38 - नए साथी संग पुरानी राहों की ओर

अंततः वह दिन भी आ गया जबकि हमें अंतिम बार एलिम्को जाना था. वैसे एलिम्को में अंतिम बार जाने की बात सोचना महज एक कल्पना ही थी, हमारी अतिशयता कही जाएगी क्योंकि कृत्रिम पैर के कारण वहाँ से एक सम्बन्ध बन गया था. अपने पैर के सम्बन्ध में अब वहाँ आना-जाना तो लगा ही रहना था. उनके द्वारा बनाये गए पैर की अनुमानित आयु पाँच वर्ष बताई जा रही थी. ऐसे में हमारे दिमाग में ये तो था कि पाँच साल तो यहाँ आना नहीं है. इतने आगे का सोचने के पहले सबकुछ उन्हीं दिनों के हिसाब से चल रहा था.


चलने का अभ्यास करते-करते थकान सी होने के साथ-साथ ऊबन भी होने लगी थी. अपने दाहिने पैर की स्थिति के कारण हमें भली-भांति पता था कि हम जितना चल पा रहे हैं, वह बहुत है. छड़ी के सहारे से अब खुद का संतुलन बनाने लगे थे. एलिम्को के हॉल में बने निश्चित स्थान की बजाय अब हॉल में चलना शुरू कर दिया था. उसी हॉल में एक किनारे बनी सीढ़ियों पर भी चढ़ने-उतरने का अभ्यास सफलता से किया जा चुका था, इसके बाद भी वहाँ से रिलीव करने जैसी कोई स्थिति दिखाई नहीं देती थी.


दो-चार दिन पर जब भी रिलीव किये जाने के बारे में वहाँ के डॉक्टर अथवा कर्मचारियों से पूछा जाता तो उनका एक निश्चित ढर्रे वाला जवाब होता, बस दो-तीन दिन और अभ्यास कर लीजिये, फिर चले जाइएगा.

इसी में एक दिन हमने गुस्से में वहाँ के एक कर्मचारी से कह दिया कि कल हमारी डॉक्टर साहब से बात करवाओ. यदि वे कल रिलीव नहीं करेंगे तो हम वापस उरई लौट जायेंगे.

यदि बिना पैर के वापस लौट जायेंगे तो फिर चलेंगे कैसे? काम कैसे करेंगे? हमारी बात सुनकर उसका सवाल आया.

हमने उससे मुस्कुराते हुए कहा कि हमारे साथ उरई चलना और देख लेना कि हमारे इतने शुभचिंतक हैं कि वे हमें सहारा देकर चलाएंगे. वे हमें कंधे पर ले जाकर सारे काम करवाएँगे.

चूँकि उतने दिनों के चलने के अभ्यास के दौरान मित्रता जैसी स्थिति बनी हुई थी. उस व्यक्ति को भी हमारी दुर्घटना और हमारे साथ लोगों के सहयोग की जानकारी थी. इस कारण उसने बस मुस्कुराते हुए एक-दो दिन में निश्चित ही वहाँ से रिलीव करवाने का आश्वासन दिया.

तीन-चार दिन बाद वहाँ के डॉक्टर से बात की. उन्होंने फिर हमारा चलना देखा, चलने में आ रही कुछ दिक्कतों को समझा, उनको दूर करने के उपाय बताए और फिर अगले दिन रिलीव किये जाने की अनुमति दे दी. कृत्रिम पैर को अंतिम रूप दिया जाने लगा. पैर के ऊपर कवर चढ़ाया गया. कमर की बेल्ट का नाप लेकर उसे लगाया गया. अगले दिन बस अपने उस साथी को लेने जाना था जिसे हमारे शरीर का अंग न होकर भी शरीर का अंग बनना था.

पैर पहनने के बाद, छड़ी के सहारे चलते हुए एलिम्को के हॉल से बाहर आकर जीजा जी की कार में बैठने तक की दूरी किसी समय मैदान में दस हजार मीटर की दूरी नापते जैसी लगी. लगभग एक साल बाद अपने दोनों पैरों पर खड़े होकर आसमान को निहार रहे थे. खुली हवा में साँस ले रहे थे. दिन की चमकती रौशनी देख रहे थे. किसी समय बहुत तेज चलने पर साथ चलने वालों के द्वारा जब ये कहकर टोका जाता कि आराम से चला करो, दौड़ते क्यों हो, तो धीमा चलने पर आलस लगता था मगर उस दिन आराम-आराम से एक-एक कदम का बढाया जाना रोमांचित कर रहा था, ख़ुशी दे रहा था.

उन्हीं धीमे-धीमे बढ़ते कदमों के सहारे अब आसमान की दूरी को नापना था. आसमान से भी आगे जाने की तमन्ना को पूरा करना था. न सही दस हजार मीटर की दौड़ मगर किलोमीटरों की यात्रा को पूरा करना था. यही सोचते हुए कार का दरवाजा खुद खोलते हुए घर आने के लिए आगे की सीट पर बैठ गए. उस दिन ख़ुशी एक अकेले हमारी आँखों में नहीं थी बल्कि सभी की आँखें ख़ुशी से चमक रही थीं.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

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