42 - सम्भव और असम्भव से उपजे विश्वास की जीत

पैर लगने के बाद के कुछ महीने तो उसके साथ अपना सामंजस्य बनाने में निकले. चलने, बैठने, खड़े होने का अभ्यास निरंतर चलता रहा. कभी सहजता मालूम पड़ती तो किसी दिन बहुत समस्या मालूम पड़ती. पैर को सहारा देने के लिए कमर से बाँधने वाली चमड़े की बेल्ट के अपने कष्ट थे. गरमी के दिनों में जबरदस्त पसीने के कारण बेल्ट देह से चिपक जाती और जरा सा भी इधर-उधर घूमने पर कमर की खाल अपने संग चिपका कर बाहर निकाल लेती. बाँयी जाँघ का भी कुछ इसी तरह का हाल था.


इन सबके बीच वे सारे काम करने का प्रयास रहता था जो दुर्घटना के पहले करते थे. कुछ काम आसानी से होने लगे और कुछ में दिक्कत हुई. कुछ काम ऐसे थे जो किये ही न जा सके और शायद आगे उनका करना संभव भी नहीं लगता. इसमें एक काम दौड़ने का है. बहुत कोशिश की दौड़ने की. खुले मैदान में प्रयास किया तो बंद कमरे में कोशिश की, इस चक्कर में कई बार गिरे भी. अंततः दिल-दिमाग ने मान लिया कि अब दौड़ लगाना संभव नहीं. हाँ, कृत्रिम पैर के साथ जितनी अधिक तेजी से चलना संभव हो सकता था, उस गति को अवश्य प्राप्त कर लिए था. ऐसे ही न कर पाने  वाले कामों में एक काम बाइक चलाना भी रहा. दो-तीन बार के प्रयासों के बाद सफलता नहीं मिली. वैसे भी यदि बाइक चलाना होता भी तो किसी न किसी की सहायता से क्योंकि कृत्रिम पैर के द्वारा बाइक को सँभाल पाना आसान नहीं था.



बहुत सारे कामों को करने और बहुत से कामों को न कर पाने के बीच एक दिन कार चलाने का मौका मिला. उसके पहले कई बार विचार आता था कि जिस तरह बाइक नहीं चला पा रहे अथवा बाइक चलाने में असमर्थ रहे क्या ऐसा ही कार चलाने में होगा? उस दिन कॉलेज के राष्ट्रीय सेवा योजना शिविर में सहभागिता की जा रही थी. कमरे में सारे विद्यार्थी बैठे हुए थे. अतिथियों के, प्रबुद्धजनों के व्याख्यान चल रहे थे. उसी में गर्मी के कारण कुछ असहजता सी महसूस हो रही थी तो हम बाहर निकल आए.


एनएसएस शिविर में हमारा जाना डीवी कॉलेज, उरई के तत्कालीन विभागाध्यक्ष, राजनीतिविज्ञान डॉ० आदित्य कुमार जी के साथ हुआ था. आदित्य अंकल का स्नेह, आशीर्वाद, सहयोग एक अभिभावक की तरह सदैव हमें मिलता रहा है. बाहर बैठने की कोई जगह न देखकर हमें अंकल की कार में बैठना उचित लगा. उनसे कार की चाभी लेकर ड्राइविंग सीट के बगल की सीट पर आकर आराम से पसर गए. कुछ देर बैठने के बाद मन में आया कि एक बार चलाने का प्रयास किया जाए. अपनी दुर्घटना के पहले तक उस कार को खूब चलाया भी था, सो वह बहुत अपनी सी लगती थी. इसलिए उसे चलाने को लेकर डर या संशय मन में उठा भी नहीं.


बस, दिमाग में कार चलाने का विचार आते ही अगले पल ड्राइविंग सीट पर बैठ गए. कार स्टार्ट करने के पहले कृत्रिम पैर से क्लच सञ्चालन को आजमा कर देखा. चूँकि बाएँ पैर (कृत्रिम) का उपयोग क्लच के लिए किया जाना था और कार के गियर बदलने, सही ढंग से चलने के लिए आवश्यक था कि क्लच सही से अपना काम करे. एक-दो बार की कोशिश के बाद लगा कि कार चलाने में कोई दिक्कत नहीं आएगी. उसके बाद हिम्मत करके चाभी घुमाई, कार स्टार्ट, गियर लगाकर क्लच को धीरे-धीरे छोड़ते हुए कार को गति देने का काम किया. क्लच के उचित सञ्चालन हेतु कृत्रिम पैर के घुटने वाली जगह पर जोर लगाकर उसे सहजता से वापस आने देते. यह काफी मुश्किल था मगर दो-चार बार के अभ्यास से काम बन गया. वहाँ उस बड़े से मैदान के दो चक्कर लगाने के बाद विश्वास हो गया कि कार आसानी से चलाई जा सकती है. मन प्रसन्नता से झूम रहा था और अब इंतजार था कि कार्यक्रम की समाप्ति के बाद अंकल से अनुमति लेकर सड़क पर कार दौड़ाई जाए.


अंकल का आना हुआ और हमने अपना आवेदन उनके सामने रख दिया. उन्होंने बस इतना पूछा कि चला लोगे? नहीं चला पाएँगे तो आप हैं ही. हमारे इतना कहते ही अंकल हँसते हुए बगल की सीट पर आकर बैठ गए. अब कार की स्टेयरिंग हमारे हाथ थी. अबकी कार मैदान के बजाय सड़क पर दौड़ रही थी. बाजार की भीड़-भाड़ शुरू होने के पहले हमने अंकल को कार थमानी चाही तो उन्होंने हमारे विश्वास से अधिक विश्वास जताते हुए हमें ही कार चलाते हुए बाजार चलने को कहा.


स्नेहिल विश्वास भरे आशीर्वाद के मिलते ही कार ने उस दिन जो रफ़्तार पकड़ी वह अभी तक बनी हुई है. उसके बाद तो एक रिकॉर्ड ही बन गया. आदित्य अंकल के साथ कार से कहीं भी जाना हुआ हो, चाहे उरई में या फिर उरई के बाहर कार की स्टेयरिंग हमारे हाथ ही रही.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

41 - ज़िन्दगी किसी का इंतजार नहीं करती

गुजरते समय के साथ नए-नए अनुभव मिलते जा रहे थे. कृत्रिम पैर का अनुभव अपने आपमें एकदम नया और अनोखा ही था. खुद से पहले कृत्रिम पैर के बारे में पढ़-सुन रखा था मगर किसी व्यक्ति से मिलने का अवसर न आया था. अब कृत्रिम पैर की विशेषताओं, कमियों से खुद ही साक्षात्कार कर रहे थे. उठने-बैठने, चलने-फिरने को लेकर रोज ही एक अलग सी स्थिति बनती. चलते रहने के अभ्यास से ज्ञान हो रहा था कि कहाँ, किसी सतह पर कैसे और किस तरह का दवाब देना है. चूँकि दाहिने पंजे की तरफ से बहुत ज्यादा सहयोग मिल न रहा था. कहने को वह प्राकृतिक पैर था, हमारी देह से जुड़ा हुआ था मगर पंजे के लगभग संज्ञाशून्य होने के कारण वह बहुत सहयोगी नहीं बन रहा था. इसके उलट लगातार होते तीव्र दर्द के कारण कई बार वह गिराने वाली स्थिति पैदा कर देता था.


कहते हैं न कि ज़िन्दगी किसी का इंतजार नहीं करती, किसी भी परिस्थिति में रुकती भी नहीं, कुछ ऐसा ही हमारे साथ हो रहा था. हम घर पर ठहर कर उस पल का इंतजार नहीं कर सकते थे कि जब दाहिने पंजे का दर्द गायब हो तब हम अपने कामों को करने के लिए बाहर निकलें. यह भली-भांति समझ रहे थे कि समय जिस तेजी से निकल रहा है उसके साथ चलना बहुत आवश्यक है. ये और बात है कि अब लोगों के साथ दौड़ा नहीं जा सकता है मगर अपने कार्यों से, आत्मविश्वास से समय के साथ तो दौड़ लगाई ही जा सकती है.


भागदौड़ की समस्या बनी हुई थी मगर ये सभी मित्रों का, परिजनों का साथ बना हुआ था कि एक पल को यह नहीं लगा कि हम चलने में असमर्थ हैं. छोटी सी दूरी रही हो या फिर कोई लम्बी यात्रा कोई न कोई मित्र, कोई न कोई पारिवारिक सदस्य सारथी बनकर सामने आया. महसूस होता है कि महाभारत के युद्ध में कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण ने अर्जुन के लिए जिस तरह से सारथी की जिम्मेवारी सँभाल उनकी कठिन राहों को आसान किया था, कुछ ऐसा काम हमारे शुभेच्छुजन कर रहे थे. ऐसे ही सारथियों के कारण हम सहजता से ज़िन्दगी की दौड़ में, सामाजिक कार्यों की दौड़ में बढ़ते चले जा रहे थे.




दुर्घटना के पहले की हमारी सक्रियता लगभग अपने पुराने रंग में ही लौट आई थी. जो लोग वाकई दिल से हमसे जुड़े हुए थे उनके चेहरे पर चमकती प्रसन्नता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती थी. इसके अलावा समाज में ऐसे लोग भी होते हैं जो दिखावे के लिए ही आपके साथ जुड़े होते हैं, ये लोग आपके दुखों में प्रसन्न होते हैं, आपके सुख से दुखी होते हैं. हम भी समाज से बाहर के नहीं थे और उस समाज में हमारे साथ भी ऐसे लोग थे. ऐसे लोग हमारे चेहरे की हँसी, सामाजिक जीवन की सक्रियता देखकर सहज नहीं रह पा रहे थे. अक्सर ऐसे लोगों का सवाल होता कि इतने कष्ट, इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद भी ऐसी सक्रियता, ऐसी सहजता कैसे बनी रहती है?


ऐसे लोगों को बस एक ही जवाब दिया जाता कि ये समस्या अब ज़िन्दगी भर की है. यदि हमारे रोते रहने से, दुखी रहने से हमारी शारीरिक क्षति दूर हो जाये तो हम अपने समस्त परिजनों, सभी दोस्तों, सभी शुभेच्छुजनों को एकसाथ बैठाकर दुखी हों, रोते रहें. हो सकता है ऐसा करने से हमारा कटा हुआ पैर, पंजा फिर सही हो जाए. ऐसे जवाबों को सुनने के लोग आदी नहीं होते हैं. ऐसे लोग आपके कष्टों को ही सुनना चाहते हैं, आपको रोते देखना चाहते हैं.


अपने आपको मजबूत करने, लगातार सक्रिय रखने के उन्हीं दिनों में एक समाचार-पत्र के सदस्य ने हमसे बातचीत करने, साक्षात्कार प्रकाशित करने की इच्छा प्रकट की. निश्चित कर ली गई एक मुलाकात में कई सारे सवालों के बीच उनका सवाल आया कि दुर्घटना के बाद आप कहीं इसलिए तो सक्रिय नहीं हैं जिससे आप अपने परिजनों को, अपने मित्रों को ये दिखा सकें कि आपको कष्ट नहीं है? खुद आप अपने आपको कष्ट से मुक्त होने का धोखा देने के लिए तो लगातार सक्रिय नहीं रह रहे? एक पल की देरी के सबसे पहले जो विचार मन में उभरा वही उनको सुना दिया कि दुर्घटना के पहले की हमारी सक्रियता किस कष्ट को छिपाने, भुलाने के लिए थी?


वे पत्रकार महोदय ख़ामोशी से बस मुस्कुरा दिए. उस दिन उछले सवाल के बाद कई बार सोचते हैं कि क्या वाकई कष्ट को लगातार सक्रिय रहकर भुलाया जा सकता है? क्या ऐसा दर्द जो एक पल को भी आपसे दूर न गया हो, उसे छिपाया जा सकता है? ऐसी शारीरिक स्थिति जो प्रतिपल आपको किसी कमी से परिचित करवाती हो क्या उसे खुद से, परिजनों से, मित्रों से दूर रखा जा सकता है?


फिलहाल तो इस तरफ दिमाग न लगाते हुए हम लगातार अपने काम में लगे रहे. उसी में एक कोशिश कार चलाने की भी हुई और सफल भी रही. विश्वास के साथ सधे हाथों से दौड़ती कार के साथ हम भी लगातार दौड़ लगाते रहे.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

48 - हवा में उड़ता जाए मेरा दीवाना दिल

स्कूटर के आने के बाद शुरू के कुछ दिन तो उसे चलाना सीखने में निकले. पहले दिन ही अपने घर से सड़क तक की गली को पार करने में ही लगभग पंद्रह मिनट ...