32 - आशा-निराशा के बनते-बिगड़ते पल

गुजरते, इंतजार करते-करते अंततः वह दिन भी आ गया जबकि कृत्रिम पैर लगवाने की अनुमति दोनों पैरों के घावों की तरफ से मिल गई. अभी पैर बना भी नहीं था, पैर का नाप भी नहीं दिया गया था मगर अपने आपमें लगने लगा था जैसे कि हम अपने पैरों पर चलने लगे हैं. व्हीलचेयर भी अपने पैरों जैसी महसूस होने लगी. यद्यपि उन्हीं दिनों में खड़े होने के अभ्यास के साथ-साथ चलने का प्रयास भी किया था तथापि वह सफल नहीं हो सका था.


हाँ, सही कह रहे हैं, उस समय जबकि हमारा पैर नहीं बना था तो घर पर चलने की कोशिश की. इस कोशिश को दो-तीन बार अंजाम दिया गया मगर हर बार परिणाम हमारे पक्ष में नहीं आया. पैरों की स्थिति देखकर लग रहा था कि अभी घावों के भरने में समय लगेगा, उसके बाद उन पर आने वाली त्वचा के पूरी तरह से सही होने में भी समय लग सकता है. ऐसे में व्हीलचेयर के अलावा चलने-फिरने के अन्य साधनों पर भी विचार किया गया था. उन्हीं विचारों में बैसाखियों को स्वीकारते हुए हमारा साथी बनाने की कोशिश की गई. हमने भी बड़े झिझकते हुए उनके साथ खुद का तालमेल बिठाने की कोशिश की.

घर में कई बार उनके सहारे चलने की कोशिश की मगर हर बार नाकामी ही हाथ लगी. कभी भी बिना सहारे के दो-चार कदम से ज्यादा आगे नहीं बढ़ सके. जब भी बिना सहारे के चलने का प्रयास किया तो बस गिरने की स्थिति में पहुँच गए. उस समय हमारे लिए हमारे चलने से ज्यादा अपनी उसी बची-खुची शारीरिक स्थिति को बनाये रखना था. नहीं चाहते थे कि हमारी किसी भी तरह की गलती से चोटिल पैरों में कोई और चोट आये या फिर हम ही किसी और रूप में घायल हो जाएँ. तीन-चार बार की असफल कोशिश के बाद बैसाखियों के साथ चलने का इरादा हमने छोड़ दिया.


नया वर्ष आ चुका था. पुराने बीते वर्ष की बुरी यादों को उसी के साथ छोड़ आने का विचार था मगर दिल-दिमाग सबकुछ अपने साथ समेट कर नए वर्ष में ले आया. उन्हीं सब यादों को समेटे एक दिन कृत्रिम पैर बनवाने के लिए कानपुर को चल दिए. कृत्रिम पैर बनवाने के लिए कानपुर और जयपुर ही बताया गया था. अपनी चलने-फिरने की स्थिति को देखते हुए कानपुर में पैर बनवाना उचित लगा. वहाँ स्थित एलिम्को के बारे में सुन भी रखा था.

अभी तक कृत्रिम पैरों के बारे में सुन रखा था, कुछ लोगों को कभी लगाये देखा भी तो उनसे इस बारे में जानकारी करने की कोशिश नहीं की. इसके पीछे कारण यही रहता था कि कहीं अगले व्यक्ति को ख़राब न लगे. अब जबकि खुद इस स्थिति से गुजरे तो लगा कि इस बारे में भी जानकारी सार्वजनिक होनी चाहिए ताकि ऐसे लोगों को भी इसका लाभ मिल सके, जिनके सम्बन्ध व्यापक रूप से फैले नहीं हैं.

एलिम्को के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. कैसे पैर बनेगा, कब मिलेगा, कैसे चलना होगा, कैसे लगेगा आदि-आदि सवालों को दिमाग में लेकर हम लोग एलिम्को पहुँचे. सम्बंधित संस्थान के कर्मियों के अलावा इक्का-दुक्का लोग ही वहाँ उपस्थित थे. पैर बनवाने की प्रक्रिया की जानकारी करने के बाद वहाँ के डॉक्टर का इंतजार किया जाने लगा. उनकी अनुमति के बाद ही पैर के नाप लेने की, उसके बनाये जाने की प्रक्रिया आगे चलती.

जिस हॉल में हम लोगों को बिठाया गया वहाँ कई सारे पैर बने हुए रखे थे. उनके आकार को देखकर स्पष्ट समझ आ रहा था कि पैरों की स्थिति के अनुसार वे विशेषज्ञ टीम द्वारा बनाये गए हैं. पैर बन जाने के बाद उसी हॉल में एक तरफ बनी पट्टी पर चलने का अभ्यास करना पड़ता है. एलिम्को के कर्मियों की देखरेख में चलने का अभ्यास पूरे दिन करना होता है. किसी तरह की तकलीफ होने की स्थिति में, कृत्रिम पैर के दूसरे सही पैर के नाप से छोटे-बड़े होने की स्थिति में, चलने में किसी दिक्कत को लेकर अथवा किसी अन्य समस्या के समाधान के लिए वहाँ के कर्मचारी, डॉक्टर लगातार तत्पर, सजग बने रहते हैं. पैर पहनने, चलने का अभ्यास सही से हो जाने के बाद ही वहाँ के डॉक्टर द्वारा हरी झंडी मिलती है.

जब तक डॉक्टर साहब का आना नहीं हुआ, उतनी देर तक अनेक विचार दिमाग में बनते-बिगड़ते रहे. उस पूरे हॉल के वातावरण के साथ अपना साम्य बिठाने की कोशिश करते रहे. उन बने रखे हुए तमाम कृत्रिम पैरों में से अपने नाप के पैर के साथ तादाम्य बनाते रहे. मन ही मन उनको पहनने की प्रक्रिया पर विचार होता रहा. उनके खोलने, पैर के मोड़े जाने के बारे में विचार किया जाता रहा. चूँकि हमारा पैर घुटने के ऊपर से कटा हुआ था ऐसे में यह निश्चित था कि जो कृत्रिम पैर बनेगा उसमें घुटने की मुड़ने वाली प्रक्रिया अब हमारे नियंत्रण में नहीं होगी. इसी स्थिति का संतुलन हमारे चलने में सहायक सिद्ध होगा.

कुछ देर बाद डॉक्टर साहब का आना हुआ. उन्होंने पैर की स्थिति का मुआयना किया. पैर बनने की प्रक्रिया से सम्बंधित बाँयी जाँघ की, उसकी त्वचा की जाँच करने के बाद उन्होंने उस समय पैर का नाप लेने से इंकार कर दिया. उनके परीक्षण के अनुसार अभी बाँयी जाँघ की खाल इतनी मजबूत नहीं हो सकी थी कि कृत्रिम पैर के दवाब को, उसके घर्षण को बर्दाश्त कर सके. उन्होंने दाहिने पंजे की भी स्थिति को देखा था. उसके चलते भी वे हम लोगों के लगातार अनुरोध के बाद भी पैर का नाप के लिए तैयार नहीं हुए.  

जिस आशा के साथ एलिम्को आना हुआ था वह क्षीण होती नजर आई. पता नहीं कब तक स्किन ऐसी होगी, घाव ऐसा होगा कि पैर बनाया जा सकेगा? पता नहीं कब हम बिना किसी सहारे के, बिना व्हीलचेयर के चल सकेंगे?

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

2 comments:

  1. कृत्रिम ही सही पर अपने पैर पर खड़े होने की कल्पना बहुत सुखद रही होगी। बहुत भावपूर्ण हाइकु लिखा आपने, बधाई।

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    1. आभार... सही कहा आपने. जिस दिन पहली बार कृत्रिम पैर के सहारे खड़े हुए, उस दिन कितनी-कितनी बार, कितनी-कितनी आँखें नम हुईं कह नहीं सकते.

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