुभकामनाएं।
आभार आपका. सही कहा आपने.
Deleteअगर अपना आत्मविश्वास है तो बड़े बड़े संकट और दुख हार मान लेते हैं।
ReplyDeleteजी बुआ जी.
Deleteप्रेरणादाई आलेख है।
ReplyDeleteआभार आपका.
Deleteसमय अपने आप में बहुत गहरी दवा है ... हर घाव हर सोच बादल देता है ... हाँ आत्मविश्वास जो आपने रखा वो भी महत्वपूर्ण है ...
ReplyDeleteसमय सब समाधान देता है, बस समझने की बात है
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