46 - चेहरे पर भावनात्मक ख़ुशी और आँखों में नमी

सामाजिक जीवन में जो भागदौड़ बनी हुई थी, उसमें उन्हीं दिनों थोड़ा सा अवरोध रहा जबकि हम बिना कृत्रिम पैर के रहे. यद्यपि उस दौरान भी कुछ सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा एक पारिवारिक विवाह संस्कार में भी शामिल हुए तथापि उसमें सीमितता बनी रही. खुद में किसी तरह का अक्षम होने जैसा बोध कभी पनपने नहीं दिया, इस कारण से किसी कार्यक्रम में शामिल होने में झिझक महसूस नहीं होती थी. इसके बाद भी साथ के लोगों की तत्परता, उनकी सजगता देखकर कई बार लगता कि अपनी सामाजिकता के लिए अपने भाई को, दोस्तों को परेशान कर रहे हैं.


चूँकि जब पैर नहीं लगा था उस समय कहीं आने जाने के लिए बाइक का, कार का उपयोग किया जाता, इसमें भी बाइक का ही ज्यादातर इस्तेमाल किया जाता. कॉलेज आने-जाने में, कार्यक्रमों में सहभागिता करने के दौरान बाइक से चलने के दौरान बाइक चालक के साथ-साथ एक और व्यक्ति की आवश्यकता होती, जो पीछे से हमें सहारा दिए रहता था. बिना उसके हमें अपना संतुलन बनाना कठिन होता था. वर्ष 2006 मार्च-अप्रैल में कृत्रिम पैर लग जाने के बाद पीछे बैठ कर सहारा देने वाले व्यक्ति की आवश्यकता महसूस नहीं हुई मगर आवागमन के लिए किसी न किसी की आवश्यकता महसूस होती थी. पैर के दर्द और कृत्रिम पैर के साथ नया-नया जुड़ाव होने के कारण बहुत देर तक, बहुत दूर तक पैदल चलना नहीं हो पाता था. इसके अलावा हमारा बाइक चलाना, स्कूटर चलाना, साइकिल चलाना भी संभव नहीं लग रहा था. बाइक चलाने का असफल प्रयास हमारे द्वारा किया जा चुका था, इससे भी अपनी क्षमता का आकलन करने में आसानी हो गई थी.




ये हमारी खुशकिस्मती है कि हमारे सभी छोटे भाई हमारे साथ हमारी प्रतिकृति बनकर सदैव साथ बने हुए हैं. किसी भी भाई को जरा सा भी भान होता वो तुरंत पूरी सक्रियता, सजगता से हमारी आवश्यकता की पूर्ति के लिए उपस्थित रहता. कहाँ जाना है, क्यों जाना है, किस समय जाना है आदि से उनको कोई मतलब नहीं होता, कोई सवाल नहीं होता बस वे पूरी ईमानदारी, निष्ठा, प्रेम से अपने दायित्व का निर्वहन करने में लगे थे. ऐसा ही सहयोग हमें हमारे दोस्तों से मिला. कभी भी, दिन-रात में किसी भी समय, कहीं भी जाने के लिए, किसी भी आवश्यकता के लिए किसी भी दोस्त को पुकार लगाई वह बिना किसी प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ हमारे कंधे से कंधे मिलाकर खड़ा हुआ.


अपने छोटे भाइयों, दोस्तों के साथ समय कैसे बीतता रहा इसका अंदाजा भी न रहा. समय तेजी से खिसकता हुआ वर्ष 2006 से वर्ष 2009 में आ पहुँचा. सितम्बर का महीना था, हमारे जन्म का दिन. सुबह-सुबह से घर में छोटे भाई और उसके एक मित्र की हलचल मची हुई थी. यद्यपि हलचल देर रात भी समझ आई तथापि किसी तरह का अंदाजा हमें नहीं हुआ कि आखिर हो क्या रहा था. सुबह उठने के बाद, नित्यक्रिया से निपटने के बाद अपने कमरे में बैठे लिखा-पढ़ी का काम किया जा रहा था. अम्मा से जन्मदिन का आशीर्वाद मिल चुका था. घर के सदस्यों से भी शुभकामना सन्देश मिल चुके थे. मोबाइल, फोन से भी संदेशों का आना लगा हुआ था. उसी में हमें बाहर बुलाया गया.


बाहर दरवाजे की आहट पर ध्यान दिया तो कुछ ऐसा समझ नहीं आया कि कुछ विशेष है. ऐसा भी नहीं लगा कि कोई हमसे मिलने वाला आया है. ऐसे में हमें बाहर बुलाये जाने का अर्थ समझ नहीं आया. हालाँकि घर के दरवाजे पर कुछ चहल-पहल सी, फुसफुसाहट सी महसूस अवश्य हो रही थी. बाहर निकल कर देखा तो आँखें नम हो गईं. एक नया स्कूटर हमारे लिए तैयार खड़ा हुआ था, जो हमारे चलाये जाने के उद्देश्य से ही बनवाया गया था. घर के सभी सदस्यों के चेहरे पर भावनात्मक ख़ुशी और आँखों में नमी स्पष्ट दिख रही थी. ये आपके जन्मदिन का गिफ्ट है कहते हुए छोटे भाई ने स्कूटर की चाबी जब हमारी हथेली में रखी तो हम दोनों ही एक-दूसरे से आँखें मिलाने की हिम्मत न कर सके. हम दोनों ही जानते थे कि ऐसा होते ही आँखों की नमी बह निकलेगी.


उस दिन सुबह-सुबह ऐसा गिफ्ट मिलना बहुत ही भावनात्मकता से भर गया. घर में सबने कई-कई बार स्कूटर चला कर देख लेने को कहा मगर अन्दर से हिम्मत न जुटा सके. दुर्घटना के बाद से लेकर आज तक बहुत से पल ऐसे आये जबकि हमने खुद को अन्दर से कमजोर महसूस किया, ये और बात है कि ऐसा कुछ जाहिर न होने दिया. उस दिन भी कुछ ऐसा हो रहा था.


हाथों में चाबी लेकर वापस अपने कमरे में आकर बैठ गए. कुछ घंटों के बाद खुद में साहस बटोरा और छोटे भाई के साथ स्कूटर की यात्रा पर निकल पड़े. उस दिन से हमारे आने-जाने को जो गति मिली वह आज तक बनी हुई है.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

45 - ख़ामोशी से गुजर जाते हैं दर्द कितने

दाहिने पंजे के दर्द से कोई राहत नहीं मिल रही थी. उसकी स्थिति देखकर बहुत ज्यादा लाभ समझ भी नहीं आ रहा था. इस दर्द में उँगली भी अपने रंग-ढंग दिखाने में लगी थी. उसकी स्थिति ऐसी हो चुकी थी कि चलने में, खड़े रहने में बहुत ज्यादा दिक्कत आ रही थी. रवि की तरफ से जब यह निश्चित हो गया कि उँगली निकाल दिए जाने से कोई समस्या नहीं होनी है तो फिर उसी के अनुसार समय निश्चित किया गया. उन दिनों उसका दो दिनों शनिवार, रविवार उरई में बैठना होता था. बहुत बड़ा ऑपरेशन नहीं था, इसलिए उरई के उसी नर्सिंग होम में, जहाँ वह बैठता था, उँगली का निकाला जाना तय हुआ.


रविवार को दोपहर में ऑपरेशन थियेटर में एक बार फिर हम उपस्थित हुए. विगत कुछ वर्षों में ऑपरेशन थियेटर, हॉस्पिटल से गहरा रिश्ता बन गया था. ऑपरेशन थियेटर का माहौल जाना-पहचाना सा लगने लगा था. वहाँ फैली अजीब सी सुगंध, वहाँ रखे तमाम उपकरणों की आवाज़, उनकी महक को, उपस्थिति को अब बिना किसी परेशानी के महसूस किया जाता था.




फ़िलहाल, निश्चित समय पर उँगली को निकाले जाने की प्रक्रिया शुरू हुई. किसी सर्जन के हिसाब से यह बहुत छोटा सा ऑपरेशन था और हम जितने ऑपरेशन अपने साथ गुजरते देख चुके थे, उस हिसाब से हमें भी यह जरा सा ऑपरेशन मालूम हो रहा था. आराम से चलकर ऑपरेशन वाली टेबल पर लेट गए. रवि से उसी तरह अनौपचारिक बातें चलती रह रही थीं.


उँगली में ही लोकल एनेस्थेसिया देने के बाद उसका और उसके सहयोगियों का काम शुरू हो गया. पहले की तरह आँखों, चेहरे को किसी भी तरह की बंदिश से मुक्त रखा गया सो हम भी सहजता से वार्तालाप में शामिल हो रहे थे. ऑपरेशन के पहले रवि से कई बार इस बारे में चर्चा हुई थी कि उँगली का कितना हिस्सा निकाला जायेगा. ऑपरेशन थियेटर में भी उस दौरान हमने उससे पूछा कि कितनी उँगली काट दी?


बैठ कर देख लो, कितनी काटी है. रवि ने हँसते हुए कहा.

हमें लगा कि वह मजाक में ऐसा न कह रहा हो तो हमने पूछा बैठ जाएँ?

हाँ, बैठ जाओ और देखकर बताओ और काटें या इतनी ही? उसके ऐसा कहते ही हम बैठ गए.


पहली नजर में न उँगली समझ आई और न ही पंजा समझ आया. पूरे पंजे को कपड़े से ढांक रखा था. उँगली खून से सनी लाल दिखाई दे रही थी और चारों तरफ रुई के फाहों की जकड़ में थी.

अबे जरा साफ़ करके तो दिखाओ, तब तो समझ आए कि तुमने कितनी काट डाली. हमारे ऐसा कहते ही रवि के एक सहायक ने ऊँगली साफ़ की तो साफ़-साफ़ दिखाई देने लगा कि कितना हिस्सा काटा गया है.


हाँ, ठीक है. बाकी तुम भी देख-समझ लो. हमें चलने में, खड़े होने में समस्या न हो, बस.

हमने तो अपने हिसाब से काट ही दी है. तुम भी समझ लो. कहो तो और काट दें? हँसी के साथ रवि की इस बात पर हम सभी हँस पड़े.


वे सब फिर अपने काम में लग गए और हम बैठे-बैठे उनको उँगली के साथ खेलते देखने लगे. लोकल एनेस्थेसिया के कारण उँगली में कोई एहसास भी नहीं था सो न कोई दर्द मालूम हो रहा था, न ही कुछ महसूस हो रहा था. हमें बैठे देख रवि ने लेटने को कहा तो हमने कहा कि टाँके लगते भी देख लें. जरा सुन्दरता से लगाना, कहीं उँगली की खूबसूरती न बिगाड़ दो.


बिना कुछ कहे वे लोग अपने काम में फिर जुट गए. उस दिन पहली बार टाँके लगते देखे. जीवन में बहुत बार चोट से, मरहम-पट्टी करवाने से, लोगों की घायल हो जाने पर मदद करने का मौका मिला था मगर कभी ऐसा अवसर नहीं आया था कि किसी को टाँके लगवाने पड़े हों. टाँके लग जाने के बाद हम और रवि आपस में बातें करने लगे, उसके सहायक पैर में पट्टी बाँधने में जुट गए. सारा काम हो जाने के बाद एक आशा थी कि शायद अब दाहिने पंजे को कुछ राहत मिल सके. ऑपरेशन थियेटर से बाहर आकर आगे के कुछ दिनों की दवाई, मरहम-पट्टी के बारे में सलाह लेकर घर आ गए.


निश्चित समय के बाद टाँके खोले गए. उँगली जैसी सोची थी, उसी स्थिति में आ गई मगर दर्द न गया. उँगली के काट दिए जाने के बाद से उसकी तरफ से कोई समस्या नहीं हो रही थी मगर शेष तीन उँगलियों और पंजे की अपनी समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई थी. बची हुई तीन उँगलियाँ रक्त-प्रवाह सिर्फ नीचे की तरफ से था, ऊपर की तरफ से वे सभी अनुभूति-शून्य थीं. इसके अलावा उनमें किसी तरह की गतिविधि स्वयं नहीं होती थी, इस कारण वे तीनों भी धीरे-धीरे नीचे की तरफ मुड़ने लगीं. उनका भी एकमात्र निदान कटवाना समझ आ रहा है. हाल-फ़िलहाल तो इस पर भी कई बार रवि से चर्चा हुई है मगर अभी अंतिम निष्कर्ष नहीं निकला है. देखिये, क्या होता है.

  

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

44 - इंतजार, इंतजार और बस इंतजार

कुछ समय की मेहनत, कोशिश के बाद रोजमर्रा के काम कुछ हद तक करने सम्भव हो गए थे. जो कृत्रिम पैर शरीर का हिस्सा न था उसे स्वीकार कर लिया था मगर अभी उसके साथ सही से तालमेल नहीं बैठ सका था. बहुत बार ऐसा होता कि कृत्रिम पैर के जिस हिस्से में जाँघ का हिस्सा फँसता था वहाँ की त्वचा गरमी, पसीने से कट जाया करती. उसे बाँधने वाली स्थिति ऐसी होती थी कि सभी जगहों पर कृत्रिम पैर को खोल कर सही भी नहीं कर सकते थे. जलन मचती, दर्द भी होता मगर चलना पड़ता था. कई बार बहुत तेज खुजली मचने लगती, गरम हो जाने के कारण बहुत छटपटाहट होती मगर सबकुछ अपने भीतर दफ़न करते हुए काम करते रहना पड़ता.


एलिम्को में चलने के अभ्यास के दौरान कृत्रिम पैर को उसमें लगे लॉक को खोलकर चलना पड़ता था. वहाँ से निर्देशित भी किया गया था कि लॉक खोलकर ही चला जाए. ऐसा करने से कृत्रिम पैर घुटने से असली पैर की तरह ही मुड़ता था, आगे-पीछे मुड़ता था. लॉक खोलकर चलने से कृत्रिम पैर भी सही पैर के जैसे आगे-पीछे होता था जिससे उसके कृत्रिम होने का आभास एकदम से नहीं होता था. शुरूआती दौर में हमने भी ऐसे चलने का प्रयास किया. सीधी-सपाट जगह पर तो ऐसे चलना बहुत आसान होता मगर जहाँ ऊबड़-खाबड़ जगह होती, वहाँ इस तरह चलना कठिन हो जाता. ऐसे में यदि कृत्रिम पैर के पंजे से किसी भी तरह की चीज टकरा जाए तो पैर मुड़ जाता और उस पर अपना कोई नियंत्रण न होने के कारण एकमात्र काम हमारा जमीन पर गिरना ही होता. ऐसा कई बार हुआ सो निष्कर्ष निकाला कि किसी को ये दिखाने का कोई मतलब नहीं कि हमारा कृत्रिम पैर असली पैर की तरह मुड़ता है, कृत्रिम पैर का लॉक लगाकर ही हमने चलना शुरू किया. इससे कृत्रिम पैर एकदम सीधा बना रहता. चलने में भी अब ज्यादा मेहनत करनी पड़ती मगर ये निश्चित हो गया था कि अब गिरना नहीं होगा.




दाहिने पंजे की टूटी हुई छोटी-छोटी हड्डियाँ, जो सही से जुड़ न सकी थीं, वे संभवतः एक-एक करके पंजे से बाहर निकल चुकी थीं. ऐसा इसलिए कहा जा सकता था क्योंकि अब काफी समय से दाहिने पंजे से छोटी-छोटी हड्डियों का खाल काट कर निकलना बंद हो चुका था. तमाम सारी चिंताओं के बीच अब दाहिने पंजे की इस समस्या से हम चिंतामुक्त होते जा रहे थे. अपने दोनों पैरों की तरफ से चिंतामुक्त होने की कल्पना स्वयं हमने ही कर रखी थी, पैरों ने अभी हमको इससे मुक्त नहीं किया था. ऐसा लगता था जैसे इन दो पैरों ने ही हमको अपने काम पर लगा रखा है. कभी कोई दिक्कत, कभी कोई समस्या, कभी एक समस्या का निदान कर पाते तो दूसरी उठ खड़ी होती, कभी दाहिने पैर से निपटते तो बायाँ पैर अपनी दिक्कत लेकर चीख मारने लगता.


समय के साथ कृत्रिम पैर जितनी सहजता से अपना काम करता जा रहा था, दाहिना पंजा उतनी ही मुश्किल पैदा कर रहा था. कृत्रिम पैर तो ऐसे लगने लगा था जैसे कि वह हमारे शरीर का ही हिस्सा हो. कभी-कभी की छोटी-छोटी समस्याओं को छोड़ दें तो उसकी तरफ से समस्या नहीं आ रही थी मगर दाहिना पंजा जैसे कष्ट देने पर ही आतुर था. जैसे-तैसे पंजे की छोटी-छोटी हड्डियों के निकलने की समस्या से मुक्ति मिली तो अब उँगलियों ने दिक्कत करना शुरू कर दिया.


जैसा कि पहले भी बताया था कि दाहिने पंजे में ऊपर की तरफ से किसी भी तरह का सेंसेशन नहीं है, किसी भी तरह का एहसास नहीं है. ऊपर की तरफ से आने वाली सभी नसें पंजे के मोड़ तक ही हैं, हाँ, नीचे से कुछ एहसास है, संवेदना है. ऐसी स्थिति के चलते दाहिने पंजे की चारों उँगलियों में किसी तरह की हरकत अपने आप नहीं होती थी. उँगलियों की नियमित रूप से कसरत करवाई जाती थी, जिससे कि वे नीचे की तरफ न मुड़ें. तमाम कोशिशों के बाद भी उँगलियों ने अपना नीचे की तरफ मुड़ना न छोड़ा. इसमें भी कट चुके अँगूठे के ठीक बगल वाली उँगली कुछ ज्यादा ही रफ़्तार पकड़े थी. ऐसा लग रहा था जैसे उसे बहुत जल्दी है मुड़कर तलवे से मिलने की.


उँगलियों की इस स्थिति के कारण अब चलने में, खड़े होने में समस्या आने लगी. अब जूता पहनने के पहले उँगलियों को ऊपर की तरफ खींच कर उनके नीचे कपड़ा, रुई आदि लगाया जाता ताकि उँगलियाँ जूते की सतह से न छू सकें. यह स्थिति भी क्षणिक आराम देती. यदि उँगलियों के नीचे किसी तरह का आधार न बनाएँ तो उँगलियाँ जूते की सतह से टकराते हुए दर्द पैदा करतीं और यदि उनके नीचे कपड़े-रुई आदि का आधार बना दें तो खिंचाव के कारण उनमें दर्द होने लगता. हमारे लिए कोई भी स्थिति सुखद नहीं थी.


जब समस्या असहनीय हो गई, दर्द से लड़ते-लड़ते लगा कि हार जायेंगे तो सबसे ज्यादा दिक्कत देने वाली उँगली को कटवाने का विचार बनाया. दोस्त रवि से इस बारे में चर्चा की. उसने पूरे पंजे की स्थिति फिर देखी, उँगलियों का एक्सरे करवाया, उसके हिसाब से उनकी स्थितियों को देखा-परखा और एक उँगली को निकालने पर अपनी सहमति दे दी.


अब इंतजार था सही समय का, एक ऑपरेशन का, उँगली के दाहिने पंजे से अलग होने का. इस इंतजार के साथ आशा तो यह भी थी कि शायद अब दाहिने पंजे का दर्द सही हो जाए, शायद चलने के दौरान होने वाली समस्या से मुक्ति मिल जाए. शायद....???


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

43 - संघर्ष के पलों से निकली ख़ुशी का नाम ही ज़िन्दगी है

ऐसा कहा जाता है कि हमारे कार्यों के अनुसार ही हमें फल प्राप्त होता है. ऐसा भी कहा जाता है कि इस जन्म में व्यक्ति के साथ जो कुछ भी हो रहा है उसमें बहुत कुछ पूर्व जन्म में किये गए कार्यों का प्रतिफल होता है. ऐसी बातों पर कभी विश्वास नहीं किया और न ही महत्त्व दिया. हमारा मानना है कि व्यक्ति को पूरी ईमानदारी के साथ कार्य करते रहना चाहिए. समाज के प्रति, परिवार के प्रति जो दायित्व हैं उनका निर्वहन करते रहना चाहिए. इस जन्म के कार्यों का प्रतिफल इसी जन्म में मिल जाता है और उसी को हम लोग सफलता या असफलता से जोड़कर देख सकते हैं. किसी जन्म में किये गए कार्यों का परिणाम भुगतने के लिए फिर जन्म लेना पड़े या कई जन्मों तक जीवन-मरण जैसी स्थिति से गुजरना पड़े तो फिर कार्यों का हिसाब समझ से परे है.


बहरहाल, आज किसी तरह की दार्शनिक स्थिति को सामने लाने का मन नहीं है और न ही विचार है. आए दिन हमारी दुर्घटना को लेकर जो बातें सामने आती रहतीं हैं उनके कारण उक्त विचार इसलिए मन में आते रहते हैं. इतनी बड़ी दुर्घटना, जबकि हम ट्रेन के नीचे ही चले गए थे, पटरियों पर गिर पड़े थे, ट्रेन ऊपर से गुजर रही थी, एक पैर स्टेशन पर ही कट कर अलग हो गया था, लगभग तीन घंटे के अन्तराल के बाद मेडिकल सुविधा मिल पाने के बाद, बहुत सारा खून बह जाने के बाद भी आज हम आप सभी के बीच हैं तो लगभग हर मिलने वाला कहता है कि ये पूर्वजन्म में, इस जन्म में किये गए अच्छे कार्यों का सुफल है. बहुत से लोगों का कहना है कि यह बड़ों के आशीर्वाद का प्रतिफल है, किसी का कहना होता है कि बेटी के भाग्य से, पत्नी के भाग्य से हमें फिर से जीवन मिला है.


ऐसी बहुत सी बातों को सुनने के बाद समझ नहीं आता है कि इस दुर्घटना के बाद अपने बच जाने को अपने अच्छे कार्यों का सुफल कहा जाए या फिर इसी दुर्घटना में एक पैर के कट जाने और दूसरे पैर के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने को अपने बुरे कार्यों का प्रतिफल कहा जाए? बहुत कोशिश के बाद भी दिमाग से दुर्घटना जाती नहीं और जा भी नहीं सकती क्योंकि चौबीस घंटे ही, सोते-जागते अपनी शारीरिक स्थिति को देखते हैं. दुर्घटना के पहले के पल याद आते हैं, अब दुर्घटना के बाद की कष्टप्रद स्थिति दिखाई देती है. न भुला सकने वाली स्थिति के बाद भी खुद को इस मकड़जाल में फँसने नहीं देते हैं. कोशिश यही रहती है कि इस शारीरिक स्थिति को दरकिनार करते हुए अपने कार्यों को नियमित रूप से संचालित करते रहें.




एक पल को यदि मान लिया जाये कि अच्छे कार्यों के प्रतिफल में नया जीवन मिल गया है. लोगों के भाग्य और आशीर्वाद से ज़िन्दगी फिर हमारे साथ है मगर इसी के साथ लगता है कि इन अच्छे कार्यों के सापेक्ष बुरे काम भी बहुत सारे रहे होंगे? ऐसा विचार इसलिए भी आता है क्योंकि सुखद प्रतिफल में जीवन मिला तो दुखद प्रतिफल में बहुत सारा कष्ट मिला वो भी ज़िन्दगी भर के लिए. लगता कि यदि शारीरिक कष्ट के द्वारा ही प्रतिफल मिलना था तो इतना बुरा क्यों? पैर कटना ही नियति थी तो फिर वह घुटने के नीचे क्यों नहीं कटा? यदि घुटने के ऊपर कटना कार्यों का प्रतिफल है तो फिर दूसरे पैर को क्षतिग्रस्त क्यों? यदि ऐसा होना भी कार्यों का प्रतिफल है तो फिर उसमें बराबर दर्द का बने रहना क्यों? यदि यह भी बुरे कामों का परिणाम है तो फिर ये जीवन क्यों?


यही सवाल हैं जो हमें खुद में लड़ने की प्रेरणा देते हैं, खुद से लड़ने की शक्ति देते हैं. ऐसे ही बहुत सारे सवालों ने हमें बचपन से ही भाग्य, जन्मों के चक्र आदि पर विश्वास न करने की ताकत दी है. हो सकता है कि ऐसा कुछ होता हो मगर उसके ऊपर भी कर्म अधिक महत्त्वपूर्ण है. हमारा अपना मानना है कि ज़िन्दगी मिली है तो उसके साथ मिली अनिश्चितता के कारण अपेक्षित-अनपेक्षित परिणाम भी साथ में मिलेंगे. देखा जाये तो ज़िन्दगी किसी आयु का नाम नहीं बल्कि हर एक पल को जीने का अंदाज़ ही ज़िन्दगी है. यह हम पर निर्भर करता है कि हम किस तरह वर्तमान पल को गुजारते हैं, जाने वाले पल को किस तरह याद रखते हैं और आने वाले पल का किस तरह से स्वागत करते हैं.


ज़िन्दगी संघर्ष का नाम है तो उस संघर्ष के पलों से निकली ख़ुशी को, सफलता को स्वीकारने का, उसका आनंद लेने का नाम है. ज़िन्दगी यदि कष्टों को लेकर आती है तो अपने साथ खुशियों का खजाना भी छिपाए रहती है. जिस तरह प्रकृति में दिन और रात का समन्वय, संतुलन स्थापित है ठीक उसी तरह ज़िन्दगी में भी सुखों का, दुखों का क्रम है, उनका संतुलन है, समन्वय है. जो इस साम्य के साथ अपना संतुलन बिठा ले जाता है, उसके लिए ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद ही होती है.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

42 - सम्भव और असम्भव से उपजे विश्वास की जीत

पैर लगने के बाद के कुछ महीने तो उसके साथ अपना सामंजस्य बनाने में निकले. चलने, बैठने, खड़े होने का अभ्यास निरंतर चलता रहा. कभी सहजता मालूम पड़ती तो किसी दिन बहुत समस्या मालूम पड़ती. पैर को सहारा देने के लिए कमर से बाँधने वाली चमड़े की बेल्ट के अपने कष्ट थे. गरमी के दिनों में जबरदस्त पसीने के कारण बेल्ट देह से चिपक जाती और जरा सा भी इधर-उधर घूमने पर कमर की खाल अपने संग चिपका कर बाहर निकाल लेती. बाँयी जाँघ का भी कुछ इसी तरह का हाल था.


इन सबके बीच वे सारे काम करने का प्रयास रहता था जो दुर्घटना के पहले करते थे. कुछ काम आसानी से होने लगे और कुछ में दिक्कत हुई. कुछ काम ऐसे थे जो किये ही न जा सके और शायद आगे उनका करना संभव भी नहीं लगता. इसमें एक काम दौड़ने का है. बहुत कोशिश की दौड़ने की. खुले मैदान में प्रयास किया तो बंद कमरे में कोशिश की, इस चक्कर में कई बार गिरे भी. अंततः दिल-दिमाग ने मान लिया कि अब दौड़ लगाना संभव नहीं. हाँ, कृत्रिम पैर के साथ जितनी अधिक तेजी से चलना संभव हो सकता था, उस गति को अवश्य प्राप्त कर लिए था. ऐसे ही न कर पाने  वाले कामों में एक काम बाइक चलाना भी रहा. दो-तीन बार के प्रयासों के बाद सफलता नहीं मिली. वैसे भी यदि बाइक चलाना होता भी तो किसी न किसी की सहायता से क्योंकि कृत्रिम पैर के द्वारा बाइक को सँभाल पाना आसान नहीं था.



बहुत सारे कामों को करने और बहुत से कामों को न कर पाने के बीच एक दिन कार चलाने का मौका मिला. उसके पहले कई बार विचार आता था कि जिस तरह बाइक नहीं चला पा रहे अथवा बाइक चलाने में असमर्थ रहे क्या ऐसा ही कार चलाने में होगा? उस दिन कॉलेज के राष्ट्रीय सेवा योजना शिविर में सहभागिता की जा रही थी. कमरे में सारे विद्यार्थी बैठे हुए थे. अतिथियों के, प्रबुद्धजनों के व्याख्यान चल रहे थे. उसी में गर्मी के कारण कुछ असहजता सी महसूस हो रही थी तो हम बाहर निकल आए.


एनएसएस शिविर में हमारा जाना डीवी कॉलेज, उरई के तत्कालीन विभागाध्यक्ष, राजनीतिविज्ञान डॉ० आदित्य कुमार जी के साथ हुआ था. आदित्य अंकल का स्नेह, आशीर्वाद, सहयोग एक अभिभावक की तरह सदैव हमें मिलता रहा है. बाहर बैठने की कोई जगह न देखकर हमें अंकल की कार में बैठना उचित लगा. उनसे कार की चाभी लेकर ड्राइविंग सीट के बगल की सीट पर आकर आराम से पसर गए. कुछ देर बैठने के बाद मन में आया कि एक बार चलाने का प्रयास किया जाए. अपनी दुर्घटना के पहले तक उस कार को खूब चलाया भी था, सो वह बहुत अपनी सी लगती थी. इसलिए उसे चलाने को लेकर डर या संशय मन में उठा भी नहीं.


बस, दिमाग में कार चलाने का विचार आते ही अगले पल ड्राइविंग सीट पर बैठ गए. कार स्टार्ट करने के पहले कृत्रिम पैर से क्लच सञ्चालन को आजमा कर देखा. चूँकि बाएँ पैर (कृत्रिम) का उपयोग क्लच के लिए किया जाना था और कार के गियर बदलने, सही ढंग से चलने के लिए आवश्यक था कि क्लच सही से अपना काम करे. एक-दो बार की कोशिश के बाद लगा कि कार चलाने में कोई दिक्कत नहीं आएगी. उसके बाद हिम्मत करके चाभी घुमाई, कार स्टार्ट, गियर लगाकर क्लच को धीरे-धीरे छोड़ते हुए कार को गति देने का काम किया. क्लच के उचित सञ्चालन हेतु कृत्रिम पैर के घुटने वाली जगह पर जोर लगाकर उसे सहजता से वापस आने देते. यह काफी मुश्किल था मगर दो-चार बार के अभ्यास से काम बन गया. वहाँ उस बड़े से मैदान के दो चक्कर लगाने के बाद विश्वास हो गया कि कार आसानी से चलाई जा सकती है. मन प्रसन्नता से झूम रहा था और अब इंतजार था कि कार्यक्रम की समाप्ति के बाद अंकल से अनुमति लेकर सड़क पर कार दौड़ाई जाए.


अंकल का आना हुआ और हमने अपना आवेदन उनके सामने रख दिया. उन्होंने बस इतना पूछा कि चला लोगे? नहीं चला पाएँगे तो आप हैं ही. हमारे इतना कहते ही अंकल हँसते हुए बगल की सीट पर आकर बैठ गए. अब कार की स्टेयरिंग हमारे हाथ थी. अबकी कार मैदान के बजाय सड़क पर दौड़ रही थी. बाजार की भीड़-भाड़ शुरू होने के पहले हमने अंकल को कार थमानी चाही तो उन्होंने हमारे विश्वास से अधिक विश्वास जताते हुए हमें ही कार चलाते हुए बाजार चलने को कहा.


स्नेहिल विश्वास भरे आशीर्वाद के मिलते ही कार ने उस दिन जो रफ़्तार पकड़ी वह अभी तक बनी हुई है. उसके बाद तो एक रिकॉर्ड ही बन गया. आदित्य अंकल के साथ कार से कहीं भी जाना हुआ हो, चाहे उरई में या फिर उरई के बाहर कार की स्टेयरिंग हमारे हाथ ही रही.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

41 - ज़िन्दगी किसी का इंतजार नहीं करती

गुजरते समय के साथ नए-नए अनुभव मिलते जा रहे थे. कृत्रिम पैर का अनुभव अपने आपमें एकदम नया और अनोखा ही था. खुद से पहले कृत्रिम पैर के बारे में पढ़-सुन रखा था मगर किसी व्यक्ति से मिलने का अवसर न आया था. अब कृत्रिम पैर की विशेषताओं, कमियों से खुद ही साक्षात्कार कर रहे थे. उठने-बैठने, चलने-फिरने को लेकर रोज ही एक अलग सी स्थिति बनती. चलते रहने के अभ्यास से ज्ञान हो रहा था कि कहाँ, किसी सतह पर कैसे और किस तरह का दवाब देना है. चूँकि दाहिने पंजे की तरफ से बहुत ज्यादा सहयोग मिल न रहा था. कहने को वह प्राकृतिक पैर था, हमारी देह से जुड़ा हुआ था मगर पंजे के लगभग संज्ञाशून्य होने के कारण वह बहुत सहयोगी नहीं बन रहा था. इसके उलट लगातार होते तीव्र दर्द के कारण कई बार वह गिराने वाली स्थिति पैदा कर देता था.


कहते हैं न कि ज़िन्दगी किसी का इंतजार नहीं करती, किसी भी परिस्थिति में रुकती भी नहीं, कुछ ऐसा ही हमारे साथ हो रहा था. हम घर पर ठहर कर उस पल का इंतजार नहीं कर सकते थे कि जब दाहिने पंजे का दर्द गायब हो तब हम अपने कामों को करने के लिए बाहर निकलें. यह भली-भांति समझ रहे थे कि समय जिस तेजी से निकल रहा है उसके साथ चलना बहुत आवश्यक है. ये और बात है कि अब लोगों के साथ दौड़ा नहीं जा सकता है मगर अपने कार्यों से, आत्मविश्वास से समय के साथ तो दौड़ लगाई ही जा सकती है.


भागदौड़ की समस्या बनी हुई थी मगर ये सभी मित्रों का, परिजनों का साथ बना हुआ था कि एक पल को यह नहीं लगा कि हम चलने में असमर्थ हैं. छोटी सी दूरी रही हो या फिर कोई लम्बी यात्रा कोई न कोई मित्र, कोई न कोई पारिवारिक सदस्य सारथी बनकर सामने आया. महसूस होता है कि महाभारत के युद्ध में कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण ने अर्जुन के लिए जिस तरह से सारथी की जिम्मेवारी सँभाल उनकी कठिन राहों को आसान किया था, कुछ ऐसा काम हमारे शुभेच्छुजन कर रहे थे. ऐसे ही सारथियों के कारण हम सहजता से ज़िन्दगी की दौड़ में, सामाजिक कार्यों की दौड़ में बढ़ते चले जा रहे थे.




दुर्घटना के पहले की हमारी सक्रियता लगभग अपने पुराने रंग में ही लौट आई थी. जो लोग वाकई दिल से हमसे जुड़े हुए थे उनके चेहरे पर चमकती प्रसन्नता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती थी. इसके अलावा समाज में ऐसे लोग भी होते हैं जो दिखावे के लिए ही आपके साथ जुड़े होते हैं, ये लोग आपके दुखों में प्रसन्न होते हैं, आपके सुख से दुखी होते हैं. हम भी समाज से बाहर के नहीं थे और उस समाज में हमारे साथ भी ऐसे लोग थे. ऐसे लोग हमारे चेहरे की हँसी, सामाजिक जीवन की सक्रियता देखकर सहज नहीं रह पा रहे थे. अक्सर ऐसे लोगों का सवाल होता कि इतने कष्ट, इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद भी ऐसी सक्रियता, ऐसी सहजता कैसे बनी रहती है?


ऐसे लोगों को बस एक ही जवाब दिया जाता कि ये समस्या अब ज़िन्दगी भर की है. यदि हमारे रोते रहने से, दुखी रहने से हमारी शारीरिक क्षति दूर हो जाये तो हम अपने समस्त परिजनों, सभी दोस्तों, सभी शुभेच्छुजनों को एकसाथ बैठाकर दुखी हों, रोते रहें. हो सकता है ऐसा करने से हमारा कटा हुआ पैर, पंजा फिर सही हो जाए. ऐसे जवाबों को सुनने के लोग आदी नहीं होते हैं. ऐसे लोग आपके कष्टों को ही सुनना चाहते हैं, आपको रोते देखना चाहते हैं.


अपने आपको मजबूत करने, लगातार सक्रिय रखने के उन्हीं दिनों में एक समाचार-पत्र के सदस्य ने हमसे बातचीत करने, साक्षात्कार प्रकाशित करने की इच्छा प्रकट की. निश्चित कर ली गई एक मुलाकात में कई सारे सवालों के बीच उनका सवाल आया कि दुर्घटना के बाद आप कहीं इसलिए तो सक्रिय नहीं हैं जिससे आप अपने परिजनों को, अपने मित्रों को ये दिखा सकें कि आपको कष्ट नहीं है? खुद आप अपने आपको कष्ट से मुक्त होने का धोखा देने के लिए तो लगातार सक्रिय नहीं रह रहे? एक पल की देरी के सबसे पहले जो विचार मन में उभरा वही उनको सुना दिया कि दुर्घटना के पहले की हमारी सक्रियता किस कष्ट को छिपाने, भुलाने के लिए थी?


वे पत्रकार महोदय ख़ामोशी से बस मुस्कुरा दिए. उस दिन उछले सवाल के बाद कई बार सोचते हैं कि क्या वाकई कष्ट को लगातार सक्रिय रहकर भुलाया जा सकता है? क्या ऐसा दर्द जो एक पल को भी आपसे दूर न गया हो, उसे छिपाया जा सकता है? ऐसी शारीरिक स्थिति जो प्रतिपल आपको किसी कमी से परिचित करवाती हो क्या उसे खुद से, परिजनों से, मित्रों से दूर रखा जा सकता है?


फिलहाल तो इस तरफ दिमाग न लगाते हुए हम लगातार अपने काम में लगे रहे. उसी में एक कोशिश कार चलाने की भी हुई और सफल भी रही. विश्वास के साथ सधे हाथों से दौड़ती कार के साथ हम भी लगातार दौड़ लगाते रहे.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

40 - दर्द और हम, आमादा हैं निकालने को एक-दूसरे का दम

कृत्रिम पैर के लग जाने के बाद बहुत सी आदतों को बदलना पड़ा. बहुत सी नए तरीकों को आजमाना पड़ा. इन्हीं तमाम नई आदतों को अपनाने और पुरानी उन आदतों को छोड़ने, जिनका अब कोई काम नहीं था, के अभ्यास के साथ-साथ ज़िन्दगी को दोबारा से सामान्य बनाने का प्रयास किया जा रहा था. उरई आने के बाद पिछले एक साल से रुके हुए कामों को पूरा करने की कोशिश होने लगी. एक बहुत बड़ी जिम्मेवारी, छोटे भाई की शादी की थी, वह भी सकुशल पूरी हो गई. पैदल बहुत दूर चलना नहीं हो पाता था, खड़े रहना भी बहुत देर नहीं हो पाता था.


आना-जाना ज्यादातर बाइक से ही हुआ करता था वो भी छोटे भाई के सहारे या फिर किसी न किसी मित्र के साथ. सबकुछ सामान्य सा दिखने की स्थिति के बाद जैसे हालात सामान्य होना नहीं चाहते थे. पैर लगने के बाद के आरम्भिक दिनों में दर्द के कारण बहुत ज्यादा चलना नहीं हुआ करता था. तमाम सारी कागजी कार्यवाही के लिए बाहर जाना ही पड़ता था. कॉलेज खुलने के बाद नियमित रूप से जाना शुरू हुआ. मिलने-जुलने के क्रम में भी बाहर जाना शुरू किया. इसी में पैर की असल स्थिति के बारे में भी समझ आया. कृत्रिम पैर तो बहुत अच्छे से काम कर रहा था मगर दाहिना पंजा साथ देने को तैयार नहीं दिखता था.




चलना-फिरना भी आवश्यक था. ऐसे में कुछ दिनों बाद एक मुश्किल सामने आई. कॉलेज से लौटने पर जूते उतारने के बाद देखा कि दाहिने पंजे में बाँधी गई क्रैप बैंडेज (गरम पट्टी) खून से रँगी हुई है. घबराहट में समझ नहीं आया कि ऐसा कैसे हो गया? कहीं टकराए भी नहीं, कहीं किसी जगह दुर्घटना जैसा भी कुछ नहीं हुआ, पैर पर कुछ गिरा भी नहीं फिर ये खून कैसे, कहाँ से? पट्टी खोली तो सब समझ में आ गया. पंजे की एक हड्डी का छोटा सा टुकड़ा टूटकर बाहर निकल आया था. इसी कारण उसने सर्जरी के माध्यम से लगाई गई खाल कट कर घाव के रूप में बदल गई थी. खून का निकलना उसी घाव से हुआ था. अपने मित्र रवि को बताया और उसी के अनुसार उसकी ड्रेसिंग कर ली.


दरअसल दुर्घटना के समय दाहिना पंजा बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया था. अँगूठा और एक उँगली पहले ही कट चुकी थी. बाकी पंजा छोटी-छोटी अनेक हड्डियों के टुकड़ों के रूप में बदल गया था. उन सभी हड्डियों के टुकड़ों को कई महीने फ्रेम में बाँधकर रखने के बाद पंजे का कुछ-कुछ आकार बन पाया था. दाहिने पंजे में सेंसेशन सिर्फ नीचे, तलवे की तरफ था. ऊपरी भाग में छोटे-छोटे टुकड़ों में हड्डियाँ और सर्जरी करके लगाई गई खाल थी. ज्यादा चलने के कारण, पंजे पर दवाब के कारण हड्डी का जो भी टुकड़ा दवाब को बर्दाश्त नहीं कर पाता था वह पंजे का, हड्डियों का साथ छोड़कर बाहर निकल जाता. चूँकि ऊपरी हिस्से में किसी तरह का सेंसेशन नहीं था, कोई एहसास नहीं था इस कारण न तो दर्द होता, न खून निकलना मालूम पड़ता और न ही खून की गर्माहट महसूस होती. पंजे से हड्डियों के छोटे-छोटे टुकड़े निकलने का यह क्रम महीनों बना रहा.


यह स्थिति चिंताजनक भी थी क्योंकि किसी तरह की संवेदना अथवा एहसास न होने के कारण न तो दर्द होता और न ही खून का बहना मालूम पड़ता. ऐसे में ज्यादा खून निकल जाना भी नुकसानदायक हो सकता था. इस चिंताजनक स्थिति का सामना तो करना ही था क्योंकि एक्सरे में भी स्पष्ट समझ नहीं आता कि कब कौन सा टुकड़ा निकल कर बाहर आ जाएगा. फिलहाल जब तक टुकड़ों का निकलना पूरी तरह से बंद न हो गया तक तक कुछ अन्तराल पर जूता खोलकर पंजे का निरीक्षण कर लिया जाता.


लगातार होते अभ्यास से, लगातार बाहर निकलने से, लगातार चलने-फिरने से पैर की, पंजे की दिक्कतें धीरे-धीरे सामने आ रही थीं. उनका इलाज भी होता जा रहा था. कुछ दिक्कतें लाइलाज बनी रहीं, वे आज भी परेशान करती हैं. उनमें एक तो दाहिने पंजे का दर्द है जो दुर्घटना के दिन से लेकर अभी तक एक सेकेण्ड को भी बंद नहीं हुआ है और दूसरा बाँए कटे पैर की फाल्स फीलिंग. फिलहाल आगे बढ़ना ज़ारी है. दर्द अपना काम कर रहा है, हम अपना काम कर रहे हैं. दर्द लगातार बना रहता है, हम चलते-फिरते-घूमते रहते हैं. न वह हमें छोड़ रहा है और न ही हम उस पर ध्यान दे रहे हैं. शायद दोनों लोग ही एक-दूसरे की परीक्षा ले रहे हैं, एक-दूसरे की दम निकालने पर आमादा हैं.

 

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

39 - ज़िन्दगी को ज़िन्दगी से जीतने की कोशिश में

पैर लगने का सुख भी था और साथ ही यह संतोष भी कि अब एलिम्को तक की भागदौड़ नहीं करनी पड़ेगी. अपने नए साथियों (कृत्रिम पैर और छड़ी) के साथ जीवन का अगला सफ़र नए सिरे से आरम्भ करना था. शारीरिक बदलाव के साथ आये बहुत से बदलावों को स्वीकारते हुए कुछ और बदलाव स्वीकारने को तैयार थे. चलने के तरीके में, बैठे के तरीके में, काम करने की स्थितियाँ, दैनिक रोजमर्रा के कामों में तमाम तरह के परिवर्तन करना अपेक्षित समझ आ रहा था. नित्यक्रियाओं में कृत्रिम पैर के साथ समायोजन बिठाना आवश्यक था. जमीन पर बैठने वाली स्थिति अभी आसान नहीं लग रही थी. घुटने मोड़ने वाली स्थिति भी समाप्त हो चुकी थी. दौड़ने का काम पूरी तरह से छोड़ना था.  


पैर की अपनी स्थिति थी. चलने के समय उसके घुटने वाली जगह पर लगे यंत्र में एक तरह का लॉक लगा हुआ था. जिसे सीढियाँ चढ़ते-उतरते समय लगा लेना अनिवार्य था और जब किसी समतल जगह पर चलना हो रहा है तो उस लॉक को खोलना है. इससे चलते समय पैर असली वाले पैर की तरह आगे-पीछे जाता हुआ दिखाई देता है. चढ़ते-उतरते समय लॉक का लगाया जाना सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक था. ऐसा न होने की दशा में कृत्रिम पैर के वहीं से मुड़ जाता और गिरना निश्चित होता. सामान्य रूप से चलते समय लॉक को खोलकर चलने में भी कई बार गिरना हुआ. बहुत कम जगह ऐसी मिलती जो एकदम समतल होती अन्यथा की स्थिति में गड्ढे, कंकड़, पत्थर या कोई अन्य सामान पड़े होने के कारण उससे टकरा कर भी गिरना हुआ. कृत्रिम पैर के घुटने की जगह लगे यंत्र पर हमारा किसी भी तरह का नियंत्रण नहीं था. असावधानी की स्थिति में एक बार पैर मुड़ने का अर्थ  उसका पूरी तरह मुड़ना होता और परिणाम हमारा गिरना होता.


बहुत सारे कामों की सूची पहले से बनी हुई थी, उरई आकर उनको संपन्न करना था. बहुत सारे कामों में प्राथमिकता में छोटे भाई के विवाह को संपन्न करवाना था. परिवार में बहुत लम्बे समय बाद ख़ुशी का अवसर आया था. अपनी शारीरिक स्थिति को देखते हुए कन्या पक्ष के लोगों ने उरई आकर विवाह संपन्न करवाने का हमारा निवेदन स्वीकारते हुए हमारी बहुत बड़ी समस्या का समाधान निकाल दिया था. पूरी धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ. सबके रहते हुए भी पिताजी की कमी कदम-कदम पर महसूस हुई. जब छोटे भाई का विवाह निश्चित हुआ था, तब बहुत सारे सपने सोच रखे थे, बहुत सी योजनायें मित्रों संग बना रखी थीं मगर वे सब यहाँ जिम्मेवारी के चलते कहीं गहरे बंद करके रखनी पड़ीं.

इसी बीच एक कार्यक्रम की समाप्ति पश्चात् खुद को खुद की नजर में जाँचने-परखने की दृष्टि से छोटे भाई सौरभ से कहा कि हमें बाइक चलानी है. तुम पीछे बैठो और गिरने की स्थिति में सँभाल लेना. जिस परिसर में कार्यक्रम संपन्न हुआ था वह पर्याप्त बड़ा था और हम भाई लोग और उनके इक्का-दुक्का मित्र रह गए थे. छोटे भाई ने एक पल की झिझक के बाद हमारा बाइक चलाना मान लिया. वह पीछे बैठा और हम बाइक चलाने की मुद्रा में. सेल्फ स्टार्ट तकनीक के कारण बाइक स्टार्ट करना मुश्किल न रह गया था. कृत्रिम पैर की चलन सम्बन्धी अपनी सीमाओं के कारण उससे गियर बदलना कुछ कठिन समझ आया. इसके बाद भी दो-चार प्रयासों के बाद गियर डालकर बाइक चला दी.

एक साल से अधिक समय बाद बाइक चलाई जा रही थी. कृत्रिम पैर और शारीरिक अवस्था के चलते उसका नियंत्रण करना कुछ मुश्किल लग रहा था मगर यह प्रयास अनियंत्रित समझ नहीं आ रहा था. कुछ आगे बढ़ने के बाद फिर एक प्रयास और गियर में बदलाव. बाइक ने रफ़्तार पकड़ी और साथ में पर्याप्त दूरी भी नाप ली. अन्दर ही अन्दर यह डर था कि इतने लम्बे समय बाद बाइक का चलाना कहीं कुछ अनर्थ न कर दे, ख़ुशी के इस अवसर में कोई दुःख का भाव पैदा न कर दे तो रफ़्तार भी नियंत्रण में थी. बाइक ने अभी कुछ मीटर की दूरी ही नापी होगी कि छोटे भाई और उसके दोस्तों की नजर हमारे इस कारनामे पर पड़ी.

उन लोगों ने अगले ही पल हमारी बाइक को घेरकर पकड़ लिया. उन सबके हावभाव, आँखों में हमारे बाइक चलाने में आश्चर्य से ज्यादा भय जैसा दिखा, हमारी सुरक्षा का भाव दिखा. हम और हमारी बाइक उनके घेरे में बंद खड़ी थी. उन सबकी आँखें अपनी कहानी कह रही थीं जिन्हें पढ़ना सहज था. उनकी भावनाओं को समझते हुए, ख़ुशी के अवसर को बस ख़ुशी का अवसर बनाये रखते हुए बाइक उनके हवाले कर दी.

छड़ी और कृत्रिम पैर के सहारे चलते हुए विश्वास भी साथ चलता रहता, आगे-आगे बढ़ता रहता. उस दिन बाइक चलाने ने, भले ही बाइक ने दूरी कम नापी हो, आत्मविश्वास बहुत लम्बी दूरी नाप ली थी.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

38 - नए साथी संग पुरानी राहों की ओर

अंततः वह दिन भी आ गया जबकि हमें अंतिम बार एलिम्को जाना था. वैसे एलिम्को में अंतिम बार जाने की बात सोचना महज एक कल्पना ही थी, हमारी अतिशयता कही जाएगी क्योंकि कृत्रिम पैर के कारण वहाँ से एक सम्बन्ध बन गया था. अपने पैर के सम्बन्ध में अब वहाँ आना-जाना तो लगा ही रहना था. उनके द्वारा बनाये गए पैर की अनुमानित आयु पाँच वर्ष बताई जा रही थी. ऐसे में हमारे दिमाग में ये तो था कि पाँच साल तो यहाँ आना नहीं है. इतने आगे का सोचने के पहले सबकुछ उन्हीं दिनों के हिसाब से चल रहा था.


चलने का अभ्यास करते-करते थकान सी होने के साथ-साथ ऊबन भी होने लगी थी. अपने दाहिने पैर की स्थिति के कारण हमें भली-भांति पता था कि हम जितना चल पा रहे हैं, वह बहुत है. छड़ी के सहारे से अब खुद का संतुलन बनाने लगे थे. एलिम्को के हॉल में बने निश्चित स्थान की बजाय अब हॉल में चलना शुरू कर दिया था. उसी हॉल में एक किनारे बनी सीढ़ियों पर भी चढ़ने-उतरने का अभ्यास सफलता से किया जा चुका था, इसके बाद भी वहाँ से रिलीव करने जैसी कोई स्थिति दिखाई नहीं देती थी.


दो-चार दिन पर जब भी रिलीव किये जाने के बारे में वहाँ के डॉक्टर अथवा कर्मचारियों से पूछा जाता तो उनका एक निश्चित ढर्रे वाला जवाब होता, बस दो-तीन दिन और अभ्यास कर लीजिये, फिर चले जाइएगा.

इसी में एक दिन हमने गुस्से में वहाँ के एक कर्मचारी से कह दिया कि कल हमारी डॉक्टर साहब से बात करवाओ. यदि वे कल रिलीव नहीं करेंगे तो हम वापस उरई लौट जायेंगे.

यदि बिना पैर के वापस लौट जायेंगे तो फिर चलेंगे कैसे? काम कैसे करेंगे? हमारी बात सुनकर उसका सवाल आया.

हमने उससे मुस्कुराते हुए कहा कि हमारे साथ उरई चलना और देख लेना कि हमारे इतने शुभचिंतक हैं कि वे हमें सहारा देकर चलाएंगे. वे हमें कंधे पर ले जाकर सारे काम करवाएँगे.

चूँकि उतने दिनों के चलने के अभ्यास के दौरान मित्रता जैसी स्थिति बनी हुई थी. उस व्यक्ति को भी हमारी दुर्घटना और हमारे साथ लोगों के सहयोग की जानकारी थी. इस कारण उसने बस मुस्कुराते हुए एक-दो दिन में निश्चित ही वहाँ से रिलीव करवाने का आश्वासन दिया.

तीन-चार दिन बाद वहाँ के डॉक्टर से बात की. उन्होंने फिर हमारा चलना देखा, चलने में आ रही कुछ दिक्कतों को समझा, उनको दूर करने के उपाय बताए और फिर अगले दिन रिलीव किये जाने की अनुमति दे दी. कृत्रिम पैर को अंतिम रूप दिया जाने लगा. पैर के ऊपर कवर चढ़ाया गया. कमर की बेल्ट का नाप लेकर उसे लगाया गया. अगले दिन बस अपने उस साथी को लेने जाना था जिसे हमारे शरीर का अंग न होकर भी शरीर का अंग बनना था.

पैर पहनने के बाद, छड़ी के सहारे चलते हुए एलिम्को के हॉल से बाहर आकर जीजा जी की कार में बैठने तक की दूरी किसी समय मैदान में दस हजार मीटर की दूरी नापते जैसी लगी. लगभग एक साल बाद अपने दोनों पैरों पर खड़े होकर आसमान को निहार रहे थे. खुली हवा में साँस ले रहे थे. दिन की चमकती रौशनी देख रहे थे. किसी समय बहुत तेज चलने पर साथ चलने वालों के द्वारा जब ये कहकर टोका जाता कि आराम से चला करो, दौड़ते क्यों हो, तो धीमा चलने पर आलस लगता था मगर उस दिन आराम-आराम से एक-एक कदम का बढाया जाना रोमांचित कर रहा था, ख़ुशी दे रहा था.

उन्हीं धीमे-धीमे बढ़ते कदमों के सहारे अब आसमान की दूरी को नापना था. आसमान से भी आगे जाने की तमन्ना को पूरा करना था. न सही दस हजार मीटर की दौड़ मगर किलोमीटरों की यात्रा को पूरा करना था. यही सोचते हुए कार का दरवाजा खुद खोलते हुए घर आने के लिए आगे की सीट पर बैठ गए. उस दिन ख़ुशी एक अकेले हमारी आँखों में नहीं थी बल्कि सभी की आँखें ख़ुशी से चमक रही थीं.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

37 - छोटे-छोटे कदमों का लड़खड़ाना और चल पड़ना

समय अपनी तरह से हमारी परीक्षा लेने में लगा हुआ था. एलिम्को में हमारे चलने का अभ्यास जैसे उसी का अंग बना हुआ था. जिस समय पैर का नाप देने आये थे, उस समय लगा था कि कृत्रिम पैर बनाकर दे देते होंगे. जब पैर बनकर तैयार हुआ और पहले दिन चलने का अभ्यास किया तब भी यही अंदाजा लगाया था कि एक-दो दिन ही यहाँ आकर अभ्यास करना होगा. एलिम्को आने के बाद रोज ही मालूम चलता कि अभी कुछ दिन और आना होगा. हम अपनी मानसिक स्थिति को जितना मजबूत बनाने की कोशिश करते, पैरों की स्थिति उसे उतना ही कमजोर बनाने का प्रयास करती. दिन भर के अभ्यास के बाद शाम को एक अनिश्चितता लेकर वापस घर जाना होता.


इस दौरान लगभग अस्सी वर्ष की एक वृद्ध महिला को देखा. एक युवा लड़की से परिचय हुआ जिसके दोनों पैर कृत्रिम लगे हुए थे. उसके दोनों पैर घुटने के ऊपर से कटे हुए थे. हमें अभ्यास करते देख वह स्वयं चलकर पास आई. अपने अनुभव बताते हुए चलने सम्बन्धी कुछ सुझाव भी दिए. एक युवा लड़के से मुलाकात हुई जिसका एक पैर महज नौ वर्ष की उम्र में ही एक दुर्घटना में कट गया था. ऐसे कई-कई लोगों से मुलाकात, परिचय बना हुआ था. इन सबके बीच दिमाग में जल्दी से जल्दी वहाँ के माहौल से निकलने की कोशिश रहती थी.


लगभग बारह-पंद्रह दिन बाद वहाँ के डॉक्टर साहब ने आकर हमारे चलने की स्थिति देखी. एलिम्को में डॉक्टर द्वारा देखना नियमित रूप से नहीं होता था. वहाँ उनके सहायक अपनी देख-रेख में अभ्यास करवाते थे. उस समय हम चलने के अभ्यास के लिए बने निश्चित समय से बाहर चलने का अभ्यास कर रहे थे. ऐसा करते हुए कोई दो-तीन दिन हुए होंगे. हॉल में चलने के दौरान एक छड़ी का सहारा लेकर चलने का अभ्यास किया जा रहा था. छड़ी के साथ चलना सहज तो नहीं हो रहा था मगर कुछ-कुछ चल ले रहे थे. डॉक्टर साहब ने छड़ी का सहारा लेकर चलते देखा तो उन्होंने बिना छड़ी के चलने को कहा. इस पर हमने अपने दाहिने पंजे और घुटने के दर्द की स्थिति बताते हुए चलने में कठिनाई होने की बात कही. उन्होंने हमारी बात को सिरे से खारिज करते हुए हमारे हाथ से छड़ी अपने हाथों में ले ली और बोले, आप चल लेंगे. कोशिश करिए.

अब हॉल के बीचों-बीच हम बस खड़े हुए थे. हाथ में छड़ी नहीं. एक कदम उठाना ठीक वैसा ही लग रहा था जैसे कोई बच्चा अपना पहला कदम बढ़ाता है. एक डर सा पैदा हुआ और हमने एक खामोश निगाह बाँयी तरफ खड़े डॉक्टर साहब पर डाली फिर दाहिनी तरफ खड़े उनके सहायक पर डाली. दोनों लोग इतनी दूर खड़े हुए थे कि किसी असामान्य स्थिति के होने पर हाथ बढ़ाकर उनको पकड़ भी नहीं सकते थे. डॉक्टर साहब ने हमारे आसपास से सबको दूर भी कर दिया था. अब मरता क्या न करता वाली स्थिति थी.

जैसे तैसे हिम्मत बाँध कर बाँए कृत्रिम पैर को आगे बढ़ाया. एक छोटा सा कदम बढ़ गया. फिर उसके सहारे अपने दाहिने पैर को आगे बढ़ाया. फिर एक छोटा सा कदम. ‘शाबास, चलिए-चलिए’ डॉक्टर साहब का स्वर सुनाई दिया. दो छोटे-छोटे कदम बिना छड़ी के, बिना किसी सहारे के भरे तो दिल में एक और कदम सहजता से भर लेने की हिम्मत जगी. हिम्मत जुटाते हुए बाँए पैर को आगे बढ़ाया और एक अल्पविराम सा लेकर दाहिने कदम के सहारे जैसे ही एक और कदम बढ़ाने की कोशिश की दर्द की एक तेज लहर दाहिने पंजे से सिर तक दौड़ गई. खुद का संतुलन पूरी तरह से बिगड़ता हुआ लगा. ऐसा लगा कि बस जमीन पर गिरने वाले ही हैं. मुँह से सामने खड़े छोटे भाई का नाम चीखते हुए निकला. इससे पहले कि हम गिरते उसने हमें पकड़ लिया. सबकुछ पलक झपकने भर की देरी में हुआ. दाहिने पैर के अचानक से लड़खड़ाने को देखकर डॉक्टर साहब भी चिन्तित से लगे. अब छड़ी वापस हमारे हाथ में थी.  

कुछ देर आराम करने के बाद, दाहिने पंजे, पैर की मालिश करने के बाद छड़ी के सहारे धीरे-धीरे कदम फिर उठने लगे. बिना छड़ी के चलने के दुस्साहसिक कदम के बाद दर्द फिर अपने मूल रूप में शुरू हो गया. उस दिन समय से पहले अभ्यास को रोकना पड़ा, वापस घर आना पड़ा. अभ्यास करने को बनी जगह से बाहर आकर दो-तीन दिन छड़ी के सहारे किये जा रहे अभ्यास से एलिम्को से जल्द रिलीव होने की जो सम्भावना जगी थी, वह बिना छड़ी के सहारे चले महज चार कदमों ने मिटा दी.

घर तक आते-आते दर्द बुरी तरह से अपनी चपेट में ले चुका था. दाहिने पंजे में हलकी सी सूजन भी आ गई थी. अगले दिन अभ्यास के लिए जाना टालते हुए देर रात तक पैर की, पंजे की सिकाई, मालिश, दवा-मरहम में लगे रहे.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

36 - ज़िन्दगी तुझे ज़िन्दगी जीना सिखा रहे हैं

एलिम्को में नियमित रूप से जाना हो रहा था. चलने का अभ्यास पहले की तुलना में कुछ बेहतर होने लगा था. अब कृत्रिम पैर को बाँधने में पहले जैसी उलझन नहीं होती थी. कृत्रिम पैर पहनने के पहले बाँयी जाँघ पर पाउडर लगाया जाता, उसके ऊपर एक कपड़े की पट्टी पहननी होती थी उसके बाद कृत्रिम पैर को पहनना होता था. फाइबर की कैप बनी होती थी जिसमें बाँयी जाँघ अन्दर जाती थी. इसी फाइबर कैप से चमड़े की बेल्ट बंधी होती थी, जिसे कमर के चारों तरफ लपेट लिया जाता था. इसके सहारे कृत्रिम पैर को बाँयी जाँघ से अलग होने से रोका जाता था.


वातावरण में गर्मी होना शुरू हो चुकी थी. हमें वैसे भी गर्मी बहुत ज्यादा लगती है. अब आप लोगों को शायद इस पर विश्वास न हो मगर सत्य यह है कि हमें इतनी गर्मी लगती है कि सर्दियों में गरम कपड़े पहनने की आवश्यकता महसूस नहीं होती है. याद नहीं कि सर्दी से बचने के लिए गरम कपड़े अंतिम बार कब पहने थे. शौकिया पहन लिए जाते हैं, कई बार बड़ों की डांट से बचने के लिए. बहरहाल, गर्मी ज्यादा लगना एक समस्या तो है ही, साथ ही ज्यादा पसीना आना भी एक और समस्या है. इन दो समस्याओं के कारण बाँयी जाँघ की पट्टी बहुत जल्दी पसीने से भीग जाती. गर्मी के कारण कई बार छोटी-छोटी फुंसियाँ भी बाँयी जाँघ पर निकल आतीं. दाहिने पंजे, घुटने का दर्द अपनी करामात तो दिखा ही रहा था, ये समस्या भी परेशान करने लगी.


इसके बाद भी ज्यादा से ज्यादा अभ्यास करने की जिद इसी कारण बनी हुई थी कि जल्द से जल्द एलिम्को से जाना है. जल्द से जल्द अपने पैरों पर चलना है. दर्द, परेशानी एलिम्को में आये अन्य दूसरे मरीजों को देखकर भी दूर हो जाती या कहें कि उस तरफ से ध्यान हट जाता. उनको देखकर लगता कि इनसे कम समस्या है हमें. एलिम्को आने वाले तमाम मरीजों में एक मरीज को देखकर मन बहुत द्रवित हुआ था.

एक दिन हम लोग जब एलिम्को पहुँचे तो एक व्यक्ति बहुत छोटी बच्ची को लिए वहाँ हॉल में बैठा हुआ था. हमने पहुँच कर पैर पहनने की अपनी प्रक्रिया शुरू कर दी, उनकी तरफ बहुत ध्यान नहीं दिया. वहाँ एक-दो मुलाकातों तक तो किसी तरह की औपचारिकता का निर्वहन भी नहीं हो पाता था. दो-चार दिन लगातार मिलते-देखते रहने के कारण कुछ लोगों से हँसना-बोलना, नमस्कार आदि होने लग जाती थी. उस व्यक्ति को पहली बार देखा था तो स्वाभाविक तौर पर उसकी तरफ विशेष ध्यान न देकर अपने काम में लग गए.

लगभग आधा घंटे बाद एलिम्को के एक कर्मी को अपने हाथ में बहुत छोटा सा कृत्रिम पैर लिए आते देखा तो एकदम से उस व्यक्ति और उसके साथ की बच्ची की तरफ ध्यान चला गया. अपना चलना भूल हम दोनों तरफ की रॉड पकड़े वहीं खड़े रह गए. एलिम्को कर्मी के हाथ में उसी बच्ची के लिए कृत्रिम पैर था. पाँच-छह वर्ष की उस बच्ची का घुटने के नीचे से उसका एक पैर अलग हो गया था दूसरा पैर एकदम सही था. कुछ देर की पैर लगाने की प्रक्रिया के बाद वह बच्ची अपने पैरों पर खड़ी हुई. अपने पिता का हाथ पकड़, रुक-रुक कर चलना भी शुरू किया. उस समय उस बच्ची के चेहरे की ख़ुशी और उसके पिता की आँखों से छलकते स्नेह को लिखना संभव नहीं.

अपनी अवस्था के अनुसार छह-आठ महीने में पैर बदलवाने के लिए उस बच्ची को एलिम्को आना पड़ेगा. उस नन्हीं सी बच्ची की परेशानी, उसके दर्द का अनुभव करते ही एक झटके में दाहिने पैर का दर्द, बाँयी जाँघ की समस्या जैसे गायब हो गए. कुछ देर तक उसे चलने का अभ्यास करवाया गया. हर बार वह बच्ची मुस्कुराते हुए अपना अभ्यास सहजता से करती रही. अपने आपको पुरानी अवस्था में देखकर, चलता देखकर वह अवश्य ही प्रसन्न हो रही थी.

हमारे मन में अपनी और उसकी अवस्था का एकसाथ स्वरूप खड़ा हुआ तो लगा कि हमने तो फिर भी बिना इस कृत्रिम पैर के तीस वर्ष की आयु तक का स्वतंत्र आनंद, सुख उठा लिया मगर ये बच्ची तो इतनी से कम आयु में एक परेशानी, कष्ट को लेकर आगे बढ़ेगी. सिर को झटक कर सोच-विचार की श्रृंखला को तोड़ते हुए, अपने सारे दर्द भुलाते हुए चलने के अभ्यास में जुट गए.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

35 - प्रतिद्वंद्विता दर्द से और ज़िद चलते रहने की

एलिम्को के बाहर की दुनिया ही अकेली दर्द भरी नहीं दिखाई देती थी, एलिम्को के भीतर की दुनिया भी उसी दर्द से भरी नजर आई. वहाँ जैसे-जैसे दिन निकलते जा रहे थे वैसे-वैसे बहुत सारे लोगों के दर्द से परिचय होता जा रहा था. किसी का दर्द को अपने से कम समझ नहीं आ रहा था. कृत्रिम पैर पहनने, उसके साथ चलने के सुखद एहसास भरे पहले दिन उस हॉल में हम अकेले ही थे जो उस शारीरिक स्थिति से लड़ते हुए आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे थे. दूसरे दिन जब एलिम्को के उस हॉल में व्हील चेयर के सहारे पहुँचना हुआ तो चलने के अभ्यास के लिए बनी जगह पर एक हमउम्र को अभ्यास करते पाया. घुटने के नीचे से उसका पैर कटा हुआ था.


कुर्सी पर बैठकर पैर पहनने की प्रक्रिया को पूरा करते हुए खुद को वहाँ के वातावरण के साथ समायोजित करने का प्रयास करने लगे. चलने के अभ्यास के कष्ट से, दिन भर वही एक जैसी कसरत से दो-चार होने की मानसिकता पर अपना नियंत्रण बनाते हुए पैर पहन कर निश्चित जगह पर पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गए. इस बीच ध्यान दिया कि उस युवक का समय चलने के अभ्यास से अधिक मोबाइल पर बात करने में गुजरता था. बातचीत भी निर्देश देने के रूप में होती, किसी काम को बताये जाने के रूप में होती. चंद मिनट बाद वह दूसरी तरफ पड़ी कुर्सी पर बैठ गया और हमने अपनी पारी आरम्भ की. शारीरिक स्थिति पहले दिन जैसी ही रही. एक-दो चक्कर में ही पूरा शरीर पसीने से तरबतर हो गया. दाहिने पंजे में, घुटने में दर्द का एहसास किसी ताजा चोट की तरफ से समझ आने लगा. दो चक्कर बाद ही अपनी कुर्सी पर फिर बैठना हुआ. हमारे बैठते ही उस युवक ने अपना अभ्यास दोहराया. क्रमिक रूप से एक के बैठने पर दूसरा व्यक्ति अपना अभ्यास शुरू कर देता.


पिछले कुछ महीनों से खड़े होने का अभ्यास निरंतर किया जा रहा था. दाहिने पंजे में दर्द बना रहता था मगर उन दो दिनों में चलने के दौरान पंजे के साथ-साथ घुटने में जिस तीव्रता से दर्द होना शुरू हुआ वह चिंताजनक था. दर्द की स्थिति यह रहती कि कुछ फीट बने उस गलियारे में दोनों तरफ लगी स्टील रॉड पकड़ कर भी चलना मुश्किल होता था. एक-एक कदम बढ़ाने में ऐसा लगता कोई घुटने में लोहे का मोटा सूजा घुसेड़ रहा हो. अपने दर्द को खुद में सहन करते हुए उसका आभास अपने साथ किसी को नहीं होने दिया. शुरू के कुछ दिनों में एक-दो चक्कर लगाने के बाद हमारा बैठना सबको सामान्य लगा क्योंकि लगभग एक साल बाद चलना हो रहा था. ऐसे में परेशानी, दर्द, कष्ट और कृत्रिम पैर के सहारे चलने में अटपटा सा लगना स्वाभाविक था. चार-पाँच दिन बाद भी चलने की वही स्थिति देखकर सबको समझ आने लगा कि कहीं न कहीं कोई समस्या हो रही है. सो अपने दर्द के बारे में घरवालों को एक इशारा कर दिया. दर्द की तीव्रता के बारे में, अपने डर के बारे में कोई चर्चा नहीं की.

चार-पाँच दिन बाद भी जब वैसी स्थिति बनी रही तो हमें भी डर लगा. अन्दर ही अन्दर डर ये लग रहा था कि कहीं दाहिने घुटने में किसी तरह की ऐसी कमी तो नहीं आ गई या फिर कुछ ऐसी गड़बड़ तो नहीं हो गई जिस कारण चलना संभव न हो सके. शुरू में हमें लगा कि बहुत दिनों बाद चलने के कारण दर्द हो रहा है, चोट के कारण भी दर्द हो सकता है या फिर दाहिने पंजे के चोटिल होने के कारण भी घुटने पर ज्यादा जोर होने के कारण दर्द हो रहा हो. कुछ दिन बाद जब लगा कि दर्द कम होने के नाम ही नहीं ले रहा है तो इस बारे में अपने दोस्त रवि को खबर की. पाँच-छह दिन दर्द सहन करने के बाद एक दिन रवि की बताई दवा भी मँगवा ली. दर्द की तीव्रता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि आधे घंटे के भीतर 1200mg की खुराक खाने के बाद भी दर्द में रत्ती भर भी आराम नहीं मिलता. किसी-किसी समय तो एक पैर बढ़ाना भी दुष्कर समझ आता. ऐसी स्थिति में दोनों हाथों से स्टील की रॉड पकड़े वहीं खड़े हो जाते. कभी-कभी खड़े रहना भी कठिन होता तो उसी जगह कुर्सी डलवा कर बैठ जाते.

कई बार वह युवक अभ्यास के लिए नहीं आया होता तो पूरी जगह का हम अपनी तरह से उपयोग करते. उसके होने पर हम दोनों ही एक-दूसरे का ध्यान रखते हुए अभ्यास करने का समय देते. हम दोनों एक जैसे कष्ट से गुजर रहे थे और फिर एक जगह पर ही क्रम से अपना-अपना अभ्यास भी करते जा रहे थे. ऐसे में एक-दूसरे के बारे में जानने की प्रक्रिया भी शुरू हुई. कानपुर के पास उन्नाव में वह ठेकेदारी किया करता है. अपनी दुर्घटना के बारे में उसने बताया कि वह रात को खाना खाकर सो गया था. लगभग ग्यारह बजे करीब उसका भरोसेमंद व्यक्ति उसके पास आया. अगले दिन से सावन का महीना लगने वाला था. इस कारण से वह व्यक्ति चिकन पार्टी देने की जिद करने लगा. युवक ने उसको पैसे और कार की चाभी देते हुए अकेले जाने को कहा तो वह व्यक्ति तैयार न हुआ. उसकी जिद पर वह युवक भी साथ चल दिया. उसने बताया कि वे लोग हाईवे पर पहुँचे ही हैं कि एक ट्रक ने टक्कर मार दी. कार चलाने वाले उसके भरोसेमंद व्यक्ति की दुर्घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई और उस युवक को उसका पैर काटकर निकालना पड़ा. लगा कि कैसे अनहोनी खुद लेने आ जाती है.

चलने की, पैर लगने की जितनी ख़ुशी महसूस हो रही थी, उससे ज्यादा शंका घुटने के दर्द ने पैदा कर दी. चलते समय भविष्य के तमाम काम, सपने आँखों के सामने तैरते रहते. घुटने का दर्द दिमाग पर हावी न होने पाए, इस कारण उस तरफ से ध्यान हटाते हुए बस किसी भी तरह अपने चलने के अभ्यास पर लगाने का प्रयास करते. दर्द के उन क्षणों को एलिम्को में उन दिनों आने वाले अन्य लोगों ने भी कम करने में अप्रत्यक्ष योगदान दिया.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

34 - दुनिया में कितना ग़म है, मेरा ग़म कितना कम है

हमारे और एलिम्को के बीच संपर्क का माध्यम फोन बना हुआ था. कृत्रिम पैर बन जाने की सूचना मिलने के बाद फिर कानपुर जाना हुआ. दिमाग में यह था कि एलिम्को जाकर पैर पहनना है और फिर चलते हुए वापस लौटना है. इसके पहले कभी किसी से इस सम्बन्ध में बातचीत का मौका ही नहीं लगा था जिससे इस स्थिति के बारे में जानकारी की जा सकती. निश्चित तिथि को एलिम्को जाना हुआ. वहाँ अपने उस साथी से परिचय हुआ जिसके सहारे अब हमारा चलना संभव हो सकेगा.


एलिम्को के सक्रिय और सहृदय कर्मियों द्वारा पैर को पहनाया गया. वहाँ के एक हॉल में एक किनारे  बने स्थान पर चलने का अभ्यास करवाया गया. उसके पहले हमारे खड़े होने, हमारी लम्बाई के अनुसार पैर को समायोजित किया गया, कैसे पहनना है, कैसे लॉक लगाना है, कैसे उसके सहारे पैर को आगे बढ़ाना है आदि मूल बातों को सहजता से, बड़े ही अपनत्व भाव से समझाया गया.

सबकुछ एकदम नया होने के बाद अजूबा भी लग रहा था और संवेदित भी कर रहा था. आरंभिक कुछ कसरतों के बाद पैर का पहनना, उसे पहन कर खड़े होना, बिना किसी सहारे के कुछ मिनट के लिए खड़े होने का आरंभिक अभ्यास एलिम्को के उस हॉल में शुरू हो गया. हॉल के एक तरफ एक स्थान पर लगभग बीस-पच्चीस फीट लम्बा लाल कार्पेट लगा हुआ था. जमीन की सतह से लगे एक लकड़ी के लगभग दो इंच मोटे और लगभग तीन फीट चौड़े बोर्ड पर इस कार्पेट को लगाया गया था. इसके दोनों किनारों पर पूरे बीस-पच्चीस फीट की लम्बाई में स्टील की रॉड कसी हुई थीं. इनको पकड़ के, इनका सहारा लेकर उसी जगह में चलने का अभ्यास किया जाना था.


उस छोटे से गलियारे के एक तरफ से अभ्यास शुरू करके वापस उसी जगह पर आना होता था. कृत्रिम पैर पहनने के बाद की अपनी पहली चालीस-पचास फीट की इस यात्रा में पूरा शरीर पसीने-पसीने हो गया. कभी पलक झपकने भर में इतनी दूरी नापने वाले कदमों को उस दिन कुछ मिनट लग गए. पहले चक्कर के दर्द के दौरान भीतर उपजी जिद ने बिना रुके तीन चक्कर लगा लिए. लगा कि इन तीन चक्करों में कई-कई किमी की दौड़ लगाई है. कुछ देर रुक कर चलने का अभ्यास फिर शुरू हुआ.

यह क्रम कई-कई बार चला. जब खुद को यह लगने लगा कि ऐसा अभ्यास सहजता से किया जा सकता है. यह भी एहसास हुआ कि इसे घर पर भी किया जा सकता है. एलिम्को में हमारी सहायता कर रहे वहाँ के एक कर्मी से अपनी बात रखते हुए कृत्रिम पैर को अपने साथ ले जाने की बात कही तो उन्होंने इसकी अनुमति न होने की बात कही. उन्होंने बताया कि चलने का अभ्यास यही आकर करना होगा. यह भी बताया कि ऐसा तब तक करना होगा जब तक कि वहाँ के डॉक्टर चलने की स्थिति से संतुष्ट नहीं हो जाते. बातचीत के क्रम में जानकारी हुई कि ऐसी स्थिति के आने के कई-कई दिन लग जाते हैं.

अब यह समस्या जान पड़ी. कहाँ तो दिमाग में यह बनाकर आये थे कि पैर बन गया है, चलने का आरंभिक अभ्यास करने के बाद हम अपना पैर लेकर चले आयेंगे. यहाँ तो बिलकुल अलग बात बताई गई. हम जिज्जी-जीजा जी के पास रुके हुए थे और उनका निवास यशोदा नगर में था. समस्या यह थी कि एलिम्को वहाँ से ठीक दूसरे छोर पर बना हुआ था. यद्यपि एलिम्को में रुकने की व्यवस्था भी थी मगर जीजा जी ने स्पष्ट शब्दों में वहाँ रुकने को नकारते हुए रोज एलिम्को लाने का आश्वासन एलिम्को कर्मियों को दिया.

जिज्जी और जीजा जी कृत्रिम पैर के साथ चलने के अभ्यास के उस कुरुक्षेत्र में हमारे लिए श्रीकृष्ण सरीखे सारथी बनकर सजग बने रहे. कृत्रिम पैर से चलने का यह अभ्यास बीस-पच्चीस दिनों तक चला. इतने दिनों नियमित रूप से जीजा जी हमें कानपुर के भीषण ट्रैफिक से निकालते हुए समय से एलिम्को पहुँचाते और पूरे दिन हमारे साथ वहीं रुकते हुए शाम को सुरक्षित घर ले आते.

उस पहले दिन भी हम सब एक कोमल सी ख़ुशी लेकर घर लौट आये. महसूस हो रहा था कि अब कष्टों से मुक्ति मिलने वाली है. अपने पहले दिन के अभ्यास से, चलने से एक संतुष्टि मिली. इस संतुष्टि ने एहसास करवाया कि कृत्रिम पैर के सहारे चलना जल्द होने लगेगा, सहजता से होने लगेगा. यह भी लगा कि एक हफ्ते में ही एलिम्को से हमें रिलीव कर दिया जायेगा. तमाम सारे विचारों पर, सोच पर अगले दिन के अभ्यास और उसके बाद के दिनों के अनुभवों ने विराम सा लगा दिया.

दुर्घटना के समय उपजे शारीरिक कष्ट, दर्द से कहीं अधिक दर्द उन दिनों में अनुभव किया, जो आजतक साथ है. एलिम्को के उन दिनों ने बहुत से अनुभवों से परिचय करवाया. लोगों के दर्द, पीड़ा, मनोदशा, पारिवारिक दशा, सामाजिक स्थिति से भी परिचय करवाया. बच्चों से लेकर वृद्धजन तक उन दिनों में इसी कृत्रिमता के साथ आते-जाते रहे. एक गीत की पंक्ति वहाँ सदैव याद आती रही, दुनिया में कितना ग़म है, मेरा ग़म कितना कम है.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

33 - अब प्रतीक्षा अपने दोनों पैरों पर चलने की

नमस्कार मित्रो, इधर आपसे बातचीत किये लम्बा समय हो गया. दुर्घटना के बाद से आप सभी के स्नेह के साथ चलते हुए एलिम्को तक पहुँच गए थे. वहाँ डॉक्टर ने पैर की, उस पर आई नई त्वचा की स्थिति देखकर पैर बनाने से इंकार कर दिया. यह इंकार स्थायी या दीर्घकालिक नहीं था बल्कि कुछ दिनों के लिए ही था. उनकी तरफ से आश्वासन मिला था कि पैर बन जायेगा, बस पैरों की स्थिति और बेहतर हो जाये. उस समय वापस घर लौट आये थे, कुछ आशा और कुछ निराशा लेकर.


आशा-निराशा के उन तमाम भावों को लेकर आना तो हो गया मगर समय ऊहापोह में निकल रहा था. यह ऊहापोह खुद की मानसिकता को लेकर था. अभी तक खुद के खड़े हो पाने को लेकर विचार बनते-बिगड़ते रहते थे. अब दिमागी उठापटक चल रही थी कि कृत्रिम पैर के साथ चलना हो पायेगा या नहीं? ऐसा अपने दाहिने पैर के कारण लग रहा था. घर पर किये जा रहे व्यायाम के दौरान दाहिने पैर के सहारे खड़े होने की कोशिश की जाती है, कुछ-कुछ मिनट तक खड़े रहने का अभ्यास किया जाता. इस अभ्यास के दौरान पंजे में भयंकर दर्द होता. कई-कई बार लगता कि यह दर्द कभी चलने न देगा, एक कदम आगे न बढ़ने देगा, अपने पैरों पर फिर न खड़े होने देगा.



फिर वह दिन भी आ गया जब हम एलिम्को जाने के लिए फिर तैयार हुए. पहली बार एलिम्को जाने में कोई संदेह नहीं था क्योंकि हम अपनी स्थिति को बेहतर मान रहे थे मगर अबकी, दोबारा एलिम्को जाते समय मन में एक संदेह उपज रहा था. एक डर लग रहा था कि कहीं इस बार भी डॉक्टर बैरंग न लौटा दे. एलिम्को पहुँचने के बाद डॉक्टर द्वारा उसी तरह से गहन जाँच की गई और उनकी संतुष्टि के बाद हम सबके चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ गई.

एलिम्को की अपनी प्रक्रिया द्वारा पैर की नाप ली गई. हमारी पूरी लम्बाई को जाँचा-परखा गया. पट्टियों, प्लास्टिक ऑफ़ पेरिस आदि की सहायता से बाँयी जाँघ की नाप ली गई. यह सब जाँघ का साँचा बनाये जाने के लिए किया जा रहा था. इसी साँचे के द्वारा फाइबर की एक कैप बनाई जाती है. इसे पैर के उस भाग पर पहन लिया जाता है. फाइबर के इसी हिस्से से घुटने के नीचे वाला पैर का कृत्रिम हिस्सा जुड़ा होता है. इसी जगह पर एक लॉक भी लगा होता है, जिसकी सहायता से पैर को मोड़ सकते हैं, सीधा रख सकते हैं.

पैर की नाप ले ली गई थी मगर अभी भी इंतजार करना था. पहले इंतजार किया पैर की नाप के लिए, अब इंतजार करना था पैर के बन जाने का. एलिम्को में कृत्रिम हाथ, पैरों की तथा अन्य सहायक उपकरणों की जिस तरह से माँग है उसे देखते हुए वहाँ समय लगता है. उनकी तरफ से जगहों-जगहों पर दिव्यांगजनों के वितरण हेतु कैम्पों का आयोजन होता रहता है. इसके चलते भी वहाँ व्यस्तता बनी रहती है.

पैर का नाप देने और आगे की स्थिति से परिचित होने के बाद हम लोग फिर घर वापस लौट आये. मन में सुकून था कि अबकी जब एलिम्को जाना होगा तो पैर लेने के लिए जाना होगा. अब भले एक पैर के सहारे जायेंगे मगर वापसी दोनों पैरों से करेंगे. तमाम दुखों के बीच से ख़ुशी की एक लहर उठती देख कर मन प्रसन्न हो रहा था. इसके अलावा प्रसन्नता परिजनों की ख़ुशी देखकर भी हो रही थी, जिनके लिए हमारे चलने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हमारा जीवित रहना था. सभी के साथ हँसी-ख़ुशी से दिनों को बिताते हुए उस दिन का इंतजार करने लगे जबकि हम दो पैरों पर चलने के लिए एलिम्को जायेंगे.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

32 - आशा-निराशा के बनते-बिगड़ते पल

गुजरते, इंतजार करते-करते अंततः वह दिन भी आ गया जबकि कृत्रिम पैर लगवाने की अनुमति दोनों पैरों के घावों की तरफ से मिल गई. अभी पैर बना भी नहीं था, पैर का नाप भी नहीं दिया गया था मगर अपने आपमें लगने लगा था जैसे कि हम अपने पैरों पर चलने लगे हैं. व्हीलचेयर भी अपने पैरों जैसी महसूस होने लगी. यद्यपि उन्हीं दिनों में खड़े होने के अभ्यास के साथ-साथ चलने का प्रयास भी किया था तथापि वह सफल नहीं हो सका था.


हाँ, सही कह रहे हैं, उस समय जबकि हमारा पैर नहीं बना था तो घर पर चलने की कोशिश की. इस कोशिश को दो-तीन बार अंजाम दिया गया मगर हर बार परिणाम हमारे पक्ष में नहीं आया. पैरों की स्थिति देखकर लग रहा था कि अभी घावों के भरने में समय लगेगा, उसके बाद उन पर आने वाली त्वचा के पूरी तरह से सही होने में भी समय लग सकता है. ऐसे में व्हीलचेयर के अलावा चलने-फिरने के अन्य साधनों पर भी विचार किया गया था. उन्हीं विचारों में बैसाखियों को स्वीकारते हुए हमारा साथी बनाने की कोशिश की गई. हमने भी बड़े झिझकते हुए उनके साथ खुद का तालमेल बिठाने की कोशिश की.

घर में कई बार उनके सहारे चलने की कोशिश की मगर हर बार नाकामी ही हाथ लगी. कभी भी बिना सहारे के दो-चार कदम से ज्यादा आगे नहीं बढ़ सके. जब भी बिना सहारे के चलने का प्रयास किया तो बस गिरने की स्थिति में पहुँच गए. उस समय हमारे लिए हमारे चलने से ज्यादा अपनी उसी बची-खुची शारीरिक स्थिति को बनाये रखना था. नहीं चाहते थे कि हमारी किसी भी तरह की गलती से चोटिल पैरों में कोई और चोट आये या फिर हम ही किसी और रूप में घायल हो जाएँ. तीन-चार बार की असफल कोशिश के बाद बैसाखियों के साथ चलने का इरादा हमने छोड़ दिया.


नया वर्ष आ चुका था. पुराने बीते वर्ष की बुरी यादों को उसी के साथ छोड़ आने का विचार था मगर दिल-दिमाग सबकुछ अपने साथ समेट कर नए वर्ष में ले आया. उन्हीं सब यादों को समेटे एक दिन कृत्रिम पैर बनवाने के लिए कानपुर को चल दिए. कृत्रिम पैर बनवाने के लिए कानपुर और जयपुर ही बताया गया था. अपनी चलने-फिरने की स्थिति को देखते हुए कानपुर में पैर बनवाना उचित लगा. वहाँ स्थित एलिम्को के बारे में सुन भी रखा था.

अभी तक कृत्रिम पैरों के बारे में सुन रखा था, कुछ लोगों को कभी लगाये देखा भी तो उनसे इस बारे में जानकारी करने की कोशिश नहीं की. इसके पीछे कारण यही रहता था कि कहीं अगले व्यक्ति को ख़राब न लगे. अब जबकि खुद इस स्थिति से गुजरे तो लगा कि इस बारे में भी जानकारी सार्वजनिक होनी चाहिए ताकि ऐसे लोगों को भी इसका लाभ मिल सके, जिनके सम्बन्ध व्यापक रूप से फैले नहीं हैं.

एलिम्को के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. कैसे पैर बनेगा, कब मिलेगा, कैसे चलना होगा, कैसे लगेगा आदि-आदि सवालों को दिमाग में लेकर हम लोग एलिम्को पहुँचे. सम्बंधित संस्थान के कर्मियों के अलावा इक्का-दुक्का लोग ही वहाँ उपस्थित थे. पैर बनवाने की प्रक्रिया की जानकारी करने के बाद वहाँ के डॉक्टर का इंतजार किया जाने लगा. उनकी अनुमति के बाद ही पैर के नाप लेने की, उसके बनाये जाने की प्रक्रिया आगे चलती.

जिस हॉल में हम लोगों को बिठाया गया वहाँ कई सारे पैर बने हुए रखे थे. उनके आकार को देखकर स्पष्ट समझ आ रहा था कि पैरों की स्थिति के अनुसार वे विशेषज्ञ टीम द्वारा बनाये गए हैं. पैर बन जाने के बाद उसी हॉल में एक तरफ बनी पट्टी पर चलने का अभ्यास करना पड़ता है. एलिम्को के कर्मियों की देखरेख में चलने का अभ्यास पूरे दिन करना होता है. किसी तरह की तकलीफ होने की स्थिति में, कृत्रिम पैर के दूसरे सही पैर के नाप से छोटे-बड़े होने की स्थिति में, चलने में किसी दिक्कत को लेकर अथवा किसी अन्य समस्या के समाधान के लिए वहाँ के कर्मचारी, डॉक्टर लगातार तत्पर, सजग बने रहते हैं. पैर पहनने, चलने का अभ्यास सही से हो जाने के बाद ही वहाँ के डॉक्टर द्वारा हरी झंडी मिलती है.

जब तक डॉक्टर साहब का आना नहीं हुआ, उतनी देर तक अनेक विचार दिमाग में बनते-बिगड़ते रहे. उस पूरे हॉल के वातावरण के साथ अपना साम्य बिठाने की कोशिश करते रहे. उन बने रखे हुए तमाम कृत्रिम पैरों में से अपने नाप के पैर के साथ तादाम्य बनाते रहे. मन ही मन उनको पहनने की प्रक्रिया पर विचार होता रहा. उनके खोलने, पैर के मोड़े जाने के बारे में विचार किया जाता रहा. चूँकि हमारा पैर घुटने के ऊपर से कटा हुआ था ऐसे में यह निश्चित था कि जो कृत्रिम पैर बनेगा उसमें घुटने की मुड़ने वाली प्रक्रिया अब हमारे नियंत्रण में नहीं होगी. इसी स्थिति का संतुलन हमारे चलने में सहायक सिद्ध होगा.

कुछ देर बाद डॉक्टर साहब का आना हुआ. उन्होंने पैर की स्थिति का मुआयना किया. पैर बनने की प्रक्रिया से सम्बंधित बाँयी जाँघ की, उसकी त्वचा की जाँच करने के बाद उन्होंने उस समय पैर का नाप लेने से इंकार कर दिया. उनके परीक्षण के अनुसार अभी बाँयी जाँघ की खाल इतनी मजबूत नहीं हो सकी थी कि कृत्रिम पैर के दवाब को, उसके घर्षण को बर्दाश्त कर सके. उन्होंने दाहिने पंजे की भी स्थिति को देखा था. उसके चलते भी वे हम लोगों के लगातार अनुरोध के बाद भी पैर का नाप के लिए तैयार नहीं हुए.  

जिस आशा के साथ एलिम्को आना हुआ था वह क्षीण होती नजर आई. पता नहीं कब तक स्किन ऐसी होगी, घाव ऐसा होगा कि पैर बनाया जा सकेगा? पता नहीं कब हम बिना किसी सहारे के, बिना व्हीलचेयर के चल सकेंगे?

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

48 - हवा में उड़ता जाए मेरा दीवाना दिल

स्कूटर के आने के बाद शुरू के कुछ दिन तो उसे चलाना सीखने में निकले. पहले दिन ही अपने घर से सड़क तक की गली को पार करने में ही लगभग पंद्रह मिनट ...