14 - हँसते-हँसते तय होता जा रहा सफ़र

हॉस्पिटल का एक महीने से ज्यादा का समय पलंग पर ही गुजरा. आगे भी बहुत लम्बा समय पलंग पर ही गुजरेगा, ऐसा समझ आने लगा था. पैरों की स्थिति दिखाई तो नहीं दे रही थी मगर जिस तरह की पीड़ा हमें हो रही थी वो सब कुछ बता रही थी. बचपन से ही ऐसी आदत रही कि किसी भी स्थिति में परेशान नहीं हुए. किसी भी समस्या पर हड़बड़ाने का काम नहीं किया. किसी भी परेशानी में अपना धैर्य नहीं खोया. इसके अलावा बेकार बैठने की आदत भी कभी न रही. घर में लोग आज तक हमारी इस आदत से परेशान हैं. एक बार सुबह बिस्तर छोड़ते हैं तो देर रात सोने के समय ही बिस्तर की सेवा लेते हैं. दोपहर में सोने की आदत कभी न रही और समय के साथ यह शौक पैदा भी न कर सके.


अब यह विकट समस्या हो गई थी हमारे लिए. हॉस्पिटल में न कोई काम, न बाहर जाने जैसी स्थिति बस दिन-रात पलंग पर लेटे रहो. ऐसी स्थिति से उबरने के लिए बेहतर उपाय यही था कि सबके साथ बातचीत में ही व्यस्त रहा जाये. ऐसा भी उसी स्थिति में हो सकता था जबकि हम स्वयं हलके-फुल्के मूड में रहें. चूँकि परेशानी में भी परेशान न रहने की एक आदत है सो वही आदत उस समय भी काम आई. इसी तरह बातचीत कभी गंभीर मूड में कर नहीं पाते, उस समय भी नहीं किये. गंभीर बौद्धिक कभी बहुत देर हमसे सहन नहीं होता. ऐसा लगता है जैसे पाचन क्षमता इस बारे में बहुत अच्छी नहीं है, सो इसका उपयोग वहीं किया गया.


हर आने वाला वैसे भी एक तरह का टेंशन लेकर मिलने आता. यह भी हमें अपनी जिम्मेवारी समझ आता कि वह यहाँ से बिना किसी टेंशन के साथ जाए. जब वह घर जाये तो हमारी तरफ से निष्फिक्र होकर जाये. हमारी हलकी-फुलकी आदतों से, बातचीत से, चुटकुले सुनाने की आदत से, बातचीत में शब्दों की बखिया उधेड़कर हास्य पैदा करने की, बातचीत में हँसने-मुस्कुराने की आदत से घरवालों का परिचय तो था ही, ऐसे में यही सबसे सामान्य सा, सुलभ उपाय था. बस, हमारा हँसना सबको हँसाता. हमारा सामान्य बने रहना सबको सामान्य कर जाता. हमारा मजाकिया लहजा बनाये रखना सबको हल्का बनाये रखता. ये सबकुछ उन परिजनों के लिए अनिवार्य जैसी स्थिति थी जो दिन-रात की परवाह न करके, अपने सोने-जागने की चिंता न करके बस हमारी चिंता कर रहे थे.

बातें बहुत हैं करने-बताने को मगर सबके बारे में यहाँ कह भी नहीं सकते. किसी समय एक-एक करके उनके बारे में भी कहा-बताया जायेगा. अभी तो बस संदीप की एक बात हमेशा याद आती है कि तुम खूब भाग-भाग के सबकी सहायता करते थे, सबकी सेवा के लिए लग जाते हो, सबके लिए दिन-रात बिना अपनी चिंता किये लगे रहते थे, अब कुछ दिन चुप्पे पड़े रहो इसी बिस्तर पर और सबको तुम्हारी चिंता करने दो, तुम्हारी सहायता करने दो, अपनी सेवा करवा लो.

सही बात. खूब सेवा करवाई फिर सबसे, अभी तक करवा रहे हैं. सबका जमकर सहयोग लेते रहे, आज भी ले रहे हैं.

ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

13 - सब कुछ याद रखते हुए सब कुछ भुलाते रहते हैं

चलिए, आज कुछ और बात की जाए. बात हम अपनी ही करेंगे मगर ऑपरेशन थियेटर, घाव, उनकी साफ-सफाई, ड्रेसिंग, मरहम-पट्टी, दर्द, कष्ट, चीखना, चिल्लाना आदि से अलग. इससे तो हम हम चाह कर भी नहीं बच सकते. हॉस्पिटल वाली दिनचर्या से कई महीनों बाद मुक्ति पाने के बाद भी हॉस्पिटल से नाता बना रहा. दर्द से पीछा तो अभी तक न छूटा. अब उसकी तरफ ध्यान नहीं देते. हम दोनों अपनी-अपनी जिद पर अड़े हैं. न वो पीछे हटने के मूड में रहता है और न हम. इसी कारण दोनों ने एक-दूसरे पर ध्यान देने का बजाय अपने-अपने काम पर ध्यान देना शुरू कर दिया है. आखिर ये स्थिति ऐसी है जिसे चाह कर भी विस्मृत करना संभव ही नहीं. संभव होता तो शायद एक बार प्रयास भी करते इसे भूलने का.


बहुत से लोग पहले भी समझाते रहे, अब भी समझाते हैं कि हमें इस घटना को भूलने का प्रयास करना चाहिए. उनका ऐसा कहना हमारे प्रति स्नेह ही होता है. संभव है कि उनको लगता होगा कि ऐसी बातें करने से, बताने से, लिखने से कहीं न कहीं हम परेशान हो जाते होंगे. उनको ऐसा लगता होगा कि उस समय को याद करना हमारे लिए कष्टकारी होता होगा. कष्ट, दर्द, परेशानी तो उसी समय की बातें थीं जबकि इस घटना से हमारा गुजरना हुआ. एक बार गुजर गए और फिर समझ आया कि ये तो जीवन भर का साथ है तो फिर इसके बारे में विचार करना छोड़ दिया. परेशान कुछ समय के लिए उसी समय हुए थे, ये सोच कर कि मार्च में पिताजी का देहांत और अप्रैल में हमारी दुर्घटना, क्या मई या आने वाले महीने भी किसी दुखद समाचार के साथ आएँगे? कष्ट उसी समय होता था जब लगता था कि पिताजी के देहांत के बाद हमें परिवार का सहारा बनना था और अब हम ही सहारे से खड़े हो पायेंगे.



बहरहाल, वो कष्ट, परेशानी, दर्द वहीं छोड़ कर आगे बढ़ आये. इसके बाद भी ये भूलना संभव नहीं कि ये सब हमारे साथ हैं. आखिर भूल भी नहीं सकते. रोज ही, हर पल ही वह दिन याद आता है, उस दिन के साथ मिला कष्ट याद आता है. लाख कोशिश करते हैं, लाख लोगों का कहना मानने की सोचते हैं मगर हर बार असफल रहते हैं.

आखिर कैसे भूल जाएँ जबकि अपने शरीर में ही एक पैर का न होना दिखता है? आखिर कैसे भूल जाएँ उस कष्ट को जो सुबह आँख खुलने के साथ ही हमारे साथ अपनी आँखें खोलता है? कैसे भूल जाएँ कृत्रिम पैर पहनते समय कि कोई दुर्घटना हमारे साथ नहीं हुई? कैसे भुला दें बिस्तर छोड़ने से पहले क्षतिग्रस्त पंजे की मालिश करके उसके सहारे खड़े होने की स्थिति बनाते समय कि कहीं कोई दर्द नहीं है? कैसे भूल जाएँ कि कोई दर्द नहीं है जबकि पंजे में बिना पट्टी बांधे एक कदम चलना संभव नहीं? कैसे भुला दें कृत्रिम पैर के बोझ और हाथ में पकड़ी छड़ी को जबकि कभी हम भी एथलेटिक्स में भाग लिया करते थे? कैसे भुला दें सोने से पहले कृत्रिम पैर को, पंजे की पट्टी को उतारने के बाद पैर-पंजे में आई सूजन को मालिश से सामान्य करते समय कि उस दुर्घटना से कष्ट नहीं उपजा है

हाँ, फिर भी सब कुछ याद रखते हुए भी, सब कुछ याद आते हुए भी सब कुछ भुलाना भी है, सब कुछ भुलाते भी हैं. एक बंधी-बंधाई सी मशीनी दिनचर्या की तरह पंजे की मालिश, कृत्रिम पैर का पहनना, पट्टी बांधना, दर्द को भुलाते हुए आगे बढ़ना होता ही है. दर्द अपनी तीव्रता के साथ अपना काम करता है, हम अपनी जीवटता के सहारे अपना काम करते हैं. किसी दिन दर्द जीत जाता है, किसी दिन हम जीतने का एहसास कर लेते हैं. जब कुछ ऐसा जो आपका न होकर भी आपके साथ जुड़ जाए, कुछ ऐसा जिसके बिना आपका एक कदम आगे बढ़ाना संभव न हो तब बाकी सब कुछ भुलाया जा सकता है, बस यही सब कुछ नहीं भुलाया जा सकता है. इसी सब कुछ को याद रखते हुए, इसी सब कुछ को भुलाते रहते हैं, खुद भुलावे में रहते हैं.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

12 - उजियारे की चाह में रात को निकलता सूरज

पन्द्रह-सोलह दिन हो गए थे मगर घावों की स्थिति में उस तेजी से सुधार होता नहीं दिख रहा था, जिस तेजी से रवि चाहता था. एक तरफ घावों का जल्द भरना नहीं हो रहा था, दूसरी तरफ बेहोशी वाली दवा का हम पर बहुत ज्यादा असर न होना भी चिंता का विषय था. स्पाइनल कोर्ड में इंजेक्शन के द्वारा बहुत दिनों तक इलाज किया जाना उचित नहीं था. हम दोस्तों की इस बारे में बात भी होती रहती थी. संदीप, अभिनव, रवि और हम कॉमन दोस्तों में थे. हॉस्पिटल में कुछ दिन इस चौकड़ी का समय एकसाथ बीता. उसी दौरान बेहोशी की दवा की अधिकता के साइड इफेक्ट भी हमें बताए गए. इन लोगों के द्वारा हमें दर्द सहने की क्षमता बढ़ाने को कहा गया. हम समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर अपनी सहनशक्ति को किस स्थिति तक ले जाएँ? ऑपरेशन थियेटर में दर्द के कारण हमारा चीखना उस समय होता था जबकि चुप साधे रहने की हमारी सारी हदें पार हो जातीं. इसी बातचीत में इसकी भी सम्भावना जताई गई कि हो सकता है कि आने वाले दिनों में ड्रेसिंग के दौरान बेहोशी का एक डोज ही दिया जाए. धीरे-धीरे उसे भी बंद कर दिया जायेगा.


घावों की स्थिति देख लग रहा था जैसे ड्रेसिंग बहुत दिनों तक चलेगी. और हुआ भी कुछ ऐसा. तमाम सारे उपाय करने के बाद भी ड्रेसिंग लगभग पाँच महीने तक चली. तीन महीने तो कानपुर में इस पीड़ा से जूझना पड़ा, बाद में दो-ढाई महीने यह कष्ट उरई में सहा. उस दिन रविवार था जबकि घावों की साफ़-सफाई, ड्रेसिंग, मरहम-पट्टी का बहुत बड़ा काम हमारे होश रहने के दौरान किया गया. हमें इसका अंदाजा नहीं था कि जिस सम्भावना की चर्चा हमारे सामने ही हुई है, उसे आज से ही शुरू कर दिया जायेगा. उस रात ड्रेसिंग के दौरान हमारे साथ बचपन का एक और दोस्त अभिनव भी वहीं रुक गया.


बेहोशी की दवा की एक डोज देने के बाद रवि और उसके सहयोगियों का काम शुरू हो गया. जैसा कि और दिनों में होता था, असर जल्द ही ख़त्म हो गया. हम फिर अपनी चेतना के साथ ऑपरेशन टेबल पर थे. दूसरी डोज हमें लगनी नहीं थी, सो नहीं लगी. इसका भान हमें बिलकुल नहीं था कि जिस स्थिति को जल्द ही अपनाए जाने की बात हमारे सामने हुई थी, उसे आज से ही अपना लिया गया. उस रात बहुत देर तक दर्द जैसी स्थिति बनी रही, हमारे होश में रहने जैसी स्थिति बनी रही तो इसका एहसास होने लगा.

हम जितना दर्द सहन कर सकते थे किया, उसके बाद तो वही हाल. उस रात ऐसा लग रहा था जैसे यही अंतिम रात है. अपनी पूरी ताकत से होंठ भींच लेते, अभिनव का हाथ थाम लेते मगर दर्द से चीखना बहुत देर रोक नहीं पाते थे. ऑपरेशन टेबल पर हमारे लिटाने के साथ ही आँखों पर एक भारी सी पट्टी डाल दी जाती थी. कमर से लेकर सीने तक भी एक मोटा सा कपड़ा ओढ़ा दिया जाता. जब स्थिति हमारे नियंत्रण से बाहर लगती नजर आई. दम घुटता सा लगने लगा. महसूस होने लगा जैसे सबकुछ अंधकार में विलीन होने वाला है तो चिल्ला कर रवि को आवाज़ दी. उससे अपनी आँखों से पट्टी हटाने को कहा.

दो-चार पलों के लिए उन सबके चलते हाथ रुक गए. आँखों से पट्टी हटा दी गई. चकाचौंध रौशनी भी हमें किसी टिमटिमाते बल्ब जैसी समझ आ रही थी. चारों तरफ अँधेरा सा मालूम पड़ रहा था. किसी के भी चेहरे स्पष्ट नजर नहीं आ रहे थे. एक हाथ रवि ने, दूसरा हाथ अभिनव ने थाम रखा था. साँस तेजी से चल रही थी. अपने होंठों पर जीभ फेरते हुए कुछ कहने की कोशिश की उससे पहले अभिनव ने रुमाल निकाल माथे, चेहरे, गरदन आदि पर बहते पसीने को पोंछा.

चंद मिनट बाद आँखों को पट्टी से ढाँकने की कोशिश की तो रवि से ऐसा न करने को कहा. रवि ने बिना कुछ कहे उस पट्टी को अलग रखवा दिया. अब खुली आँखें कभी दर्द से बंद हो जातीं, कभी अभिनव के चेहरे पर जम जातीं. ड्रेसिंग के बाद बहुत देर हम और अभिनव उसी कमरे में बने रहे. हमारी स्थिति ऐसी भी नहीं थी कि उसकी किसी बात का सहजता के साथ जवाब दे पाते. दुर्घटना की पहली शाम जिस तरह से साँसों का टूटना हो रहा था, हाँफना हो रहा था, आवाज़ का लड़खड़ाना हो रहा था कुछ ऐसा ही या कहें उससे अधिक उस रात हो रहा था. रात भर पैर बुरी तरह से दर्द करता रहा.

उस रात के बाद आँखों को पट्टी से ढंकना बंद कर दिया गया. बेहोशी की दवा का प्रयोग कम से कम होने लगा. फिर एक रात वो भी आई जबकि बिना बेहोश किये दोनों पैरों की ड्रेसिंग हुई. असहनीय दर्द से गुजरते-गुजरते आत्मबल इतना मजबूत हो गया था कि हर रात दर्द से गुजरने का डर ख़त्म हो गया. इसका लाभ आने वाले दिनों में मिला जबकि कई महीनों तक चलने वाली मरहम-पट्टी में और उसके बाद के दौर में दर्द की अनुभूति साँस लेने जैसी, पलक झपकने जैसी, दिल के धड़कने जैसी होने लगी.  

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

11 - हमारी आंतरिक शक्ति का इम्तिहान

पहली रात से शुरू हुए इलाज के बाद हमें अनेक-अनेक बार ऑपरेशन टेबल से गुजरना पड़ा. अनेक-अनेक इंजेक्शन रवि की निगरानी में, मुस्तैद निगाहों के बीच से गुजर कर हमारे शरीर में लगते. बाँयी जाँघ की वीभत्स स्थिति को तो हमने अपनी आँखों उसके पहले क्षण से ही देखा था मगर ऑपरेशन थियेटर में जिस दर्द से, जिस अनुभव से गुजरना होता था वह अब भी शरीर में कंपकंपी पैदा कर देता है. 


बाँयी जाँघ के घाव के ऊपर बनी एक पॉकेट से एक तरल पदार्थ का रिसाव बराबर बना हुआ था. लगातार होती मरहम-पट्टी, सर्जरी के बाद भी उसमें सुधार होता नहीं दिख रहा था. रवि की चिंता भी उसी को लेकर बनी हुई थी. इसी तरह दाहिने पंजे की स्थिति की वास्तविकता को उसने भली-भांति देखा हुआ था, वही उसकी गंभीरता को भी समझ रहा था. हमारे सामने दोनों पैरों की चोट बस सफ़ेद पट्टियों के भीतर का घाव भर था. हमारे लिए उन घावों की स्थिति का अर्थ सफ़ेद पट्टियों की परतों को भेद कर बाहर बन जाने वाले खून के निशान थे.


आईसीयू से निकल कर अपने लोगों के बीच आ गए थे इस कारण पूरा दिन बड़े आराम से सबके साथ बीत जाता मगर जैसे-जैसे शाम गहराती, रात करीब आती ऑपरेशन थियेटर में मिलने वाले दर्द, कष्ट का एहसास मात्र ही हमें अन्दर तक हिला जाता. घावों की सफाई के लिए पट्टियों का खोला जाना बहुत कष्टकारी होता था, भयंकर पीड़ा देता था. दोनों पैरों के घाव से उठने वाले दर्द का एहसास आज भी भीतर तक हिला जाता है. बेहोशी की दवा हमें ज्यादा देर बेहोश नहीं रख पाती थी. रवि नहीं चाहता था कि हमें ज्यादा डोज दी जाए इस कारण पट्टी खोलने का काम बिना बेहोश किये ही किया जाता.

घावों से निरंतर खून के रिसने के कारण पट्टियाँ घावों से चिपक जाया करती थीं. उनको यद्यपि किसी तरल पदार्थ से गीला करके ही निकालने का प्रयास किया जाता था मगर दर्द जैसे उन सबको किनारे करते हुए कष्ट देने चला आता था. पट्टियों के हटने की स्थिति में हमें अपने पास, अपने साथ रवि का होना किसी सुरक्षा घेरे में होना महसूस कराता था. उसकी अनुपस्थिति में किसी को भी हम अपनी पट्टियों को हाथ न लगाने देते थे. किसी पैर को, उनके घावों को जरा भी छूने नहीं देते थे. इस कारण से कई बार ऑपरेशन थियेटर के सहायक, हॉस्पिटल के डॉक्टर नाराज भी हो गए. हमें लगता रवि के कारण पट्टियों का हटाया जाना हमारे दर्द, पीड़ा को ध्यान में रखते हुए ही होगा.

ड्रेसिंग के, सर्जरी के, साफ़-सफाई, मरहम-पट्टी के क्रम में कई बार स्पाइनल कार्ड में इंजेक्शन लगाया जाता, कई बार इंजेक्शन के सहारे बेहोशी की दवा देकर ये प्रक्रिया चलती. बेहोशी का इंजेक्शन बहुत देर असरकारी न रहता. एक बार डोज देने के बाद बहुत देर तक बेहोशी नहीं रहती. जल्दी ही होश में आने के बाद चीखना-चिल्लाना शुरू हो जाता, चोटों में दर्द, असहनीय पीड़ा का अनुभव होने लगता.

जितनी देर बेहोशी रहती उतनी देर भी दिमाग संज्ञा-शून्य नहीं रहता. ऐसा लगता जैसे हम किसी बहुत ही ठंडे क्षेत्र में हैं. बहुत सारे पाइप एक के ऊपर एक लगे हुए हैं जिनमें बहुत सारा ठंडा लिक्विड भरा हुआ है. कभी ये लाल रंग का नजर आता, कभी इसका रंग हरा हो जाता, कभी काला सा. इस लिक्विड में डूबते-उतराते हम एक पाइप से दूसरे पाइप से गुजरते हुए ऊपर की तरफ बढ़ते जाते. इसी में अनुभव होता जैसे कोशिकाओं के आकार, रूप-रंग की अनेक दीवारें रास्ता रोक रहीं हैं. इनसे टकराना, बहते जाना होता रहता. इसी में एक स्थिति ये आती कि ये सब ख़त्म हो जाता और दर्द का अनुभव होने लगता. हमें बस हमारी चीखें सुनाई देतीं. अपनी साँसों का तेज-तेज चलना स्पष्ट समझ आता. अपना हाँफना खुद में अनुभव होता. ऐसा महसूस होता जैसे कई-कई किलोमीटर की दौड़ लगाकर आ रहे हैं. उन्हीं सबके बीच रवि की आवाज़ का सुनाई देना मधुर लगता. उसकी हथेलियों का स्पर्श दर्द को कम कर देता था.

रवि के लिए और ऑपरेशन थियेटर के लोगों के लिए बेहोशी की दवा का बहुत देर असर न करना आश्चर्यजनक था. ऐसा होने पर रवि ने वो छोटी सी शीशी दिखाते हुए एक-दो बार बताया कि सामान्य रूप में उसकी तीन डोज बनती हैं अर्थात एक छोटी शीशी से तीन लोगों को बेहोश करके उनका इलाज होता है. इसके उलट हमारी ड्रेसिंग में वह एक शीशी खर्च हो जाती थी. उसकी तीन डोज हमें होश में आने के कुछ-कुछ मिनट बाद देकर बेहोश रखने की कोशिश की जाती. डॉक्टर होने के नाते रवि को उस दवा के नकारात्मक प्रभाव भी पता थे, इस कारण से वह उसकी बहुत ज्यादा डोज भी हमें देना नहीं चाहता था. हमारे स्वास्थ्य और आगे की स्थिति को ध्यान में रखते हुए होश में आने के बाद भी कुछ देर बाद इंजेक्शन का दूसरा डोज दिया जाता. ड्रेसिंग के समय में बेहोशी से बाहर आ जाना, बहुत देर तक उस दवा का असर न होना भी हमें कष्ट से गुजारता था.

ऐसी स्थिति होने के चलते रवि का आश्चर्य भरा एक सवाल बार-बार होता कि क्यों बे, क्या कोई नशा करते हो? हर बार मुस्कुराकर हमारा इंकार होता और उसका भी इंकार इस रूप में होता कि तुम झूठ बोल रहे हो.

पता नहीं संसार को संचालित करने वाली परम सत्ता हमारी आंतरिक शक्ति का इम्तिहान ले रही थी या फिर भविष्य के दर्द सहने की आदत डलवा रही थी जो कुछ मिनटों की संज्ञाशून्यता के बाद फिर होशोहवास में ला देती थी.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

10 - अपनों की संजीवनी से मिला नया जीवन

हम आईसीयू से मुक्ति पा गए किन्तु ऑपरेशन थियेटर से मुक्ति नहीं मिली, दर्द से मुक्ति नहीं मिली, घनघोर कष्टों से मुक्ति नहीं मिली. ऑपरेशन थियेटर में कई-कई रातों उस अथाह पीड़ा और कष्ट से गुजरना पड़ा. अपनी चीखों से खुद ही लड़ना पड़ा. आईसीयू से निकलने के बाद इतना अंतर आया कि उँगलियों से लगी तमाम क्लिप्स हटा दी गईं. आसपास मशीनों की बीप-बीप सुनाई देना बंद हो गई. आईसीयू का अकेलापन मिट गया. अब उस कमरे में परिवार के लोग आँखों के सामने रहते थे. घर-परिवार के सभी लोग किसी न किसी समय दिखाई दे जाते थे, बस नहीं दिखाई देते थे तो पिताजी. उनका दिखाई देना अब संभव भी नहीं था. पलंग पर लेटे-लेटे अनेक बार उनका स्मरण होने पर रोने को मन करता मगर अपने आँसुओं को आँखों ही आँखों में पी जाते. ये हम अच्छी तरह से जानते थे कि हमारी आँखों में एक आँसू भी सबको परेशान कर देगा.


उस कमरे में आने के बाद घर के लोगों से मिलना सहज हो गया था. उस कष्ट में सबका वहाँ हमारे साथ होना हमारा बहुत बड़ा संबल था. अम्मा, बच्चा चाचा, निशा, दोनों छोटे भाई तो हमारे साथ बराबर रहते थे. बच्चा चाचा से बचपन से ही एक अलग तरह का लगाव रहा है. उनके साथ छह-सात वर्ष की आयु की एक घटना आज भी याद है जबकि वे कुछ दिन के लिए उरई आने के बाद वापस अपने काम पर चले गए तो हमारा रोना-पीटना इतना बढ़ा कि हम बीमार तक पड़ गए. बहरहाल, बच्चा चाचा हॉस्पिटल में हमारे साथ हमारी साँस बनकर सदैव साथ बने रहे. कानपुर में ही रहने वाले नाना, मामा-मामी, जिज्जी-जीजा जी तो रोज ही आते थे. उनके आने से भी हमें आत्मविश्वास, आत्मबल बढ़ाने में मदद मिलती. इसके साथ-साथ चाचा-चाची, भाई-बहिन, ससुराल पक्ष के लोग, दोस्त, रिश्तेदार, सहयोगी, शुभेच्छुजन, जान-पहचान के लोग नियमित रूप से हमसे मिलने आते थे. इन सभी का आना, मिलना, बातचीत करना हमारा हौसला बढ़ाता था.



रहिमन विपदा हू भली, जो थोड़े दिन होए,
हित अनहित या जगत में, जान पड़े सब कोए.
ये पंक्तियाँ उस समय तो याद नहीं आईं मगर बाद में ये सन्दर्भ-प्रसंग सहित स्पष्ट समझ आईं. दुर्घटना के बाद कानपुर में रुकने के दौरान अनेक तरह के अनुभव हुए. अपनों का बेगानापन दिखा, बेगानों का जबरदस्त अपनापन देखा. हॉस्पिटल में एक महीने भर्ती रहने के दौरान उरई से मिलने-देखने वालों का ताँता लगा रहता. बहुत से लोग तो बस कमरे के दरवाजे से झाँक कर देखकर ही लौट जाते. कुछ लोग परिवार वालों से मिलकर हालचाल लेते और बिना हमें देखे, बिना हमसे मिले इस कारण लौट जाते कि हमें परेशानी न हो. ऐसे मिलने और हमारी कुशल क्षेम जानने वालों में ऐसे बहुत से लोग रहे जो हमें बस नाम से जानते थे.

लोगों का स्नेह हमसे मिलने मात्र को लेकर ही नहीं था. पहले दिन से लेकर हॉस्पिटल में भर्ती रहने तक छब्बीस यूनिट ब्लड की आवश्यकता हमें पड़ी. पहले दिन की चार यूनिट ब्लड को छोड़ दिया जाये तो शेष ब्लड उरई से आकर लोगों ने दिया. हमने अपने सामाजिक कार्यों में स्वयं महसूस किया है कि एक-एक यूनिट ब्लड की प्राप्ति के लिए रक्तदाताओं की बड़ी समस्या आती है. लोगों का हमारे प्रति स्नेह, प्रेम, विश्वास ही कहा जायेगा कि इतनी बड़ी संख्या में फ्रेश ब्लड हमें उपलब्ध हुआ. चूँकि एक दिन में सिर्फ दो यूनिट ब्लड हमें चढ़ाया जाता था, इस कारण लोगों को रक्तदान के लिए रोकना पड़ रहा था, समझाना पड़ रहा था. कुछ लोग हमें रक्त न दे पाने की नाराजगी भी प्रकट करते मगर वह भी उनका हमारे प्रति स्नेह, प्यार ही था. मिलने वालों की, रक्त देने वालों की संख्या, इन स्थितियों से हमारे परिजन हमें अवगत कराते रहते थे. हमें खुद में आश्चर्य लगता था कि आखिर लोगों का हमारे प्रति इतना प्रेम, स्नेह किस कारण?

कुछ ऐसा आश्चर्य हॉस्पिटल की व्यवस्था देखने वाले एक डॉक्टर साहब भी व्यक्त करते थे. वे प्रतिदिन सुबह-शाम हमसे मिलने आया करते थे. तमाम सारी बातों, हालचाल के साथ-साथ वे एक सवाल निश्चित रूप से रोज पूछते थे कि कुमारेन्द्र जी, आप उरई में करते क्या हैं, जो मिलने वालों की इतनी भीड़ आती है?  इस सवाल का कोई जवाब हमारे पास नहीं होता था. बस उनके सवाल को सुनकर मुस्कुरा देते थे.

इसके साथ ही रक्तदान करने वालों के बारे में भी उनका कहना था कि अपनी लम्बी मेडिकल सेवा में मैंने किसी को इतना फ्रेश ब्लड मिलते नहीं देखा है. ऐसा पहली बार हुआ है कि ब्लड डोनेट करने वालों को रोकना पड़ रहा है.

उनकी बातों को सुनकर हम तब भी नहीं समझ सके थे कि वास्तव में हमने किया क्या है? वास्तव में हम करते क्या हैं? क्यों इतने लोग हमें देखने आ रहे हैं? क्यों इतने लोग अपना रक्त दान कर हमें बचाने आ रहे हैं? यह बात तब भी न हम खुद समझ सके थे, न उन डॉक्टर साहब को समझा सके थे. न ही आज समझ सके हैं, न ही आज भी समझा सकते हैं. न कोई पद, न कोई दायित्व, न कोई नौकरी, न कोई व्यापार, न धनवान, न राजनीतिज्ञ पर नगरवासियों का, जनपदवासियों का यही अपार स्नेह हमारे लिए संजीवनी बना.

इसी संजीवनी ने एक माह पहले परिवार पर आये विकट संकट में भी खड़ा रहने का साहस प्रदान किया. इसी संजीवनी ने अपनों के बेगानेपन को भुलाने में अपनी भूमिका अदा की. इसी संजीवनी शक्ति ने आर्थिक समस्या में घिरे होने के बाद भी आर्थिक संबल प्रदान किया. इसी संजीवनी ने तमाम सारे दुखों को कम करने की ताकत दी, उनसे लड़ने का हौसला दिया.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

9 - आईसीयू से प्राइवेट वार्ड की तरफ

उस दिन रविवार होने के कारण हॉस्पिटल का ऑपरेशन थियेटर बंद था, उसकी साफ़-सफाई के कारण. जिस तरह की स्थिति हमारे पैरों की थी, उसमें एक दिन के लिए भी ड्रेसिंग, सर्जरी को टाला नहीं जा सकता था. बाँए पैर की हड्डी, नसों आदि को भविष्य की स्थिति के लिए भी सुरक्षित रखना था. घावों को संक्रमण से बचाना भी था. इसके लिए रवि पूरी तन्मयता से, गंभीरता से अपने प्रयासों को अंजाम दे रहा था.


जल्दी ठीक कर देने की हमारी बात को सुनकर उसने अपनी हथेली में हमारी हथेली को कस कर बाँध मुट्ठी बना ली. जल्दी चला देंगे, काहे परेशान होते हो. उसने पूरे दोस्ताना अंदाज में जवाब दिया.


अबे परेशान नहीं हो रहे क्योंकि अब तुम हो परेशान होने के लिए. बस जल्दी ठीक कर दो, बहुत काम निपटाने हैं. सुनते ही वह मुस्कुराया.

कुछ दिन शांति से पड़े रहो, फिर काम कर लेना. कहते हुए वह अपनी ड्रेस बदलने चेंजिंग रूम में चला गया.

आईसीयू में ही हमारे पलंग को अस्थायी ऑपरेशन थियेटर बनाया गया. कुछ देर बाद वही पहले-दूसरे दिन जैसी प्रक्रिया हमारे साथ अपनाई गई. स्पाइनल कोर्ड में इंजेक्शन लगना. बातचीत करते हुए रवि और उसके दोस्तों को हमारे दर्द को बाँटने, कम करने की कोशिश करना. घावों की सफाई, ड्रेसिंग, हमारा चीखना, चिल्लाना, बेहोश होना, होश में आना, रवि का हाथ थामना, फिर अपने काम में जुट जाना.

रात भर चेतना, अर्द्धचेतना में, नींद में, जागने में, होश में, बेहोशी में निकल गई. सुबह-सुबह जागने पर माउथ फ्रेशनर से मुँह साफ़ करवाने के लिए, चाय पीने के लिए आईसीयू की नर्स पलंग को सिरहाने से थोड़ा सा उठा देती थी. पलंग में ऐसी व्यवस्था थी जिसमें सिरहाने के पास लगे लीवर को घुमाने पर पलंग सिर की तरफ से उठना शुरू हो जाता था. मुँह साफ़ करने और चाय पीने के बाद कुछ देर हम उसी अवस्था में बने रहते थे. उसी अधलेटे अवस्था में आँख बंद किये लेते थे कि रवि ने आकर हालचाल पूछा. सुबह-शाम उसका आना नियमित निश्चित था. उसके अलावा अपनी व्यस्तता में से वह बीच में भी समय निकाल कर आ जाता था. या फिर जब भी उसे फोन करो, कुछ देर बाद वह आ जाता था.


एक ख़ास बात हम दोनों की बातचीत के दौरान यह रहती थी कि किसी तरह की गंभीरता का प्रवेश नहीं होता था. जिस तरह अपने कॉलेज टाइम में या फिर एक्सीडेंट के पहले के समय तक जैसे बातचीत होती थी, बिना किसी औपचारिकता के, बिना किसी लिहाज के हॉस्पिटल में भी ठीक वैसी ही बातें, उसी अंदाज में होती थीं. ऐसा ही अंदाज ऑपरेशन थियेटर में भी बना रहता था. हालचाल लेने की बातचीत के क्रम में उसने पूछा, कुछ खाने की इच्छा है? क्या खाओगे?

हमने भी हँसते हुए मजाकिया लहजे में कह दिया, चिकन खिलवा दो.

उसने मजाकिया अंदाज को भी गंभीरता से लेते हुए हम पर ही सवाल दागा, सही बताओ बे, चिकन खाना है? हमारे हाँ कहते ही उसने तुरंत छोटे भाई को बुलवाया. 

हम सोचे कि ये मजाक के मूड में ही है. हमने उसे रोका भी मगर तब तक उसने पिंटू को दुकान बताते हुए समझाया कि हमारा नाम लेकर दो लेग पीस ले आये. हम तब तक भी इसे मजाक समझते रहे. कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद, दोनों पैरों के घावों से रिसते खून और तरल पदार्थों को, जाँघ के ऊपर बनी पॉकेट से होते रिसाव को देख, उसकी मात्रा का अंदाजा लगाकर आईसीयू में उस समय उपस्थित ड्यूटी स्टाफ को कुछ सलाह देकर रवि वहाँ से चला गया.

लेग पीस मँगवाए हैं, दो. खाना आराम से फिर हम आते हैं थोड़ी देर में. दरवाजे से निकलते-निकलते हमारी तरफ ये वाक्य उछाल दिया. हम महज मजाक समझ मुस्कुरा दिए. नर्स को पलंग पूर्व स्थिति में करने का इशारा करके आँखें बंद कर ली. इस दौरान हमारे साथ दवाई देने का, इंजेक्शन लगाने का उपक्रम भी चलता रहा. अम्मा, निशा, मिंटू का कुछ-कुछ देर को आकर मिलना भी हुआ.

आश्चर्य तो तब हुआ जबकि कुछ देर बाद छोटा भाई दो लेग पीस लेकर अन्दर आया. तब लगा कि रवि मजाक नहीं कर रहा था. छोटे भाई ने पलंग के सिरहाने को ऊपर उठाया और कहा, भैया ने कहा है कि दोनों लेग पीस खिलवा दो फिर बताना हमें.

हमारे सामने एक स्टैंड लगा दिया गया जो मेज के जैसा था. उसमें रखी प्लेट से लेग पीस आराम-आराम से खाते रहे. हाथों की उँगलियाँ, कलाई, जबड़ा, दांत साथ देने को तैयार नहीं लग रहे थे. टुकड़े तोड़ने में, कौर चबाने में दर्द का अनुभव होता. बीच-बीच में छोटा भाई टुकड़े तोड़ने में मदद कर देता.

चिकन खाने के लगभग दो-तीन घंटे बाद रवि का आना हुआ. आते ही उसके सवाल शुरू हो गए. खा लिए दोनों लेग पीस? कोऊ परेशानी हुई? वोमिटिंग तो नहीं हुई? चक्कर तो नहीं आये? जी तो नहीं मिचला रहा? या किसी और तरह की कोई दिक्कत?

इतने सारे सवालों पर बस इतना कहा, नहीं कोई दिक्कत नहीं.

अबे स्याले, जब कोई दिक्कत नहीं तो काहे ड्रामा कर रहे हो. काहे आईसीयू में पड़े हो? चलो उठो. वो हमारे बाँयी तरफ बैठा था. बाँए हाथ को थपथपाते हुए ख़ुशी से लगभग चिल्लाते हुए वह बोला. हमारे जवाब को वह संभवतः हमें खतरे से बाहर निकलना देख रहा था.

तुम ही डाले हो हमें पलंग पर. हम तो कह रहे पहले दिन से कि जल्दी ठीक कर दो, जल्दी चला दो.  हमारी बात को लगभग अनसुना करते हुए वह मुस्कुरा कर आईसीयू के डॉक्टर, स्टाफ से बात करके हमें प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट करने की तैयारी करवाने लगा. हम अपने आराम से चिकन लेग पीस खा लेने के बाद रवि की ख़ुशी को देख खुश हो रहे थे. अपने जल्द से जल्द स्वस्थ होने की स्थिति का अंदाज लगाने लगे थे.

8 - दर्द जुड़ गया हमसे धड़कन और साँस की तरह

अभी तक आईसीयू को फिल्मों, टीवी में ही देखते रहे थे, आज अपनी आँखों से उसकी अनुभूति कर रहे थे. हमारे अलावा शायद तीन-चार पलंग और थे. उन पर कोई था या नहीं, याद नहीं. नज़रों के सामने एक काउंटर जैसा बना हुआ था, जहाँ पर डॉक्टर्स और नर्सेज बैठे दिखते थे. हमारी उँगलियों में क्लिप्स लगी हुईं थीं जो हमारे पास की मशीनों से तारों के द्वारा जुड़ी हुई थीं. दिल की धड़कन, ब्लड प्रेशर सहित और भी न जाने किस-किस तरह के आँकड़े उन पर बन-बिगड़ रहे थे. गले के पास भी पट्टी बंधी समझ आई, जिसके बारे में बाद में जानकारी हुई कि नसों की मेन लाइन में कुछ नालियाँ डालकर ऐसी चिकित्सकीय व्यवस्था की गई है, जिसके द्वारा दवाई वगैरह शरीर के अन्दर भेजी जा सके. 


आईसीयू में न रात का पता चलता, न दिन का. न सुबह का आभास होता, न शाम का. यह जानकारी घर के किसी सदस्य के आने पर ही होती. चाय के आने पर सुबह-शाम की खबर मिलती. रात की जानकारी अपने आप हो जाती जबकि ऑपरेशन थियेटर में ले जाने की तैयारी होने लगती. तीन-चार लोगों के लिए हमें पलंग से उठाकर स्ट्रेचर पर लिटाना और फिर ऑपरेशन थियेटर में स्ट्रेचर से ऑपरेशन टेबल पर लिटाना संभव नहीं होता था. यही प्रक्रिया ऑपरेशन के बाद होती थी. इसका कारण दाहिनी जाँघ का सूजकर बहुत मोटी और भारी हो जाना तो था ही साथ ही कमर के पास लगी नालियों का एक गुच्छा भी था. बाँयी तरफ जाँघ के ठीक ऊपर एक जगह लगातार किसी तरह के लिक्विड या कहें कि अशुद्ध रक्त का जमाव होता रहता था. उससे घाव में संक्रमण न फैले, इसके लिए उसके निकलते रहने के लिए नालियों का एक जंक्शन जैसा लगाया गया था. ऐसे में हमें उठाने में बहुत ध्यान रखना पड़ता कहीं ये नालियों का गुच्छा न निकल जाए, कहीं जाँघ के घाव में हाथ लग जाने से हमारी पीड़ा न बढ़ जाए. जांघ का एक इंच भी हिलना सिर से पंजे तक दर्द की लहर दौड़ा देता था. ऐसे में पूरे चादर समेट कई-कई लोग उठाते हुए हमें इधर से उधर करते. दर्द, कष्ट, चीखना, चिल्लाना भी इसी के साथ हमारे संग इधर से उधर होता रहता.



बाँयी जाँघ के अलावा दाहिने पंजे को हम अपनी पूरी ताकत लगाने के बाद भी न हिला पाते थे और न ही उठा पाते थे. असल में उसका अँगूठा और एक ऊँगली एक्सीडेंट के समय ही कट गई थी. ऊपर की खाल, नसें आदि सब गायब थीं. शेष उँगलियाँ कई-कई टुकड़ों में हो गई थीं. पूरे पंजे की हड्डियाँ भी टूट कर कई-कई टुकड़ों के समूह में फ़ैल गईं थीं. पंजा भी जोड़ से टूट कर लटक चुका था. इसमें लगभग छह इंच लम्बी कील डाल कर इसे पैर से जोड़ कर बाँध दिया गया था. बाकी उँगलियों, हड्डियों को भी एक जाल से कस दिया गया था. रवि और उसके साथी डॉक्टर्स ने पंजे को बचाने में बहुत मेहनत की, ये सोच कर कि कृत्रिम पैर के लगने के बाद इसका सहारा मिल जायेगा.

दाहिना पंजा बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुका है, इसकी जानकारी हमें लगभग डेढ़-दो महीने बाद एक ऑपरेशन के दौरान हुई. दाहिने पंजे में पड़ी कील की जानकारी तीन महीने बाद तो उस दिन हुई जबकि कानपुर से उरई आने के पहले उसे रवि ने निकाला था. उसने बताया कि एक कील निकालनी है फिर तुम सहारा लेकर खड़े होने का अभ्यास करना. हम सोच रहे थे कि ये कुछ बेहोश वगैरह करके उसे निकालेगा मगर बातचीत करते-करते कब उसने किसी उपकरण के सहारे उस कील को निकाल दिया, हमें भनक तक न लगी. वो कील निकाल कर जब उसने दिखाई तो हमारे अन्दर एक ठंडी सी लहर दौड़ गई.

ऑपरेशन थियेटर में पहली रात जब रवि से अपना अलग हुआ पैर लगाने के लिए कहा था तब उसने साफ़-साफ़ कहा था कि हमारी जान बचाना उसकी प्राथमिकता है. उसके प्रयासों से जाँघ में या पंजे में किसी तरह का संक्रमण नहीं हुआ. कई-कई बार की स्किन ड्राफ्टिंग के बाद, कई-कई सर्जरी के बाद, कई-कई ऑपरेशन के बाद जाँघ के घाव और पंजे की चोट सही होने में लगभग एक वर्ष लग गया था. एक वर्ष तक पलंग हमारा कार्यक्षेत्र बना रहा. आज पंजा चोटमुक्त हो चुका है मगर दर्द से मुक्त नहीं हो सका है. एक्सीडेंट के ठीक पहले दिन से लेकर इस पोस्ट को लिखते समय तक एक सेकेण्ड भी ऐसा नहीं निकला जबकि पंजे में दर्द न हुआ हो. पंजे के ऊपरी हिस्से में किसी तरह सेंसेशन नहीं है. शेष बची तीन उँगलियाँ भी बिना किसी तरह की हरकत के टेढ़ी-मेढ़ी होकर बस पंजे से जुड़ी हुई हैं. इनमें अपने आप किसी तरह की गति अथवा हरकत नहीं है. जोड़ से टूट कर अलग हो जाने के बाद जुड़ने पर पंजा अपने मूल रूप में नहीं आ सका है, जिस कारण खड़े होने में, चलने में भी बराबर पीड़ा का अनुभव होता रहता है. किसी तरह का झटका, अचानक किसी चीज से छू जाने पर सिर तक झनझनाहट मच जाती है. पंजे में रक्त का संचार ऊपरी तरफ से नहीं बल्कि नीचे तरफ से ही है. ऊपर की तरफ की तमाम सारी नसों को जोड़ से थोड़ा ऊपर, टखने के बगल में ब्लॉक कर दिया गया है. यह स्थिति भी परेशानी पैदा करती है.  

दिमाग बिना किसी प्रयास के अपना काम करता हुआ, पलंग पर अकेले लेटे-लेटे आगे की योजनाओं को बनाता-बिगाड़ता रहता था. अपनी दुर्घटना की भयावहता देखने के बाद भी इसका एहसास कतई नहीं था कि आने वाला एक वर्ष पलंग पर ही निकलने वाला है. इसका भी भान कतई नहीं था कि इस समय होने वाला दर्द, कष्ट सदैव के लिए हमारे साथ जुड़ने वाला है. इसके कारण में जून में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम में शामिल होने के लिए जयपुर जाना तथा उसके साथ ही छोटे भाई पिंटू के विवाह की तैयारी करना था.

शाम को रवि के आने पर उससे जल्द से जल्द ठीक करने को कहा. उसने मुस्कुरा कर हमारी हथेली अपनी हथेली में भर ली और अपनी चिकित्सकीय प्रक्रिया की तैयारी करवाने लगा.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

7 - खुद को खुद के हाथों सँवारने की कोशिश

छोटे भाई पिंटू के जाने के बाद अपनी स्थिति पर ध्यान दिया. चादर पड़ी होने के कारण पैर की स्थिति दिख नहीं रही थी. पैर में दर्द, टीस बनी हुई थी. दाहिने, बाँए पैर को हिला पाना संभव नहीं लग रहा था. खुद में भी हिलना मुश्किल लग रहा था. दोनों पैर बहुत ज्यादा भारी समझ आ रहे थे. एकबारगी मन को लगा कि शायद बाँया पैर लगा दिया गया है. उस समय एक तरह की फीलिंग हो रही थी जैसे पूरा पैर हो. बाद में इस बारे में पता चला कि ये एक तरह की फाल्स फीलिंग होती है. आज पंद्रह वर्ष बाद भी ऐसी स्थिति से गुजरना पड़ता है, तब बहुत मुश्किल हो जाती है. ऐसा लगता है जैसे पंजे में, पिंडली में, एड़ी में खुजली हो रही है या कोई नस खिंच गई है मगर उसका कोई समाधान नहीं हो पाता है. आखिर हो भी कैसे क्योंकि जाँघ के नीचे पैर का हिस्सा तो है ही नहीं.


अपने दाहिने पैर की तरफ देखा. चादर से बाहर होने के कारण सिर्फ पंजा वाला हिस्सा ही दिखाई दे रहा था जिस पर प्लास्टर जैसी भारी-भरकम पट्टी बंधी हुई थी. पट्टी के अलावा कुछ दिखाई न दे रहा था. पट्टी बंधी होने ने उसके सही होने का एहसास जगाया. उस पैर की तरफ से निश्चिन्त होकर बाँए पैर की तरफ देखा. चादर के ऊपर से समझ आ रहा था कि नीचे के हिस्से में कुछ नहीं है. 



दिमाग फिर उसी कार वाली स्थिति में चला गया. अम्मा को, निशा को, परिवार में अन्य लोगों को क्या हमारे पैर कटने की खबर हो गई होगी? शायद न हुई हो तो यहाँ भी न होने दी जाये. ऐसा विचार आते ही आईसीयू में एक तरफ लगे काउंटर पर बैठी नर्स को आवाज़ देकर बुलाया. हमारा जितना समय हॉस्पिटल में, ऑपरेशन थियेटर में, आईसीयू में बीत चुका था, उसके बाद वहाँ का स्टाफ रवि और हमारे बीच के दोस्ताना सम्बन्ध को समझ चुका था. नर्स के आने पर उससे बाँए पैर से चादर हटाने को कहा. उसकी आँखों में प्रश्नवाचक, आश्चर्यजनक भाव उभर आए. देखना है, शब्द सुनकर उसने आहिस्ता से बाँए पैर से चादर हटाई. जाँघ पट्टियों की कैद में थी.

सिस्टर, नीचे की खाली जगह में तकिया रख दो. उसने हैरानी से हमारे चेहरे को देखा. उसे शायद समझ नहीं आया कि ऐसा क्यों करवाना है. उसका असमंजस दूर करते हुए कहा, अम्मा आ रही हैं. उन्हें ये पता न चले कि हमारा पैर कट गया है. उसने हमारी भावनात्मकता के साथ बहते हुए पैर के खाली जगह में एक तकिया रखकर चादर को आराम से सहेज दिया. पैर अब चादर के ऊपर से पूरा समझ आ रहा था. खुद पर मुस्कुराते हुए अब आईसीयू को, खुद को निहारने का प्रयास किया.

कितना समय बीता होगा पिंटू को गए, इसका अंदाजा नहीं मगर दोबारा उसने आकर अम्मा लोगों के आने की सूचना दी. अपने सिर के पीछे बाँए तरफ दरवाजे की तरफ गरदन घुमाई. दरवाजे के बीच लगे काँच से कई चेहरे चमकते नजर आये. उस स्थिति में अपनों को देखने के बाद किस तरह भावनाओं को काबू में किया, किस तरह आँसुओं को आँखों में ही रोके रखा गया यह हम ही जानते हैं. नर्स ने दरवाजा खोल अम्मा, निशा को अन्दर आने को कहा. आईसीयू में प्रवेश करने के नियमानुसार एप्रन पहने, मास्क लगाये अम्मा ने पूरी दृढ़ता, आत्मबल के साथ सिर पर हाथ फिराया. उनकी इस मजबूती को कहीं से भी कमजोर नहीं होने देना था, सो अपने चेहरे पर हँसी लाते हुए कहा, देखा आपको भी डॉक्टर बना दिया हमने. उनकी पीड़ा को समझा जा सकता था मगर उन्होंने पूरी दृढ़ता से अपने आपको हमारे सामने मजबूत बनाये रखा. उनकी इस शक्ति ने हमें भी संजीवनी देने का काम किया. हम उन्हें दिखाना चाहते थे कि हम कहीं से कमजोर नहीं हैं. जानते थे कि हमारा मजबूत बने रहना, विश्वास से भरे दिखना उन्हें राहत देगा.

अम्मा के बगल से खड़ी निशा के सहज, शांत चेहरे को देखकर मन में शांति का एहसास हुआ. जिस व्यक्ति की नई ज़िन्दगी अभी शुरू भी नहीं हो पाई थी, उसके जीवन में ऐसा झंझावात आना अवश्य ही उसे विचलित कर सकता था. ये अंदाजा लगाना हमारे लिए सहज था कि उस समय हमें उस हालत में देखकर उसके भीतर किस तरह की उथल-पुथल मची होगी. उसकी आँखों में आँखें डालकर हलकी मुस्कान के सहारे उसे विश्वास दिलाया कि बहुत बड़ी हानि नहीं हुई है, सब कुशल है.

कुछ मिनट रुकने के बाद, आँखों ही आँखों में एक-दूसरे के हालचाल लेने के बाद वे लोग बाहर चले गए. न उन लोगों ने कुछ कहा, पूछा और न हमने कुछ बोला, बताया. हम सभी अपनी-अपनी भूमिका में अपनी-अपनी तरह से खुद को सफल समझ रहे थे, खुद में विश्वास भर रहे थे. वे लोग कितने सहज होंगे हमें देख कर, कितना संयत कर पाएंगे अपने आपको दुर्घटना की वास्तविकता जानकर इसका अंदाजा नहीं. हमें कल शाम से सभी की जो चिंता लगी हुई थी, विशेष रूप से अम्मा और निशा की, उन्हें आज सहज देखकर अच्छा लगा. ऑपरेशन थियेटर में एकबारगी अपनी साँसों की डोर टूटने की आशंका हुई थी वह आशंका अब दूर-दूर नजर नहीं आ रही थी. 

आईसीयू के उस वीराने में मशीनों की बजने वाली बीप और हलकी लाइट्स के बीच हम खुद में नई रौशनी का जन्म होता देख रहे थे. अपने प्रति खुद को आशान्वित होता देख रहे थे. आत्मविश्वास के सहारे आत्मबल में और वृद्धि करना देख रहे थे.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

6 - दर्द के बीच नई ज़िन्दगी की तलाश

कार के रुकते ही आनन-फानन हॉस्पिटल का स्टाफ अपने काम में लग गया. कार से स्ट्रेचर, स्ट्रेचर से लिफ्ट के सहारे ऑपरेशन थियेटर तक का समय अब भारी लग रहा था. रवि के साथ कुछ पल बिताने की मंशा अधिक होने लगी. बहुत कुछ बताने-कहने का मन होने लगा. रास्ते भर अपने और परिवार के भविष्य के लिए जो सोचते चले आ रहे थे, उसे बताने की मंशा तीव्र होने लगी. ये सारी बातें अपने छोटे भाई से कह कर उसे और परेशान नहीं करना चाहते थे.


ऑपरेशन थियेटर तक पहुँचते-पहुँचते तमाम सारे निर्देश अपने सहयोगियों को देते समय भी हमारा हाथ रवि के हाथ में बना रहा. पलों के बीच से एक-एक छोटे पल को चुराते हुए वह कभी हमारे माथे पर, कभी सिर पर हाथ फेर देता. बाल इतने छोटे काहे करवा रखे हैं? कहते हुए उसने डॉक्टर से ज्यादा वह एक दोस्त के रूप में हमारी परेशानी को बाँटने की कोशिश की. पिताजी नहीं रहे न, के शब्दों के साथ आँखें खोलने का प्रयास भी नहीं किया क्योंकि अब अपनी तरफ से हम चिंता मुक्त थे.



ऑपरेशन थियेटर में आवश्यक व्यवस्था करने की कुछ पलों की भागदौड़ के बाद रवि हमारे बगल में आ खड़ा हुआ. यार, हमारा पैर लगा दो. रवि ने कुछ कहा नहीं बस हमारा हाथ अपने हाथ में लेते हुए सहयोगियों को दिशा-निर्देश देता रहा. हमें लगा शायद वह हमारी बात सुन नहीं सका है. अपनी बात को दोहराते हुए कहा, हम चलना चाहते हैं, पैर लगा दो हमारा. अबकी उसने पूरी गंभीरता से बात को सुनकर जवाब दिया कि तुम्हारे चलाने और खड़ा करने से ज्यादा जरूरी है हमारे लिए तुम्हारा बचना. लगा शायद अब दोबारा चलना नहीं हो सकेगा. लगा कि अब शायद हम अपने पैरों पर खड़े भी न हो सकेंगे. रवि की तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से बड़ी आशा के साथ देखा तो वह उसका आशय समझ गया. उसने माथे पर हाथ फेरते हुए फिर कहा तुम्हारा बचाना हमारे लिए पहले है.

हॉस्पिटल की अपनी औपचारिकतायें पूरी की जा रही थीं. उसी में सुनाई दिया कि इनका छोटा भाई बाहर है, उससे यहाँ सिग्नेचर करवा लो. दिल-दिमाग लगातार सुन्न होते जाने की स्थिति के बाद भी पूरी सक्रियता से काम कर रहे थे. भावनात्मकता ने औपचारिकता पर हावी होने की कोशिश की. अपनी आँखों को मुश्किल से खोलकर रवि से कहा कि तुम हमारे दोस्त हो, हर्षेन्द्र के बड़े भाई जैसे. तुम ही कर दो सिग्नेचर या हमसे करवा लो. उससे मत करवा, वो बहुत परेशान है, इस समय.

इस कागज़ पर तुम या हम सिग्नेचर नहीं कर सकते. तुम्हारा कोई अपना ही करेगा. रवि ने हमारी भावनात्मकता को किनारे रखते हुए हॉस्पिटल से सम्बंधित औपचारिकता समझाई. तो फिर जीजा जी से करवा लो. वे भी बाहर हैं. बिना रवि के जवाब की प्रतीक्षा किये आँखें बंद कर लीं. चकाचौंध पैदा करती बड़ी-बड़ी लाइट्स सिर के ऊपर चमक रही थीं. बार-बार बंद होती आँखों को खोलने में इससे भी दिक्कत हो रही थी.


इस दौरान पैर में बंधी पट्टी खोलने का उपक्रम किया जाने लगा. कभी दो शब्द रवि के उभरते, कभी हम उससे कुछ कहते. दर्द फिर अपने चरम पर महसूस हो रहा था. कई-कई बार लगता कि अब जो साँस ली है वही अंतिम है. रवि का हाथ पूरी ताकत से पकड़ लेते.

कुछ इंजेक्शन लगाये गए, ड्रिप लगाई गई. दर्द के साथ-साथ बेहोशी जैसा अनुभव होने लगा. एहसास हुआ कि कहीं आज इसी थियेटर में अंतिम रात न हो जाये. भावनात्मकता फिर उफान मारने लगी. ऐसा होता है. जब किसी अपने करीबी का, किसी अपने ख़ास का साथ मिलता है तो व्यक्ति अन्दर से मजबूत भी महसूस करता है और कमजोर महसूस करने लगता है. कुछ ऐसा ही हमारे साथ हो रहा था. रवि का साथ मजबूती इस रूप में दे रहा था कि अब ये बचा लेगा हमें मगर कहीं न कहीं कमजोरी इस रूप में आ रही थी कि कहीं दुर्भाग्य से कुछ हो गया तो परिवार का क्या होगा.

रवि को आवाज़ देकर उसका ध्यान अपनी तरफ खींचा. टुकड़ों-टुकड़ों में, हाँफते-हाँफते उससे अम्मा के बारे में, छोटे भाईयों के बारे में, अपनी पत्नी के बारे में अपने मन की सारी बातें कहने की कोशिश की. साँस टूटती, आवाज़ लड़खड़ाती मगर शब्दों की कड़ी अपनी एक बात कहने के बाद ही टूटती. पत्नी, भाइयों के लिए तमाम ऐसी बातें जिनके बारे में अपने स्वस्थ होने के बाद रवि से एक-दो बार बात करते हुए बस हम दोनों मुस्कुरा लेते.

हमारे चारों तरफ रवि सहित कुछ और लोगों की भीड़ दिखाई देने लगी. सभी अपनी-अपनी ड्रेस में थे. कभी फिल्मों में, धारावाहिकों में दिखाई देने वाला दृश्य हमें अपने आसपास दिखाई देने लगा. किसी ने कोशिश करके हमें बिठाया. मुश्किलों से दर्द की लहर को सहते हुए बैठे गए. कुछ हाथ सहारा दिए रहे. पीछे से एक शांत, आत्मीय स्वर उभरा, आपको एक इंजेक्शन लगा रहे हैं. जहाँ पर करंट जैसा महसूस हो, झनझनाहट सी लगे बता देना. उसके अगले सेकेण्ड ही ऐसा महसूस हुआ जैसे पीछे रीढ़ की हड्डी में किसी ने बिजली का तार छुआ दिया हो. रवि, बस इतना ही मुँह से निकला और उसके बाद उन लोगों ने वापस हमें लिटा दिया. आखों को पट्टी के सहारे बंद कर दिया गया.

कमर के नीचे के हिस्से का अनुभव होना बंद सा हो गया. एक भारीपन का अनुभव होने लगा. आसपास खड़े लोगों की बस आवाजें सुनाई दे रही थीं. पीठ, हाथों, कन्धों आदि की चोट पर रवि के सहायकों के हाथ चलने लगे. चीखों से थियेटर गूंजने लगा. हाथों में, गर्दन में कुछेक इंजेक्शन लगाकर उन चीखों को शांत करने की कोशिश की गई. बेहोशी छाती रही. होश आता रहा, जाता रहा. चीखें गूँजती, शांत हो जाती. कमर के नीचे का हिस्सा सुन्न होने के बाद भी पैरों में, जाँघ पर किसी ठंडे-ठंडे तरल पदार्थ का अनुभव होता रहा. अवचेतन की स्थिति में बड़े-बड़े बर्फीले पाइप में खुद का तैरना अनुभव होता रहता. कई बार लगता कि ऐसी अनेकानेक परतों को पार करते हुए ऊपर उड़े जा रहे हैं.

कितने घंटे तक हमारे पैरों की, चोटों की सफाई होती रही, मरहम-पट्टी होती रही याद नहीं. बाद में बातचीत के दौरान रवि ने बताया कि वह कटे पैर की सफाई से संतुष्ट नहीं हो पाता और फिर उसकी सफाई में जुट जाता. लगभग छः घंटे की लम्बी जद्दोजहद के बाद वह अपने आपमें संतुष्टि कर पाया. अर्द्धबेहोशी, अर्द्धचेतानावस्था में थियेटर से निकाल कर आईसीयू में शिफ्ट किया गया. हॉस्पिटल के गलियारे से गुजरते हुए धुँधले-धुँधले कुछ चेहरे नजर आये मगर कौन-कौन दिखा याद नहीं.

होश सुबह आया तो आईसीयू में खुद को अकेले पाया. एक नर्स को इशारे से पास बुलाकर पिंटू के बारे में, रवि के बारे में पूछा. उसने छोटे भाई को बाहर से बुलाया. डॉक्टर जैसी वेशभूषा में, चेहरे पर मास्क लगाये छोटे भाई ने आईसीयू में पास आकर बताया कि अम्मा आ गईं हैं, भाभी आईं हैं. दरवाजे के काँच वाले हिस्से की तरफ इशारा कर उसने बताया कि बाहर से ही देखने की परमीशन मिली है. हलकी सी मुस्कराहट के साथ उसके चेहरे पर हाथ फेर उसको एहसास करवाया कि हम सही हैं. उसने भी मुस्कुरा कर हाथ मजबूती से थाम कर अपनी आश्वस्ति ज़ाहिर की. एक निगाह आईसीयू के दरवाजे पर डालकर हम आँखें बंद कर सबका इंतजार करने लगे.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

5 - साँसों की सरगम पर धड़कन ने एक गीत लिखा

कार में दर्द पीते-पीते, साँसें जोड़ते-जोड़ते कानपुर की तरफ दौड़ते समय हमें अपने इलाज की निश्चिंतता ने घेर लिया था मगर दुर्घटना की खबर घर न पहुँचने के प्रति निश्चिन्त नहीं हो पा रहे थे. हम कोशिश कर रहे थे कि खबर किसी भी तरह से घर न पहुँचे साथ ही समझ भी रहे थे कि ये समाचार घर पहुँच ही जायेगा. छोटे भाई की बाइक रेलवे स्टेशन पर ही थी, वह हमारे साथ था. उसका घर वापस न लौटना दुर्घटना के प्रति गंभीरता वाला भाव अवश्य ही बनाता. ऐसी स्थिति का अपने आपमें भान होने के बाद भी यह प्रयास था कि दुर्घटना की भयावहता घर न पहुँचे. हमारी शारीरिक स्थिति की वास्तविकता घर न पहुँचे. दुर्घटना ट्रेन से हुई, यह सत्य घर न पहुँचे.


सत्य घर कैसे, किस रूप में पहुँचा पता नहीं मगर सबसे छोटे भाई, मिंटू का फोन जरूर आ गया. वो उस समय उरई में ही फार्मा क्षेत्र में कार्य कर रहा था.



हमारे साथ जा रहे छोटे भाई से बातचीत से शायद उसे तसल्ली न मिली होगी, संभव है उसे दुर्घटना की भयावहता का अंदाज़ा हो गया हो या फिर दुर्घटना की असलियत उसके पास तक पहुँच गई थी. ऐसा इसलिए क्योंकि उसने छोटे भाई पिंटू से बात करने के साथ-साथ हमसे भी बात करनी चाही. ऐसी स्थिति में जबकि हम अपनी साँसों के एक-एक टुकड़े को जोड़कर एक साँस बना रहे हों, पानी की जगह दर्द को अपने आपमें ही पीने की कोशिश कर रहे हों उस समय छोटे भाई से न केवल बात करना बल्कि उसे आश्वस्त करना कि स्थिति गंभीर नहीं है, हमारे लिए बहुत कठिन सा महसूस हो रहा था. ये सोच कर कि उससे बात न करना उसके संदेह को और बढ़ाना होगा, दर्द भरे हाथों में मोबाइल को पकड़ने की कोशिश की. सारे शरीर की छोटी-बड़ी चोटें समूचे शरीर पर अपना असर दिखा रही थीं. सारे दर्द एक तरफ किनारे लगाते हुए, बिना ये विचार किये कि कहाँ-कहाँ दर्द है, कौन सा हिस्सा अतिशय दर्द दे रहा है मोबाइल पकड़ने की आह भरी कोशिश के साथ सबसे छोटे भाई से बात की. सारी शक्ति को समेटकर अपने बोलने में लगाया. उसका अपनी तरफ से बातचीत का आधार पहला ही सवाल रहा और जो हमारे हिसाब से एकदम सही भी था कि आखिर ऐसा कैसा फ्रैक्चर हो गया, जिसका इलाज उरई में नहीं था?

उसका सवाल अपनी जगह एकदम सही था क्योंकि लगभग पन्द्रह साल पहले उसके फ्रैक्चर का इलाज उरई में ही हुआ था. एकबारगी तो दिमाग भन्ना गया. एक तरफ दर्द, दूसरी तरह संवेदना. अपनी साँसों को थाम, आँखों को खोलते हुए अपने चिरपरिचित अंदाज में उससे इतना ही बोला कि पैर में फ्रैक्चर होने के साथ-साथ हड्डी फट सी गई है, बहुत खून निकल रहा है. रवि से बात हो गई है, उसने बुलाया है, उसी के पास जा रहे हैं. इतने शब्द बोलने में ही लगा जैसे कई किमी की दौड़ लगा ली हो. इतना हाँफना तो उस समय भी नहीं हुआ था जबकि हमने कॉलेज में पहली बार पाँच हजार मीटर की दौर में भाग लिया था.

अपनी भटकती, टूटती, हाँफती साँसों को नियंत्रित करने की कोशिश में याद नहीं कि उसने क्या कहा मगर हमने पहुँच कर बात करते हैं की लड़खड़ाती आवाज़ के साथ ही मोबाइल पिंटू को पकड़ा दिया. एक पल को कार के अन्दर सबकुछ घूमता सा नजर आया. याद नहीं कि उसके बाद उन दोनों की बात हुई या नहीं. एक झटके के साथ ही अपने दिल, दिमाग को जैसे किसी अदृश्य शक्ति से ऊर्जा पाते देखा. समूची यात्रा में छोटे भाई को, उसके दोस्तों को हौसला बँधाते रहना, खुद के विश्वास और शक्ति को संचित किये रहना आज भी हमारे लिए आश्चर्य का विषय है.


इन सबके बीच भागती-दौड़ती कार आखिरकार हमें जीवित लेकर कानपुर के मेडिकल सेंटर पहुँच ही गई. साँस उस समय तक चल रही थी. कार रुकते ही रात का अँधियारा नजर आया. सड़कों की लाइट नजर आई साथ ही नजर आईं मुन्नी जिज्जी. उनका चेहरा सामने आते ही लगा जैसे अब जीवन मिल गया. अब कुछ भी नहीं हो सकता. जिज्जी ने सिर पर हाथ फेरते हुए नाम पुकारा, चिंटू. अन्दर भरा सारा गुबार, सारा अकेलापन, सारा दर्द आँसुओं के साथ बह गया. जिज्जी बहुत प्यास लगी है, मुँह से निकला मगर अगले ही पल दिमाग ने सजग किया, नहीं, डॉक्टर ने पानी पिलाने से मना किया था. तुरंत उन्हीं शब्दों के साथ अगले शब्द जोड़ दिए, मगर डॉक्टर ने पानी पीने से मना किया है. जिज्जी का सिर पर स्नेहिल हाथ का स्पर्श जैसे प्यास बुझा रहा था. हमने उसी स्पर्श के आँचल में सूखते होंठों पर जीभ फिराकर अपनी प्यास शांत करने की कोशिश की. 

उसी कोशिश के साथ रवि के अपने चिकित्सकीय कदम हमारी तरफ बढ़े. जिस दोस्त के साथ खेले-कूदे, लड़े-झगड़े अब उसी के हाथों अपनी ज़िन्दगी सौंप चुके थे. उसके साथ अब हमारी यात्रा कार से स्ट्रैचर के सहारे होते हुए ऑपरेशन थियेटर की तरफ चल पड़ी. इस यात्रा के बीच जीजा जी, बृजमोहन भैया से भी मुलाक़ात हुई. मन को तसल्ली हुई कि अब पिंटू अकेला नहीं है. अब हम अकेले नहीं हैं.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

4 - टूटती साँसों को जोड़ते रहने की दौड़

दिन का धुंधलका शाम के रास्ते से गुजरता हुआ रात का रूप लेने लगा था. बाहर का अँधेरा हम अपने भीतर फैलने नहीं देना चाह रहे थे. आत्मबल, आत्मविश्वास को संचित करते हुए कोशिश करते कि आँखें बंद न हों. पलकें बोझिल हो-होकर बंद होने का प्रयास करती और हमारा प्रयास रहता कि पलकें बंद न हों. झपकती, नींद भरी आँखों को बंद होने से रोकना कितना कठिन होता है, इसे या तो शिक्षा ग्रहण करने के दौरान परीक्षाओं के समय महसूस किया या फिर उस समय जबकि हम प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे.


प्रतियोगी परीक्षाओं, विशेष रूप से सिविल सेवा में चयन भले न हो पाया हो मगर रात-रात भर जागने की, बार-बार मुंदती पलकों को खोले रखने की कलात्मकता अवश्य ही सीख ली थी. यह कलात्मकता किसी दिन इस तरह काम में लानी पड़ेगी, सोचा न था. यद्यपि इसका परीक्षण वर्ष 2001 में एक माह से अधिक समय में सफलतापूर्वक कर लिया गया था जबकि कानपुर के एक नर्सिंग होम में छोटी बहिन प्रीतू और अईया की सेवा करते समय रात-रात भर जागना होता था तथापि अब इसका परीक्षण स्वयं पर किया जा रहा था.





कार की रफ़्तार के साथ दिमाग भी चलने में लगा था. उरई से निकलते ही निश्चय कर लिया था कि कानपुर में किस हॉस्पिटल में जाना है. यह भी निश्चित कर लिया था कि रवि को ही दिखाना है. इसके पीछे मित्रता का गहरा विश्वास था. उरई से निकलते ही रवि को अपनी दुर्घटना की जानकारी दी. उसे जल्दी खबर देने का एक कारण ये भी था कि मरीज देखने के लिए उसका प्रत्येक शनिवार-रविवार को उरई आना होता था. जिस दिन हमारी दुर्घटना हुई उस दिन शुक्रवार था. मन में अचानक से विचार आया कि कहीं ऐसा न हो कि वह आज ही उरई के लिए निकल पड़े. रवि का नाम उस समय कानपुर के उभरते ऑर्थोपेडिक सर्जन में शामिल था. अब वह कानपुर के प्रसिद्द ऑर्थोपेडिक सर्जंस में शामिल है.

रवि को अपनी जानकारी देने के बाद खुद में अपनी चिकित्सा व्यवस्था, सेवा के प्रति निश्चिंतता का एक भाव बना. इसके बाद कानपुर में निवास कर रहे अपने जीजा जी को खबर दी. रामकरन जीजा जी और मुन्नी जिज्जी का अभिभावकत्व स्वरूप सदैव हमारे साथ बना रहा. आज हमारे दोबारा चलने में बहुत से लोगों ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अपना सहयोग दिया. किसी की भूमिका, योगदान, मदद को जीवन-पर्यंत विस्मृत नहीं किया जा सकता है. इस यात्रा में बहुत से ऐसे लोग भी हमारे मददगार बने जिनको हम आज तक जान न सके. सामाजिक क्षेत्र की हमारी सक्रियता, गतिविधियों से प्रभावित अनेक लोगों की सहायता, आशीर्वाद, स्नेह का सुफल है कि हम आज फिर अपने पैरों पर खड़े हैं. इन शुभेच्छुजनों के साथ-साथ बहुत सी निर्जीव वस्तुओं का योगदान भी हमें जीवित रखने में, हमें पुनः अपने पैरों पर खड़ा करने में रहा. इसमें अपने कृत्रिम पैर, जो हमारे शरीर का अंग न होकर भी हमसे जुड़ा हुआ है, शरीर से जुड़ा हुआ है तथा छड़ी को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता जिनकी सहायता से हम आज पहले की तरह अपने कार्यक्षेत्र में सक्रिय बने हुए हैं.

कानपुर की ओर बढ़ते जाने के साथ-साथ भीतर ही भीतर यह विश्वास, एहसास बढ़ता जा रहा था कि हमारे जीवन को खतरा नहीं है, भले ही शारीरिक रूप से हुई क्षति को दूर न किया जा सके. संभवतः हमारा इस एहसास, इस विश्वास का आभास हमारे छोटे भाई और उसके दोस्तों को भी हो रहा था क्योंकि वे सब भी अब पहले की अपेक्षा ज्यादा धैर्यवान लग रहे थे. हमारे इसी आत्मविश्वास और आत्मबल की प्रवणता ने पूरे रास्ते एक पल को भी हमें बेहोश नहीं होने दिया. उस समय तो अपनी इस जिजीविषा की तरफ ध्यान नहीं गया मगर अब जब कभी उस दिन का ख्याल आ जाता है तो खुद में आश्चर्य होता है कि अचानक से इतनी शक्ति हमारे अन्दर कहाँ से, कैसे आ गई थी? किस प्रेरणा से हम खुद को संयमित बनाये हुए खुद को न केवल बेहोश होने से रोके रहे वरन साथ चल रहे छोटे भाइयों को भी हिम्मत बँधाए रहे? शायद इसी को बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद, स्नेह कहा जाता है. शायद यही वह ऊर्जा होती है जो सकारात्मकता के प्रत्युत्तर में प्राप्त होती है. शायद यही वह संजीवनी होती है जो कर्तव्य-बोध का भान करवाते हुए मूर्च्छा तोड़ती है.

रवि को, जीजा जी को खबर देने के बाद उत्पन्न निश्चिन्तता क्षणिक ही रही क्योंकि अब दिमाग में उरई में रह गये घर के लोग थे. घर में चाचा जी के अलावा किसी ने हमारी स्थिति नहीं देखी थी. घर में अन्य किसी को खबर दिए हम लोग कानपुर के लिए निकल गए थे. इसके पीछे कारण बस इतना था कि घर तक हमारी वास्तविक स्थिति अभी न पहुँचे. यह तो हम अच्छे से समझ रहे थे कि इस दुर्घटना को कुछ घंटों से ज्यादा घरवालों से नहीं छिपाया जा सकता है. यह सोचकर कि जितनी देर ही यह खबर घरवालों से दूर रहे, अच्छा है. उसी समय अपने मीडिया के मित्रों, परिचितों को फोन करके उनसे खुद बात की. उन सभी से अगले दिन हमारी दुर्घटना की खबर न छापने का अनुरोध किया. अगले दिन समाचार-पत्रों में ये समाचार प्रकाशित हुआ या नहीं, इसकी जानकारी तो नहीं की और न ही हो सकी पर उस समय अपने आपमें यह संतोष हुआ कि इस दुर्घटना का समाचार कल सुबह हमारे घर नहीं पहुँचेगा.

यह संतोष तो हम कर रहे थे कि ये दुखद समाचार फैलेगा नहीं किन्तु ऐसी खबरों का फैलना रुकता कहाँ है. पिछले कई वर्षों की सामाजिक सक्रियता ने तथा कन्या भ्रूण हत्या निवारण सम्बन्धी कार्यक्रमों ने बहुतायत लोगों के बीच हमारे नाम को पहुँचा दिया था. इस कारण भी हमारे घायल होने की खबर ‘जितने मुँह उतनी बातें’ की तरह फैलती रही. देखे-अनदेखे लोगों के हाथों-हाथों गुजरते हुए इस खबर को घर तक पहुँचना ही था, सो पहुँच गई. लाख रोकने के बाद भी उसे घर का रास्ता पकड़ना था, सो वह गली-कूचों से गुजरते हुए घर में प्रवेश कर ही गई.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

3 - क़यामत बन कर आई वो शाम

22 अप्रैल 2005 की शाम जैसे क़यामत की शाम बनकर आई. एक माह पूर्व 16 मार्च को पिताजी के असमय निधन से हम सभी अभी उबर भी न सके थे कि एक और हादसा सहना पड़ा. इस हादसे के होना कोई अकेले हमारे साथ नहीं था. एक अकेले ही हम इससे प्रभावित नहीं हो रहे थे. पूरा परिवार इससे प्रभावित हो रहा था. अनेक जिम्मेवारियाँ इसके साथ प्रभावित हो रही थीं. अनेक कर्तव्य इसके साथ याद आ रहे थे. इन्हीं सबको याद करते हुए, समझते हुए खुद को बस एक साँस और की स्थिति तक बार-बार ले जा रहे थे.


कार सड़क पर तेजी से भागने में लगी थी. बाँया पैर घुटने से पाँच-छः इंच ऊपर से कट चुका था. दाँया पैर भी, ख़ास तौर से पंजा बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका था. पंजा अपने जोड़ से टूट कर लटका हुआ था. अँगूठा, उँगलियाँ और पंजे की हड्डियाँ लगभग चूर-चूर हो चुकीं थीं. रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर और बाद के कार में इस पैर की वास्तविक स्थिति समझ नहीं आ रही थी और न ही इस तरफ अधिक ध्यान था. उस समय पूरा ध्यान खुद को और छोटे भाई को सही-सलामत बनाए रखने पर था. ध्यान इस पर था कि हमारे पैर काटने की खबर घर न पहुँचे. ऐसे में इस पैर की हालत न समझ सके और न इस बारे में कुछ सोच सके.





इस पैर की असलियत या कहें कि वास्तविक स्थिति लगभग डेढ़ महीने बाद हमारी नज़रों के सामने से गुजरी. पूरा पंजा एक फ्रेम की सहायता से कसा हुआ था. जो उँगलियाँ बच गईं थीं उनको यथास्थिति लाने की कोशिश में सभी को तार के द्वारा सहारा दिया गया था. पंजा लटका न रहे, उसके लिए एड़ी से लगभग चार-पाँच इंच लम्बीएक मोटी कील पैर के अन्दर धँसी हुई थी. उस दिन भी शायद हमें उस पंजे के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने का आभास न होता मगर उस पंजे की ड्रेसिंग के दौरान ऐसी स्थिति सामने आई कि वह पंजा दिखाई दे गया.

दुर्घटना के ठीक पहले दिन से रवि के द्वारा ही हमारा उपचार किया गया. वह हमारे लंगोटिया यारों में एक है और वर्तमान के कानपुर में प्रसिद्द सर्जन है. इलाज के दौरान जब भी हलकी-फुलकी ड्रेसिंग का दौर होता या फिर कुछ ऐसा कि हमें बेहोश न किया जाता तो रवि अपना काम करता रहता और साथ ही हम दोनों दोस्त गप्प भी मारते रहते. उसी गप्पबाजी में अपने उस पंजे की हकीकत समझ सके.

अपना ही पंजा देखकर एक पल को पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई. ऐसा महसूस हुआ जैसे एक अजीब तरह की ठंडक, एक अनजाना सा भय शरीर में घुसकर नस-नस में दौड़ने लगा हो. ऐसी स्थिति तो उस दिन प्लेटफ़ॉर्म के ऊपर अपने बाँए कटे पैर को देखने के बाद भी नहीं हुई थी. अँगूठा गायब, पंजा लगभग एड़ी तक कटा हुआ, ऊपर का पूरा माँस गायब, सिर्फ हड्डियाँ और खाल के नाम पर उन्हीं हड्डियों पर जगह-जगह सर्जरी के द्वारा चिपकाई गई हमारे ही शरीर की खाल. आँखों की कोर से छलकने को आतुर आँसुओं की बूँदों को उन्हीं पलकों में सहेज लिया. याद आ गई पुरानी एक बात कि सँभाल कर रखिये अपने ये आँसू, कभी हमारे लिए भी रोना पड़ेगा. हॉस्पिटल से वापस घर आकर सबको सामने देखकर फूट-फूट कर रोने का मन हुआ मगर सबके परेशान हो जाने का विचार आते ही वही चिरपरिचित हँसी होंठों पर उभर आई जो सबके सामने पहले दिन आईसीयू में उभरी थी.

दोनों पैरों में से कौन सा पैर ज्यादा कष्ट दे रहा था, किस पैर में ज्यादा दर्द हो रहा था इसका अंदाजा ही नहीं लग पा रहा था. सड़क के गड्ढों से उठने वाली धमक पूरे शरीर में दर्द भर देती थी. बायाँ पैर तो पट्टियों की मोटी परत में बंधा हुआ था, जिसके कारण खून बहुत तेजी से नहीं बह रहा था. इसके उलट बहते खून से सनी पट्टी अब खून को रोकने का ही काम कर रही थी. डॉक्टर की सलाह पर दाहिने पंजे से बहते खून को रोकने के लिए ड्रिप चढ़ाने वाली प्लास्टिक की नली का सहारा लिया जा रहा था. प्लास्टिक की नली को कुछ देर तक पैर में खूब तेजी से बाँध कर खून का बहाव रोका जाता. लगभग पाँच-सात मिनट बाद उस प्लास्टिक की नली को लगभग इतनी देर के लिए खोल दिया जाता.

पैर को नली से बाँधने और ढीला करने की कसरत डॉक्टर साहब की सलाह पर की जा रही थी. उनका कहना था कि यदि पैर को खुला रखा गया तो शरीर का शेष खून भी तेजी से बह जायेगा, जिसके चलते हमारा बचना मुश्किल हो जायेगा. उस प्लास्टिक नली को बहुत देर बाँधना भी हमारे लिए इसलिए घातक था क्योंकि ज्यादा देर बाँधे रहने से पैरालाइसिस होने का खतरा था. इसके खुलते ही पैर से खून का तेजी से बहना तुरंत शुरू हो जाता. ऐसा लग रहा था जैसे मौत हमारे साथ-साथ चल रही थी कि मौका मिलते ही वह हमारी ज़िन्दगी को निगल जाए.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

48 - हवा में उड़ता जाए मेरा दीवाना दिल

स्कूटर के आने के बाद शुरू के कुछ दिन तो उसे चलाना सीखने में निकले. पहले दिन ही अपने घर से सड़क तक की गली को पार करने में ही लगभग पंद्रह मिनट ...