48 - हवा में उड़ता जाए मेरा दीवाना दिल

स्कूटर के आने के बाद शुरू के कुछ दिन तो उसे चलाना सीखने में निकले. पहले दिन ही अपने घर से सड़क तक की गली को पार करने में ही लगभग पंद्रह मिनट लग गए थे. पहले लगा कि एक साल से अधिक समय बाद किसी वाहन को चलाया है, इस कारण कुछ असहजता है मगर कुछ देर बाद भी जब हाथ सहज न हुआ तब दिमाग ने काम करना शुरू किया. अब दिमाग ने काम करना शुरू किया तो फिर कारण समझ में आना ही था.


चूँकि एक पैर के न होने की स्थिति में किसी भी दोपहिया वाहन को पैरों से नियंत्रित, संतुलित करना सहज नहीं था. कृत्रिम पैर पर हमारा किसी तरह का नियंत्रण नहीं था. शारीरिक, मानसिक नियंत्रण से मुक्त वह स्वच्छंद था, ऐसे में उसके साथ किसी भी तरह के दोपहिया वाहन को चलाने में कुछ संकट जैसी स्थिति थी, कुछ समस्या जैसी भी थी. बहरहाल, हमारे आवागमन के लिए हमारी वर्तमान शारीरिक स्थिति को देखते हुए स्कूटर बनवाया गया था. किसी भी स्थिति में स्कूटर को गिरने से बचाए रखने के लिए उसके पीछे पहिये के अगल-बगल एक-एक पहिया और लगाया गया था. इसके कारण स्कूटर को गिरने से रोकने के लिए, उसे नियंत्रित करने के लिए पैरों का इस्तेमाल नहीं करना होता था. अगल-बगल लगे दोनों पहिये के सहारे स्कूटर नियंत्रित रहता था.


एक तरफ ये दोनों पहिये स्कूटर को सँभालते हैं, उसे गिरने से रोकते हैं तो दूसरी तरफ यही दोनों पहिये स्कूटर चलाने में मुश्किल पैदा भी करते हैं. उस दिन जैसा हो रहा था, यदा-कदा आज भी हो जाता है. उस शाम जब पहली बार स्कूटर को अपनी गली में चलाते हुए सड़क तक ले जाने की कोशिश की तो अगल-बगल के पहियों के कारण स्कूटर एक तरफ भागने लगता.  जैसी कि पहले की आदत पड़ी हुई थी, स्कूटर को नियंत्रित करने के लिए दाहिने पैर को जमीन पर टिकाने की कोशिश करते तो वह अगल-बगल के पहियों के लिए बने फ्रेम में फँस जाता. ऐसा कई बार हुआ, इससे पैर कई जगह छिल गया, खून भी निकलने लगा.




एकबारगी लगा कि घर वापस चला जाये, जब अभी सुनसान गली में जरा सा भी नहीं चला सके तो भीड़ भरी सड़क पर कैसे चलाएँगे. ऐसा विचार दिमाग में आते ही एक जिद दिल-दिमाग में हावी हुई कि देखते हैं कब तक नहीं चला पाते. बस, फिर क्या था लगा जैसे कि स्कूटर कोई चुनौती दे रहा है. कई जगह खरोंच खा चुके पैर का दर्द भूल कर स्कूटर को सँभालने पर ध्यान देना शुरू किया. एक तरफ से हैंडल कसकर थामते तो दूसरी तरफ भागना शुरू करता, दूसरी तरफ से उसे नियंत्रित करते तो वह पहली तरफ मुड़ जाता. स्कूटर और हम जैसे अपनी-अपनी जिद पर अड़े थे. अंततः जिद पर हम हावी हो ही गए.


कुछ देर की मशक्कत के बाद, चोट-खरोंच के बाद स्कूटर सड़क पर था. एक चक्कर के बाद हैंडल भी कब्जे में था, स्कूटर भी नियंत्रण में था, गति भी स्थिर थी और हम.... हम तब से आज तक हवा से बातें करने में लगे हैं.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

47 - चलते रहना ज़िन्दगी की निशानी है

सामाजिक जीवन में गतिशीलता स्कूटर आने के पहले से बनी हुई थी, स्कूटर आने के बाद उसमें और गति आ गई थी. आवाजाही पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ गई थी. सामाजिक कार्यक्रमों में सक्रियता भी बढ़ने लगी थी. अपनी दुर्घटना के काफी पहले से कन्या भ्रूण हत्या निवारण कार्यक्रम से जुड़े हुए थे, उस कार्यक्रम में कुछ अवरोध सा आ गया था. लखनऊ की वात्सल्य संस्था के साथ जुड़कर चल रहा कार्य रुक गया या कहें कि बंद हो गया था. चूँकि उस संस्था से जुड़ने के काफी पहले से अपने खर्चे पर इस कार्य को किया जा रहा था सो अब पुनः उसी दिशा में आगे बढ़ने का मन बनाया.


घर से सभी तरह का सहयोग साथ में था और मित्र भी लगातार हौसला बनकर साथ रहते. इन सबके साथ से ताकत लेते हुए कन्या भ्रूण हत्या निवारण कार्यक्रम को और विस्तार देते हुए उसे बेटी प्रोत्साहन के रूप में पुनः आरम्भ करने का विचार किया और बिटोली नामक अभियान को आरम्भ कर दिया. विगत कई वर्षों का अनुभव हमारे साथ था जिसकी सहायता से जनपद जालौन के बाहर भी, उत्तर प्रदेश के बाहर अन्य प्रदेशों में बिटोली अभियान सम्बन्धी कार्यक्रमों का सञ्चालन आरम्भ किया. एक-एक करके टीम बनती रही और प्रदेश के साथ-साथ अन्य प्रदेशों के जनपदों में भी बिटोली के कार्यक्रम चलने लगे.




इस कार्यक्रम के अलावा एक और कार्यक्रम आरम्भ किया गया. दुर्घटना की उस विषम परिस्थिति के दौरान सूचना का अधिकार अधिनियम देश में लागू किया गया. उस अधिनियम के बारे में, उसकी आवश्यकता के बारे में, जनसामान्य को उसका लाभ दिलाने के उद्देश्य से जब उस अधिनियम को समझा गया, जाना गया तो लगा कि सामाजिक सक्रियता के अपने स्वभाव के चलते इस अधिनियम का लाभ बहुतायत लोगों को दिलवाया जा सकता है. इस विचार के आते ही अपने कुछ मित्रों से राय-मशविरा करके सूचना अधिकार अधिनियम का लाभ जनसामान्य को दिलवाने के लिए, लोगों में इस अधिनियम के बारे में जागरूक करने के लिए आरटीआई फोरम का गठन करके उसका ढाँचा देशव्यापी स्तर पर बनाया गया. स्थानीय प्रशासन से एक महत्त्वपूर्ण सूचना माँगने के क्रम में आई मुश्किलों ने भी आरटीआई फोरम के गठन की तरफ दिमाग को दौड़ाया था.  


समय लगातार अपनी गति से आगे बढ़ता रहा. बिटोली और फोरम के कार्य अपने-अपने स्तर से सफलता की राह बढ़ते रहे. इस सफ़र में बहुत से साथी मिले, बहुत से दुश्मन भी मिले; साथ देने वाले भी आगे आये और गिराने वाले भी पीछे नहीं रहे. सामाजिक जीवन में मुश्किलों का सामना लगातार किया जाता रहा, इस दौरान भी करते रहे. सभी शुभेच्छुजनों के सहयोग, आशीर्वाद, मंगलकामना से सभी बाधाएँ दूर होती रहीं, सभी मुश्किलों का समाधान होता रहा, सामाजिक कार्य समाज के बीच अपना सकारात्मक सन्देश प्रसारित-प्रचारित करते रहे.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

46 - चेहरे पर भावनात्मक ख़ुशी और आँखों में नमी

सामाजिक जीवन में जो भागदौड़ बनी हुई थी, उसमें उन्हीं दिनों थोड़ा सा अवरोध रहा जबकि हम बिना कृत्रिम पैर के रहे. यद्यपि उस दौरान भी कुछ सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा एक पारिवारिक विवाह संस्कार में भी शामिल हुए तथापि उसमें सीमितता बनी रही. खुद में किसी तरह का अक्षम होने जैसा बोध कभी पनपने नहीं दिया, इस कारण से किसी कार्यक्रम में शामिल होने में झिझक महसूस नहीं होती थी. इसके बाद भी साथ के लोगों की तत्परता, उनकी सजगता देखकर कई बार लगता कि अपनी सामाजिकता के लिए अपने भाई को, दोस्तों को परेशान कर रहे हैं.


चूँकि जब पैर नहीं लगा था उस समय कहीं आने जाने के लिए बाइक का, कार का उपयोग किया जाता, इसमें भी बाइक का ही ज्यादातर इस्तेमाल किया जाता. कॉलेज आने-जाने में, कार्यक्रमों में सहभागिता करने के दौरान बाइक से चलने के दौरान बाइक चालक के साथ-साथ एक और व्यक्ति की आवश्यकता होती, जो पीछे से हमें सहारा दिए रहता था. बिना उसके हमें अपना संतुलन बनाना कठिन होता था. वर्ष 2006 मार्च-अप्रैल में कृत्रिम पैर लग जाने के बाद पीछे बैठ कर सहारा देने वाले व्यक्ति की आवश्यकता महसूस नहीं हुई मगर आवागमन के लिए किसी न किसी की आवश्यकता महसूस होती थी. पैर के दर्द और कृत्रिम पैर के साथ नया-नया जुड़ाव होने के कारण बहुत देर तक, बहुत दूर तक पैदल चलना नहीं हो पाता था. इसके अलावा हमारा बाइक चलाना, स्कूटर चलाना, साइकिल चलाना भी संभव नहीं लग रहा था. बाइक चलाने का असफल प्रयास हमारे द्वारा किया जा चुका था, इससे भी अपनी क्षमता का आकलन करने में आसानी हो गई थी.




ये हमारी खुशकिस्मती है कि हमारे सभी छोटे भाई हमारे साथ हमारी प्रतिकृति बनकर सदैव साथ बने हुए हैं. किसी भी भाई को जरा सा भी भान होता वो तुरंत पूरी सक्रियता, सजगता से हमारी आवश्यकता की पूर्ति के लिए उपस्थित रहता. कहाँ जाना है, क्यों जाना है, किस समय जाना है आदि से उनको कोई मतलब नहीं होता, कोई सवाल नहीं होता बस वे पूरी ईमानदारी, निष्ठा, प्रेम से अपने दायित्व का निर्वहन करने में लगे थे. ऐसा ही सहयोग हमें हमारे दोस्तों से मिला. कभी भी, दिन-रात में किसी भी समय, कहीं भी जाने के लिए, किसी भी आवश्यकता के लिए किसी भी दोस्त को पुकार लगाई वह बिना किसी प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ हमारे कंधे से कंधे मिलाकर खड़ा हुआ.


अपने छोटे भाइयों, दोस्तों के साथ समय कैसे बीतता रहा इसका अंदाजा भी न रहा. समय तेजी से खिसकता हुआ वर्ष 2006 से वर्ष 2009 में आ पहुँचा. सितम्बर का महीना था, हमारे जन्म का दिन. सुबह-सुबह से घर में छोटे भाई और उसके एक मित्र की हलचल मची हुई थी. यद्यपि हलचल देर रात भी समझ आई तथापि किसी तरह का अंदाजा हमें नहीं हुआ कि आखिर हो क्या रहा था. सुबह उठने के बाद, नित्यक्रिया से निपटने के बाद अपने कमरे में बैठे लिखा-पढ़ी का काम किया जा रहा था. अम्मा से जन्मदिन का आशीर्वाद मिल चुका था. घर के सदस्यों से भी शुभकामना सन्देश मिल चुके थे. मोबाइल, फोन से भी संदेशों का आना लगा हुआ था. उसी में हमें बाहर बुलाया गया.


बाहर दरवाजे की आहट पर ध्यान दिया तो कुछ ऐसा समझ नहीं आया कि कुछ विशेष है. ऐसा भी नहीं लगा कि कोई हमसे मिलने वाला आया है. ऐसे में हमें बाहर बुलाये जाने का अर्थ समझ नहीं आया. हालाँकि घर के दरवाजे पर कुछ चहल-पहल सी, फुसफुसाहट सी महसूस अवश्य हो रही थी. बाहर निकल कर देखा तो आँखें नम हो गईं. एक नया स्कूटर हमारे लिए तैयार खड़ा हुआ था, जो हमारे चलाये जाने के उद्देश्य से ही बनवाया गया था. घर के सभी सदस्यों के चेहरे पर भावनात्मक ख़ुशी और आँखों में नमी स्पष्ट दिख रही थी. ये आपके जन्मदिन का गिफ्ट है कहते हुए छोटे भाई ने स्कूटर की चाबी जब हमारी हथेली में रखी तो हम दोनों ही एक-दूसरे से आँखें मिलाने की हिम्मत न कर सके. हम दोनों ही जानते थे कि ऐसा होते ही आँखों की नमी बह निकलेगी.


उस दिन सुबह-सुबह ऐसा गिफ्ट मिलना बहुत ही भावनात्मकता से भर गया. घर में सबने कई-कई बार स्कूटर चला कर देख लेने को कहा मगर अन्दर से हिम्मत न जुटा सके. दुर्घटना के बाद से लेकर आज तक बहुत से पल ऐसे आये जबकि हमने खुद को अन्दर से कमजोर महसूस किया, ये और बात है कि ऐसा कुछ जाहिर न होने दिया. उस दिन भी कुछ ऐसा हो रहा था.


हाथों में चाबी लेकर वापस अपने कमरे में आकर बैठ गए. कुछ घंटों के बाद खुद में साहस बटोरा और छोटे भाई के साथ स्कूटर की यात्रा पर निकल पड़े. उस दिन से हमारे आने-जाने को जो गति मिली वह आज तक बनी हुई है.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

45 - ख़ामोशी से गुजर जाते हैं दर्द कितने

दाहिने पंजे के दर्द से कोई राहत नहीं मिल रही थी. उसकी स्थिति देखकर बहुत ज्यादा लाभ समझ भी नहीं आ रहा था. इस दर्द में उँगली भी अपने रंग-ढंग दिखाने में लगी थी. उसकी स्थिति ऐसी हो चुकी थी कि चलने में, खड़े रहने में बहुत ज्यादा दिक्कत आ रही थी. रवि की तरफ से जब यह निश्चित हो गया कि उँगली निकाल दिए जाने से कोई समस्या नहीं होनी है तो फिर उसी के अनुसार समय निश्चित किया गया. उन दिनों उसका दो दिनों शनिवार, रविवार उरई में बैठना होता था. बहुत बड़ा ऑपरेशन नहीं था, इसलिए उरई के उसी नर्सिंग होम में, जहाँ वह बैठता था, उँगली का निकाला जाना तय हुआ.


रविवार को दोपहर में ऑपरेशन थियेटर में एक बार फिर हम उपस्थित हुए. विगत कुछ वर्षों में ऑपरेशन थियेटर, हॉस्पिटल से गहरा रिश्ता बन गया था. ऑपरेशन थियेटर का माहौल जाना-पहचाना सा लगने लगा था. वहाँ फैली अजीब सी सुगंध, वहाँ रखे तमाम उपकरणों की आवाज़, उनकी महक को, उपस्थिति को अब बिना किसी परेशानी के महसूस किया जाता था.




फ़िलहाल, निश्चित समय पर उँगली को निकाले जाने की प्रक्रिया शुरू हुई. किसी सर्जन के हिसाब से यह बहुत छोटा सा ऑपरेशन था और हम जितने ऑपरेशन अपने साथ गुजरते देख चुके थे, उस हिसाब से हमें भी यह जरा सा ऑपरेशन मालूम हो रहा था. आराम से चलकर ऑपरेशन वाली टेबल पर लेट गए. रवि से उसी तरह अनौपचारिक बातें चलती रह रही थीं.


उँगली में ही लोकल एनेस्थेसिया देने के बाद उसका और उसके सहयोगियों का काम शुरू हो गया. पहले की तरह आँखों, चेहरे को किसी भी तरह की बंदिश से मुक्त रखा गया सो हम भी सहजता से वार्तालाप में शामिल हो रहे थे. ऑपरेशन के पहले रवि से कई बार इस बारे में चर्चा हुई थी कि उँगली का कितना हिस्सा निकाला जायेगा. ऑपरेशन थियेटर में भी उस दौरान हमने उससे पूछा कि कितनी उँगली काट दी?


बैठ कर देख लो, कितनी काटी है. रवि ने हँसते हुए कहा.

हमें लगा कि वह मजाक में ऐसा न कह रहा हो तो हमने पूछा बैठ जाएँ?

हाँ, बैठ जाओ और देखकर बताओ और काटें या इतनी ही? उसके ऐसा कहते ही हम बैठ गए.


पहली नजर में न उँगली समझ आई और न ही पंजा समझ आया. पूरे पंजे को कपड़े से ढांक रखा था. उँगली खून से सनी लाल दिखाई दे रही थी और चारों तरफ रुई के फाहों की जकड़ में थी.

अबे जरा साफ़ करके तो दिखाओ, तब तो समझ आए कि तुमने कितनी काट डाली. हमारे ऐसा कहते ही रवि के एक सहायक ने ऊँगली साफ़ की तो साफ़-साफ़ दिखाई देने लगा कि कितना हिस्सा काटा गया है.


हाँ, ठीक है. बाकी तुम भी देख-समझ लो. हमें चलने में, खड़े होने में समस्या न हो, बस.

हमने तो अपने हिसाब से काट ही दी है. तुम भी समझ लो. कहो तो और काट दें? हँसी के साथ रवि की इस बात पर हम सभी हँस पड़े.


वे सब फिर अपने काम में लग गए और हम बैठे-बैठे उनको उँगली के साथ खेलते देखने लगे. लोकल एनेस्थेसिया के कारण उँगली में कोई एहसास भी नहीं था सो न कोई दर्द मालूम हो रहा था, न ही कुछ महसूस हो रहा था. हमें बैठे देख रवि ने लेटने को कहा तो हमने कहा कि टाँके लगते भी देख लें. जरा सुन्दरता से लगाना, कहीं उँगली की खूबसूरती न बिगाड़ दो.


बिना कुछ कहे वे लोग अपने काम में फिर जुट गए. उस दिन पहली बार टाँके लगते देखे. जीवन में बहुत बार चोट से, मरहम-पट्टी करवाने से, लोगों की घायल हो जाने पर मदद करने का मौका मिला था मगर कभी ऐसा अवसर नहीं आया था कि किसी को टाँके लगवाने पड़े हों. टाँके लग जाने के बाद हम और रवि आपस में बातें करने लगे, उसके सहायक पैर में पट्टी बाँधने में जुट गए. सारा काम हो जाने के बाद एक आशा थी कि शायद अब दाहिने पंजे को कुछ राहत मिल सके. ऑपरेशन थियेटर से बाहर आकर आगे के कुछ दिनों की दवाई, मरहम-पट्टी के बारे में सलाह लेकर घर आ गए.


निश्चित समय के बाद टाँके खोले गए. उँगली जैसी सोची थी, उसी स्थिति में आ गई मगर दर्द न गया. उँगली के काट दिए जाने के बाद से उसकी तरफ से कोई समस्या नहीं हो रही थी मगर शेष तीन उँगलियों और पंजे की अपनी समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई थी. बची हुई तीन उँगलियाँ रक्त-प्रवाह सिर्फ नीचे की तरफ से था, ऊपर की तरफ से वे सभी अनुभूति-शून्य थीं. इसके अलावा उनमें किसी तरह की गतिविधि स्वयं नहीं होती थी, इस कारण वे तीनों भी धीरे-धीरे नीचे की तरफ मुड़ने लगीं. उनका भी एकमात्र निदान कटवाना समझ आ रहा है. हाल-फ़िलहाल तो इस पर भी कई बार रवि से चर्चा हुई है मगर अभी अंतिम निष्कर्ष नहीं निकला है. देखिये, क्या होता है.

  

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

44 - इंतजार, इंतजार और बस इंतजार

कुछ समय की मेहनत, कोशिश के बाद रोजमर्रा के काम कुछ हद तक करने सम्भव हो गए थे. जो कृत्रिम पैर शरीर का हिस्सा न था उसे स्वीकार कर लिया था मगर अभी उसके साथ सही से तालमेल नहीं बैठ सका था. बहुत बार ऐसा होता कि कृत्रिम पैर के जिस हिस्से में जाँघ का हिस्सा फँसता था वहाँ की त्वचा गरमी, पसीने से कट जाया करती. उसे बाँधने वाली स्थिति ऐसी होती थी कि सभी जगहों पर कृत्रिम पैर को खोल कर सही भी नहीं कर सकते थे. जलन मचती, दर्द भी होता मगर चलना पड़ता था. कई बार बहुत तेज खुजली मचने लगती, गरम हो जाने के कारण बहुत छटपटाहट होती मगर सबकुछ अपने भीतर दफ़न करते हुए काम करते रहना पड़ता.


एलिम्को में चलने के अभ्यास के दौरान कृत्रिम पैर को उसमें लगे लॉक को खोलकर चलना पड़ता था. वहाँ से निर्देशित भी किया गया था कि लॉक खोलकर ही चला जाए. ऐसा करने से कृत्रिम पैर घुटने से असली पैर की तरह ही मुड़ता था, आगे-पीछे मुड़ता था. लॉक खोलकर चलने से कृत्रिम पैर भी सही पैर के जैसे आगे-पीछे होता था जिससे उसके कृत्रिम होने का आभास एकदम से नहीं होता था. शुरूआती दौर में हमने भी ऐसे चलने का प्रयास किया. सीधी-सपाट जगह पर तो ऐसे चलना बहुत आसान होता मगर जहाँ ऊबड़-खाबड़ जगह होती, वहाँ इस तरह चलना कठिन हो जाता. ऐसे में यदि कृत्रिम पैर के पंजे से किसी भी तरह की चीज टकरा जाए तो पैर मुड़ जाता और उस पर अपना कोई नियंत्रण न होने के कारण एकमात्र काम हमारा जमीन पर गिरना ही होता. ऐसा कई बार हुआ सो निष्कर्ष निकाला कि किसी को ये दिखाने का कोई मतलब नहीं कि हमारा कृत्रिम पैर असली पैर की तरह मुड़ता है, कृत्रिम पैर का लॉक लगाकर ही हमने चलना शुरू किया. इससे कृत्रिम पैर एकदम सीधा बना रहता. चलने में भी अब ज्यादा मेहनत करनी पड़ती मगर ये निश्चित हो गया था कि अब गिरना नहीं होगा.




दाहिने पंजे की टूटी हुई छोटी-छोटी हड्डियाँ, जो सही से जुड़ न सकी थीं, वे संभवतः एक-एक करके पंजे से बाहर निकल चुकी थीं. ऐसा इसलिए कहा जा सकता था क्योंकि अब काफी समय से दाहिने पंजे से छोटी-छोटी हड्डियों का खाल काट कर निकलना बंद हो चुका था. तमाम सारी चिंताओं के बीच अब दाहिने पंजे की इस समस्या से हम चिंतामुक्त होते जा रहे थे. अपने दोनों पैरों की तरफ से चिंतामुक्त होने की कल्पना स्वयं हमने ही कर रखी थी, पैरों ने अभी हमको इससे मुक्त नहीं किया था. ऐसा लगता था जैसे इन दो पैरों ने ही हमको अपने काम पर लगा रखा है. कभी कोई दिक्कत, कभी कोई समस्या, कभी एक समस्या का निदान कर पाते तो दूसरी उठ खड़ी होती, कभी दाहिने पैर से निपटते तो बायाँ पैर अपनी दिक्कत लेकर चीख मारने लगता.


समय के साथ कृत्रिम पैर जितनी सहजता से अपना काम करता जा रहा था, दाहिना पंजा उतनी ही मुश्किल पैदा कर रहा था. कृत्रिम पैर तो ऐसे लगने लगा था जैसे कि वह हमारे शरीर का ही हिस्सा हो. कभी-कभी की छोटी-छोटी समस्याओं को छोड़ दें तो उसकी तरफ से समस्या नहीं आ रही थी मगर दाहिना पंजा जैसे कष्ट देने पर ही आतुर था. जैसे-तैसे पंजे की छोटी-छोटी हड्डियों के निकलने की समस्या से मुक्ति मिली तो अब उँगलियों ने दिक्कत करना शुरू कर दिया.


जैसा कि पहले भी बताया था कि दाहिने पंजे में ऊपर की तरफ से किसी भी तरह का सेंसेशन नहीं है, किसी भी तरह का एहसास नहीं है. ऊपर की तरफ से आने वाली सभी नसें पंजे के मोड़ तक ही हैं, हाँ, नीचे से कुछ एहसास है, संवेदना है. ऐसी स्थिति के चलते दाहिने पंजे की चारों उँगलियों में किसी तरह की हरकत अपने आप नहीं होती थी. उँगलियों की नियमित रूप से कसरत करवाई जाती थी, जिससे कि वे नीचे की तरफ न मुड़ें. तमाम कोशिशों के बाद भी उँगलियों ने अपना नीचे की तरफ मुड़ना न छोड़ा. इसमें भी कट चुके अँगूठे के ठीक बगल वाली उँगली कुछ ज्यादा ही रफ़्तार पकड़े थी. ऐसा लग रहा था जैसे उसे बहुत जल्दी है मुड़कर तलवे से मिलने की.


उँगलियों की इस स्थिति के कारण अब चलने में, खड़े होने में समस्या आने लगी. अब जूता पहनने के पहले उँगलियों को ऊपर की तरफ खींच कर उनके नीचे कपड़ा, रुई आदि लगाया जाता ताकि उँगलियाँ जूते की सतह से न छू सकें. यह स्थिति भी क्षणिक आराम देती. यदि उँगलियों के नीचे किसी तरह का आधार न बनाएँ तो उँगलियाँ जूते की सतह से टकराते हुए दर्द पैदा करतीं और यदि उनके नीचे कपड़े-रुई आदि का आधार बना दें तो खिंचाव के कारण उनमें दर्द होने लगता. हमारे लिए कोई भी स्थिति सुखद नहीं थी.


जब समस्या असहनीय हो गई, दर्द से लड़ते-लड़ते लगा कि हार जायेंगे तो सबसे ज्यादा दिक्कत देने वाली उँगली को कटवाने का विचार बनाया. दोस्त रवि से इस बारे में चर्चा की. उसने पूरे पंजे की स्थिति फिर देखी, उँगलियों का एक्सरे करवाया, उसके हिसाब से उनकी स्थितियों को देखा-परखा और एक उँगली को निकालने पर अपनी सहमति दे दी.


अब इंतजार था सही समय का, एक ऑपरेशन का, उँगली के दाहिने पंजे से अलग होने का. इस इंतजार के साथ आशा तो यह भी थी कि शायद अब दाहिने पंजे का दर्द सही हो जाए, शायद चलने के दौरान होने वाली समस्या से मुक्ति मिल जाए. शायद....???


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

43 - संघर्ष के पलों से निकली ख़ुशी का नाम ही ज़िन्दगी है

ऐसा कहा जाता है कि हमारे कार्यों के अनुसार ही हमें फल प्राप्त होता है. ऐसा भी कहा जाता है कि इस जन्म में व्यक्ति के साथ जो कुछ भी हो रहा है उसमें बहुत कुछ पूर्व जन्म में किये गए कार्यों का प्रतिफल होता है. ऐसी बातों पर कभी विश्वास नहीं किया और न ही महत्त्व दिया. हमारा मानना है कि व्यक्ति को पूरी ईमानदारी के साथ कार्य करते रहना चाहिए. समाज के प्रति, परिवार के प्रति जो दायित्व हैं उनका निर्वहन करते रहना चाहिए. इस जन्म के कार्यों का प्रतिफल इसी जन्म में मिल जाता है और उसी को हम लोग सफलता या असफलता से जोड़कर देख सकते हैं. किसी जन्म में किये गए कार्यों का परिणाम भुगतने के लिए फिर जन्म लेना पड़े या कई जन्मों तक जीवन-मरण जैसी स्थिति से गुजरना पड़े तो फिर कार्यों का हिसाब समझ से परे है.


बहरहाल, आज किसी तरह की दार्शनिक स्थिति को सामने लाने का मन नहीं है और न ही विचार है. आए दिन हमारी दुर्घटना को लेकर जो बातें सामने आती रहतीं हैं उनके कारण उक्त विचार इसलिए मन में आते रहते हैं. इतनी बड़ी दुर्घटना, जबकि हम ट्रेन के नीचे ही चले गए थे, पटरियों पर गिर पड़े थे, ट्रेन ऊपर से गुजर रही थी, एक पैर स्टेशन पर ही कट कर अलग हो गया था, लगभग तीन घंटे के अन्तराल के बाद मेडिकल सुविधा मिल पाने के बाद, बहुत सारा खून बह जाने के बाद भी आज हम आप सभी के बीच हैं तो लगभग हर मिलने वाला कहता है कि ये पूर्वजन्म में, इस जन्म में किये गए अच्छे कार्यों का सुफल है. बहुत से लोगों का कहना है कि यह बड़ों के आशीर्वाद का प्रतिफल है, किसी का कहना होता है कि बेटी के भाग्य से, पत्नी के भाग्य से हमें फिर से जीवन मिला है.


ऐसी बहुत सी बातों को सुनने के बाद समझ नहीं आता है कि इस दुर्घटना के बाद अपने बच जाने को अपने अच्छे कार्यों का सुफल कहा जाए या फिर इसी दुर्घटना में एक पैर के कट जाने और दूसरे पैर के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने को अपने बुरे कार्यों का प्रतिफल कहा जाए? बहुत कोशिश के बाद भी दिमाग से दुर्घटना जाती नहीं और जा भी नहीं सकती क्योंकि चौबीस घंटे ही, सोते-जागते अपनी शारीरिक स्थिति को देखते हैं. दुर्घटना के पहले के पल याद आते हैं, अब दुर्घटना के बाद की कष्टप्रद स्थिति दिखाई देती है. न भुला सकने वाली स्थिति के बाद भी खुद को इस मकड़जाल में फँसने नहीं देते हैं. कोशिश यही रहती है कि इस शारीरिक स्थिति को दरकिनार करते हुए अपने कार्यों को नियमित रूप से संचालित करते रहें.




एक पल को यदि मान लिया जाये कि अच्छे कार्यों के प्रतिफल में नया जीवन मिल गया है. लोगों के भाग्य और आशीर्वाद से ज़िन्दगी फिर हमारे साथ है मगर इसी के साथ लगता है कि इन अच्छे कार्यों के सापेक्ष बुरे काम भी बहुत सारे रहे होंगे? ऐसा विचार इसलिए भी आता है क्योंकि सुखद प्रतिफल में जीवन मिला तो दुखद प्रतिफल में बहुत सारा कष्ट मिला वो भी ज़िन्दगी भर के लिए. लगता कि यदि शारीरिक कष्ट के द्वारा ही प्रतिफल मिलना था तो इतना बुरा क्यों? पैर कटना ही नियति थी तो फिर वह घुटने के नीचे क्यों नहीं कटा? यदि घुटने के ऊपर कटना कार्यों का प्रतिफल है तो फिर दूसरे पैर को क्षतिग्रस्त क्यों? यदि ऐसा होना भी कार्यों का प्रतिफल है तो फिर उसमें बराबर दर्द का बने रहना क्यों? यदि यह भी बुरे कामों का परिणाम है तो फिर ये जीवन क्यों?


यही सवाल हैं जो हमें खुद में लड़ने की प्रेरणा देते हैं, खुद से लड़ने की शक्ति देते हैं. ऐसे ही बहुत सारे सवालों ने हमें बचपन से ही भाग्य, जन्मों के चक्र आदि पर विश्वास न करने की ताकत दी है. हो सकता है कि ऐसा कुछ होता हो मगर उसके ऊपर भी कर्म अधिक महत्त्वपूर्ण है. हमारा अपना मानना है कि ज़िन्दगी मिली है तो उसके साथ मिली अनिश्चितता के कारण अपेक्षित-अनपेक्षित परिणाम भी साथ में मिलेंगे. देखा जाये तो ज़िन्दगी किसी आयु का नाम नहीं बल्कि हर एक पल को जीने का अंदाज़ ही ज़िन्दगी है. यह हम पर निर्भर करता है कि हम किस तरह वर्तमान पल को गुजारते हैं, जाने वाले पल को किस तरह याद रखते हैं और आने वाले पल का किस तरह से स्वागत करते हैं.


ज़िन्दगी संघर्ष का नाम है तो उस संघर्ष के पलों से निकली ख़ुशी को, सफलता को स्वीकारने का, उसका आनंद लेने का नाम है. ज़िन्दगी यदि कष्टों को लेकर आती है तो अपने साथ खुशियों का खजाना भी छिपाए रहती है. जिस तरह प्रकृति में दिन और रात का समन्वय, संतुलन स्थापित है ठीक उसी तरह ज़िन्दगी में भी सुखों का, दुखों का क्रम है, उनका संतुलन है, समन्वय है. जो इस साम्य के साथ अपना संतुलन बिठा ले जाता है, उसके लिए ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद ही होती है.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

42 - सम्भव और असम्भव से उपजे विश्वास की जीत

पैर लगने के बाद के कुछ महीने तो उसके साथ अपना सामंजस्य बनाने में निकले. चलने, बैठने, खड़े होने का अभ्यास निरंतर चलता रहा. कभी सहजता मालूम पड़ती तो किसी दिन बहुत समस्या मालूम पड़ती. पैर को सहारा देने के लिए कमर से बाँधने वाली चमड़े की बेल्ट के अपने कष्ट थे. गरमी के दिनों में जबरदस्त पसीने के कारण बेल्ट देह से चिपक जाती और जरा सा भी इधर-उधर घूमने पर कमर की खाल अपने संग चिपका कर बाहर निकाल लेती. बाँयी जाँघ का भी कुछ इसी तरह का हाल था.


इन सबके बीच वे सारे काम करने का प्रयास रहता था जो दुर्घटना के पहले करते थे. कुछ काम आसानी से होने लगे और कुछ में दिक्कत हुई. कुछ काम ऐसे थे जो किये ही न जा सके और शायद आगे उनका करना संभव भी नहीं लगता. इसमें एक काम दौड़ने का है. बहुत कोशिश की दौड़ने की. खुले मैदान में प्रयास किया तो बंद कमरे में कोशिश की, इस चक्कर में कई बार गिरे भी. अंततः दिल-दिमाग ने मान लिया कि अब दौड़ लगाना संभव नहीं. हाँ, कृत्रिम पैर के साथ जितनी अधिक तेजी से चलना संभव हो सकता था, उस गति को अवश्य प्राप्त कर लिए था. ऐसे ही न कर पाने  वाले कामों में एक काम बाइक चलाना भी रहा. दो-तीन बार के प्रयासों के बाद सफलता नहीं मिली. वैसे भी यदि बाइक चलाना होता भी तो किसी न किसी की सहायता से क्योंकि कृत्रिम पैर के द्वारा बाइक को सँभाल पाना आसान नहीं था.



बहुत सारे कामों को करने और बहुत से कामों को न कर पाने के बीच एक दिन कार चलाने का मौका मिला. उसके पहले कई बार विचार आता था कि जिस तरह बाइक नहीं चला पा रहे अथवा बाइक चलाने में असमर्थ रहे क्या ऐसा ही कार चलाने में होगा? उस दिन कॉलेज के राष्ट्रीय सेवा योजना शिविर में सहभागिता की जा रही थी. कमरे में सारे विद्यार्थी बैठे हुए थे. अतिथियों के, प्रबुद्धजनों के व्याख्यान चल रहे थे. उसी में गर्मी के कारण कुछ असहजता सी महसूस हो रही थी तो हम बाहर निकल आए.


एनएसएस शिविर में हमारा जाना डीवी कॉलेज, उरई के तत्कालीन विभागाध्यक्ष, राजनीतिविज्ञान डॉ० आदित्य कुमार जी के साथ हुआ था. आदित्य अंकल का स्नेह, आशीर्वाद, सहयोग एक अभिभावक की तरह सदैव हमें मिलता रहा है. बाहर बैठने की कोई जगह न देखकर हमें अंकल की कार में बैठना उचित लगा. उनसे कार की चाभी लेकर ड्राइविंग सीट के बगल की सीट पर आकर आराम से पसर गए. कुछ देर बैठने के बाद मन में आया कि एक बार चलाने का प्रयास किया जाए. अपनी दुर्घटना के पहले तक उस कार को खूब चलाया भी था, सो वह बहुत अपनी सी लगती थी. इसलिए उसे चलाने को लेकर डर या संशय मन में उठा भी नहीं.


बस, दिमाग में कार चलाने का विचार आते ही अगले पल ड्राइविंग सीट पर बैठ गए. कार स्टार्ट करने के पहले कृत्रिम पैर से क्लच सञ्चालन को आजमा कर देखा. चूँकि बाएँ पैर (कृत्रिम) का उपयोग क्लच के लिए किया जाना था और कार के गियर बदलने, सही ढंग से चलने के लिए आवश्यक था कि क्लच सही से अपना काम करे. एक-दो बार की कोशिश के बाद लगा कि कार चलाने में कोई दिक्कत नहीं आएगी. उसके बाद हिम्मत करके चाभी घुमाई, कार स्टार्ट, गियर लगाकर क्लच को धीरे-धीरे छोड़ते हुए कार को गति देने का काम किया. क्लच के उचित सञ्चालन हेतु कृत्रिम पैर के घुटने वाली जगह पर जोर लगाकर उसे सहजता से वापस आने देते. यह काफी मुश्किल था मगर दो-चार बार के अभ्यास से काम बन गया. वहाँ उस बड़े से मैदान के दो चक्कर लगाने के बाद विश्वास हो गया कि कार आसानी से चलाई जा सकती है. मन प्रसन्नता से झूम रहा था और अब इंतजार था कि कार्यक्रम की समाप्ति के बाद अंकल से अनुमति लेकर सड़क पर कार दौड़ाई जाए.


अंकल का आना हुआ और हमने अपना आवेदन उनके सामने रख दिया. उन्होंने बस इतना पूछा कि चला लोगे? नहीं चला पाएँगे तो आप हैं ही. हमारे इतना कहते ही अंकल हँसते हुए बगल की सीट पर आकर बैठ गए. अब कार की स्टेयरिंग हमारे हाथ थी. अबकी कार मैदान के बजाय सड़क पर दौड़ रही थी. बाजार की भीड़-भाड़ शुरू होने के पहले हमने अंकल को कार थमानी चाही तो उन्होंने हमारे विश्वास से अधिक विश्वास जताते हुए हमें ही कार चलाते हुए बाजार चलने को कहा.


स्नेहिल विश्वास भरे आशीर्वाद के मिलते ही कार ने उस दिन जो रफ़्तार पकड़ी वह अभी तक बनी हुई है. उसके बाद तो एक रिकॉर्ड ही बन गया. आदित्य अंकल के साथ कार से कहीं भी जाना हुआ हो, चाहे उरई में या फिर उरई के बाहर कार की स्टेयरिंग हमारे हाथ ही रही.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

48 - हवा में उड़ता जाए मेरा दीवाना दिल

स्कूटर के आने के बाद शुरू के कुछ दिन तो उसे चलाना सीखने में निकले. पहले दिन ही अपने घर से सड़क तक की गली को पार करने में ही लगभग पंद्रह मिनट ...