48 - हवा में उड़ता जाए मेरा दीवाना दिल

स्कूटर के आने के बाद शुरू के कुछ दिन तो उसे चलाना सीखने में निकले. पहले दिन ही अपने घर से सड़क तक की गली को पार करने में ही लगभग पंद्रह मिनट लग गए थे. पहले लगा कि एक साल से अधिक समय बाद किसी वाहन को चलाया है, इस कारण कुछ असहजता है मगर कुछ देर बाद भी जब हाथ सहज न हुआ तब दिमाग ने काम करना शुरू किया. अब दिमाग ने काम करना शुरू किया तो फिर कारण समझ में आना ही था.


चूँकि एक पैर के न होने की स्थिति में किसी भी दोपहिया वाहन को पैरों से नियंत्रित, संतुलित करना सहज नहीं था. कृत्रिम पैर पर हमारा किसी तरह का नियंत्रण नहीं था. शारीरिक, मानसिक नियंत्रण से मुक्त वह स्वच्छंद था, ऐसे में उसके साथ किसी भी तरह के दोपहिया वाहन को चलाने में कुछ संकट जैसी स्थिति थी, कुछ समस्या जैसी भी थी. बहरहाल, हमारे आवागमन के लिए हमारी वर्तमान शारीरिक स्थिति को देखते हुए स्कूटर बनवाया गया था. किसी भी स्थिति में स्कूटर को गिरने से बचाए रखने के लिए उसके पीछे पहिये के अगल-बगल एक-एक पहिया और लगाया गया था. इसके कारण स्कूटर को गिरने से रोकने के लिए, उसे नियंत्रित करने के लिए पैरों का इस्तेमाल नहीं करना होता था. अगल-बगल लगे दोनों पहिये के सहारे स्कूटर नियंत्रित रहता था.


एक तरफ ये दोनों पहिये स्कूटर को सँभालते हैं, उसे गिरने से रोकते हैं तो दूसरी तरफ यही दोनों पहिये स्कूटर चलाने में मुश्किल पैदा भी करते हैं. उस दिन जैसा हो रहा था, यदा-कदा आज भी हो जाता है. उस शाम जब पहली बार स्कूटर को अपनी गली में चलाते हुए सड़क तक ले जाने की कोशिश की तो अगल-बगल के पहियों के कारण स्कूटर एक तरफ भागने लगता.  जैसी कि पहले की आदत पड़ी हुई थी, स्कूटर को नियंत्रित करने के लिए दाहिने पैर को जमीन पर टिकाने की कोशिश करते तो वह अगल-बगल के पहियों के लिए बने फ्रेम में फँस जाता. ऐसा कई बार हुआ, इससे पैर कई जगह छिल गया, खून भी निकलने लगा.




एकबारगी लगा कि घर वापस चला जाये, जब अभी सुनसान गली में जरा सा भी नहीं चला सके तो भीड़ भरी सड़क पर कैसे चलाएँगे. ऐसा विचार दिमाग में आते ही एक जिद दिल-दिमाग में हावी हुई कि देखते हैं कब तक नहीं चला पाते. बस, फिर क्या था लगा जैसे कि स्कूटर कोई चुनौती दे रहा है. कई जगह खरोंच खा चुके पैर का दर्द भूल कर स्कूटर को सँभालने पर ध्यान देना शुरू किया. एक तरफ से हैंडल कसकर थामते तो दूसरी तरफ भागना शुरू करता, दूसरी तरफ से उसे नियंत्रित करते तो वह पहली तरफ मुड़ जाता. स्कूटर और हम जैसे अपनी-अपनी जिद पर अड़े थे. अंततः जिद पर हम हावी हो ही गए.


कुछ देर की मशक्कत के बाद, चोट-खरोंच के बाद स्कूटर सड़क पर था. एक चक्कर के बाद हैंडल भी कब्जे में था, स्कूटर भी नियंत्रण में था, गति भी स्थिर थी और हम.... हम तब से आज तक हवा से बातें करने में लगे हैं.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

48 - हवा में उड़ता जाए मेरा दीवाना दिल

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