44 - इंतजार, इंतजार और बस इंतजार

कुछ समय की मेहनत, कोशिश के बाद रोजमर्रा के काम कुछ हद तक करने सम्भव हो गए थे. जो कृत्रिम पैर शरीर का हिस्सा न था उसे स्वीकार कर लिया था मगर अभी उसके साथ सही से तालमेल नहीं बैठ सका था. बहुत बार ऐसा होता कि कृत्रिम पैर के जिस हिस्से में जाँघ का हिस्सा फँसता था वहाँ की त्वचा गरमी, पसीने से कट जाया करती. उसे बाँधने वाली स्थिति ऐसी होती थी कि सभी जगहों पर कृत्रिम पैर को खोल कर सही भी नहीं कर सकते थे. जलन मचती, दर्द भी होता मगर चलना पड़ता था. कई बार बहुत तेज खुजली मचने लगती, गरम हो जाने के कारण बहुत छटपटाहट होती मगर सबकुछ अपने भीतर दफ़न करते हुए काम करते रहना पड़ता.


एलिम्को में चलने के अभ्यास के दौरान कृत्रिम पैर को उसमें लगे लॉक को खोलकर चलना पड़ता था. वहाँ से निर्देशित भी किया गया था कि लॉक खोलकर ही चला जाए. ऐसा करने से कृत्रिम पैर घुटने से असली पैर की तरह ही मुड़ता था, आगे-पीछे मुड़ता था. लॉक खोलकर चलने से कृत्रिम पैर भी सही पैर के जैसे आगे-पीछे होता था जिससे उसके कृत्रिम होने का आभास एकदम से नहीं होता था. शुरूआती दौर में हमने भी ऐसे चलने का प्रयास किया. सीधी-सपाट जगह पर तो ऐसे चलना बहुत आसान होता मगर जहाँ ऊबड़-खाबड़ जगह होती, वहाँ इस तरह चलना कठिन हो जाता. ऐसे में यदि कृत्रिम पैर के पंजे से किसी भी तरह की चीज टकरा जाए तो पैर मुड़ जाता और उस पर अपना कोई नियंत्रण न होने के कारण एकमात्र काम हमारा जमीन पर गिरना ही होता. ऐसा कई बार हुआ सो निष्कर्ष निकाला कि किसी को ये दिखाने का कोई मतलब नहीं कि हमारा कृत्रिम पैर असली पैर की तरह मुड़ता है, कृत्रिम पैर का लॉक लगाकर ही हमने चलना शुरू किया. इससे कृत्रिम पैर एकदम सीधा बना रहता. चलने में भी अब ज्यादा मेहनत करनी पड़ती मगर ये निश्चित हो गया था कि अब गिरना नहीं होगा.




दाहिने पंजे की टूटी हुई छोटी-छोटी हड्डियाँ, जो सही से जुड़ न सकी थीं, वे संभवतः एक-एक करके पंजे से बाहर निकल चुकी थीं. ऐसा इसलिए कहा जा सकता था क्योंकि अब काफी समय से दाहिने पंजे से छोटी-छोटी हड्डियों का खाल काट कर निकलना बंद हो चुका था. तमाम सारी चिंताओं के बीच अब दाहिने पंजे की इस समस्या से हम चिंतामुक्त होते जा रहे थे. अपने दोनों पैरों की तरफ से चिंतामुक्त होने की कल्पना स्वयं हमने ही कर रखी थी, पैरों ने अभी हमको इससे मुक्त नहीं किया था. ऐसा लगता था जैसे इन दो पैरों ने ही हमको अपने काम पर लगा रखा है. कभी कोई दिक्कत, कभी कोई समस्या, कभी एक समस्या का निदान कर पाते तो दूसरी उठ खड़ी होती, कभी दाहिने पैर से निपटते तो बायाँ पैर अपनी दिक्कत लेकर चीख मारने लगता.


समय के साथ कृत्रिम पैर जितनी सहजता से अपना काम करता जा रहा था, दाहिना पंजा उतनी ही मुश्किल पैदा कर रहा था. कृत्रिम पैर तो ऐसे लगने लगा था जैसे कि वह हमारे शरीर का ही हिस्सा हो. कभी-कभी की छोटी-छोटी समस्याओं को छोड़ दें तो उसकी तरफ से समस्या नहीं आ रही थी मगर दाहिना पंजा जैसे कष्ट देने पर ही आतुर था. जैसे-तैसे पंजे की छोटी-छोटी हड्डियों के निकलने की समस्या से मुक्ति मिली तो अब उँगलियों ने दिक्कत करना शुरू कर दिया.


जैसा कि पहले भी बताया था कि दाहिने पंजे में ऊपर की तरफ से किसी भी तरह का सेंसेशन नहीं है, किसी भी तरह का एहसास नहीं है. ऊपर की तरफ से आने वाली सभी नसें पंजे के मोड़ तक ही हैं, हाँ, नीचे से कुछ एहसास है, संवेदना है. ऐसी स्थिति के चलते दाहिने पंजे की चारों उँगलियों में किसी तरह की हरकत अपने आप नहीं होती थी. उँगलियों की नियमित रूप से कसरत करवाई जाती थी, जिससे कि वे नीचे की तरफ न मुड़ें. तमाम कोशिशों के बाद भी उँगलियों ने अपना नीचे की तरफ मुड़ना न छोड़ा. इसमें भी कट चुके अँगूठे के ठीक बगल वाली उँगली कुछ ज्यादा ही रफ़्तार पकड़े थी. ऐसा लग रहा था जैसे उसे बहुत जल्दी है मुड़कर तलवे से मिलने की.


उँगलियों की इस स्थिति के कारण अब चलने में, खड़े होने में समस्या आने लगी. अब जूता पहनने के पहले उँगलियों को ऊपर की तरफ खींच कर उनके नीचे कपड़ा, रुई आदि लगाया जाता ताकि उँगलियाँ जूते की सतह से न छू सकें. यह स्थिति भी क्षणिक आराम देती. यदि उँगलियों के नीचे किसी तरह का आधार न बनाएँ तो उँगलियाँ जूते की सतह से टकराते हुए दर्द पैदा करतीं और यदि उनके नीचे कपड़े-रुई आदि का आधार बना दें तो खिंचाव के कारण उनमें दर्द होने लगता. हमारे लिए कोई भी स्थिति सुखद नहीं थी.


जब समस्या असहनीय हो गई, दर्द से लड़ते-लड़ते लगा कि हार जायेंगे तो सबसे ज्यादा दिक्कत देने वाली उँगली को कटवाने का विचार बनाया. दोस्त रवि से इस बारे में चर्चा की. उसने पूरे पंजे की स्थिति फिर देखी, उँगलियों का एक्सरे करवाया, उसके हिसाब से उनकी स्थितियों को देखा-परखा और एक उँगली को निकालने पर अपनी सहमति दे दी.


अब इंतजार था सही समय का, एक ऑपरेशन का, उँगली के दाहिने पंजे से अलग होने का. इस इंतजार के साथ आशा तो यह भी थी कि शायद अब दाहिने पंजे का दर्द सही हो जाए, शायद चलने के दौरान होने वाली समस्या से मुक्ति मिल जाए. शायद....???


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

43 - संघर्ष के पलों से निकली ख़ुशी का नाम ही ज़िन्दगी है

ऐसा कहा जाता है कि हमारे कार्यों के अनुसार ही हमें फल प्राप्त होता है. ऐसा भी कहा जाता है कि इस जन्म में व्यक्ति के साथ जो कुछ भी हो रहा है उसमें बहुत कुछ पूर्व जन्म में किये गए कार्यों का प्रतिफल होता है. ऐसी बातों पर कभी विश्वास नहीं किया और न ही महत्त्व दिया. हमारा मानना है कि व्यक्ति को पूरी ईमानदारी के साथ कार्य करते रहना चाहिए. समाज के प्रति, परिवार के प्रति जो दायित्व हैं उनका निर्वहन करते रहना चाहिए. इस जन्म के कार्यों का प्रतिफल इसी जन्म में मिल जाता है और उसी को हम लोग सफलता या असफलता से जोड़कर देख सकते हैं. किसी जन्म में किये गए कार्यों का परिणाम भुगतने के लिए फिर जन्म लेना पड़े या कई जन्मों तक जीवन-मरण जैसी स्थिति से गुजरना पड़े तो फिर कार्यों का हिसाब समझ से परे है.


बहरहाल, आज किसी तरह की दार्शनिक स्थिति को सामने लाने का मन नहीं है और न ही विचार है. आए दिन हमारी दुर्घटना को लेकर जो बातें सामने आती रहतीं हैं उनके कारण उक्त विचार इसलिए मन में आते रहते हैं. इतनी बड़ी दुर्घटना, जबकि हम ट्रेन के नीचे ही चले गए थे, पटरियों पर गिर पड़े थे, ट्रेन ऊपर से गुजर रही थी, एक पैर स्टेशन पर ही कट कर अलग हो गया था, लगभग तीन घंटे के अन्तराल के बाद मेडिकल सुविधा मिल पाने के बाद, बहुत सारा खून बह जाने के बाद भी आज हम आप सभी के बीच हैं तो लगभग हर मिलने वाला कहता है कि ये पूर्वजन्म में, इस जन्म में किये गए अच्छे कार्यों का सुफल है. बहुत से लोगों का कहना है कि यह बड़ों के आशीर्वाद का प्रतिफल है, किसी का कहना होता है कि बेटी के भाग्य से, पत्नी के भाग्य से हमें फिर से जीवन मिला है.


ऐसी बहुत सी बातों को सुनने के बाद समझ नहीं आता है कि इस दुर्घटना के बाद अपने बच जाने को अपने अच्छे कार्यों का सुफल कहा जाए या फिर इसी दुर्घटना में एक पैर के कट जाने और दूसरे पैर के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने को अपने बुरे कार्यों का प्रतिफल कहा जाए? बहुत कोशिश के बाद भी दिमाग से दुर्घटना जाती नहीं और जा भी नहीं सकती क्योंकि चौबीस घंटे ही, सोते-जागते अपनी शारीरिक स्थिति को देखते हैं. दुर्घटना के पहले के पल याद आते हैं, अब दुर्घटना के बाद की कष्टप्रद स्थिति दिखाई देती है. न भुला सकने वाली स्थिति के बाद भी खुद को इस मकड़जाल में फँसने नहीं देते हैं. कोशिश यही रहती है कि इस शारीरिक स्थिति को दरकिनार करते हुए अपने कार्यों को नियमित रूप से संचालित करते रहें.




एक पल को यदि मान लिया जाये कि अच्छे कार्यों के प्रतिफल में नया जीवन मिल गया है. लोगों के भाग्य और आशीर्वाद से ज़िन्दगी फिर हमारे साथ है मगर इसी के साथ लगता है कि इन अच्छे कार्यों के सापेक्ष बुरे काम भी बहुत सारे रहे होंगे? ऐसा विचार इसलिए भी आता है क्योंकि सुखद प्रतिफल में जीवन मिला तो दुखद प्रतिफल में बहुत सारा कष्ट मिला वो भी ज़िन्दगी भर के लिए. लगता कि यदि शारीरिक कष्ट के द्वारा ही प्रतिफल मिलना था तो इतना बुरा क्यों? पैर कटना ही नियति थी तो फिर वह घुटने के नीचे क्यों नहीं कटा? यदि घुटने के ऊपर कटना कार्यों का प्रतिफल है तो फिर दूसरे पैर को क्षतिग्रस्त क्यों? यदि ऐसा होना भी कार्यों का प्रतिफल है तो फिर उसमें बराबर दर्द का बने रहना क्यों? यदि यह भी बुरे कामों का परिणाम है तो फिर ये जीवन क्यों?


यही सवाल हैं जो हमें खुद में लड़ने की प्रेरणा देते हैं, खुद से लड़ने की शक्ति देते हैं. ऐसे ही बहुत सारे सवालों ने हमें बचपन से ही भाग्य, जन्मों के चक्र आदि पर विश्वास न करने की ताकत दी है. हो सकता है कि ऐसा कुछ होता हो मगर उसके ऊपर भी कर्म अधिक महत्त्वपूर्ण है. हमारा अपना मानना है कि ज़िन्दगी मिली है तो उसके साथ मिली अनिश्चितता के कारण अपेक्षित-अनपेक्षित परिणाम भी साथ में मिलेंगे. देखा जाये तो ज़िन्दगी किसी आयु का नाम नहीं बल्कि हर एक पल को जीने का अंदाज़ ही ज़िन्दगी है. यह हम पर निर्भर करता है कि हम किस तरह वर्तमान पल को गुजारते हैं, जाने वाले पल को किस तरह याद रखते हैं और आने वाले पल का किस तरह से स्वागत करते हैं.


ज़िन्दगी संघर्ष का नाम है तो उस संघर्ष के पलों से निकली ख़ुशी को, सफलता को स्वीकारने का, उसका आनंद लेने का नाम है. ज़िन्दगी यदि कष्टों को लेकर आती है तो अपने साथ खुशियों का खजाना भी छिपाए रहती है. जिस तरह प्रकृति में दिन और रात का समन्वय, संतुलन स्थापित है ठीक उसी तरह ज़िन्दगी में भी सुखों का, दुखों का क्रम है, उनका संतुलन है, समन्वय है. जो इस साम्य के साथ अपना संतुलन बिठा ले जाता है, उसके लिए ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद ही होती है.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

48 - हवा में उड़ता जाए मेरा दीवाना दिल

स्कूटर के आने के बाद शुरू के कुछ दिन तो उसे चलाना सीखने में निकले. पहले दिन ही अपने घर से सड़क तक की गली को पार करने में ही लगभग पंद्रह मिनट ...