उस
दिन रविवार होने के कारण हॉस्पिटल का ऑपरेशन थियेटर बंद था, उसकी साफ़-सफाई के
कारण. जिस तरह की स्थिति हमारे पैरों की थी, उसमें एक दिन के लिए भी ड्रेसिंग,
सर्जरी को टाला नहीं जा सकता था. बाँए पैर की हड्डी, नसों आदि को भविष्य की स्थिति
के लिए भी सुरक्षित रखना था. घावों को संक्रमण से बचाना भी था. इसके लिए रवि पूरी
तन्मयता से, गंभीरता से अपने प्रयासों को अंजाम दे रहा था.
जल्दी
ठीक कर देने की हमारी बात को सुनकर उसने अपनी हथेली में हमारी हथेली को कस कर बाँध
मुट्ठी बना ली. जल्दी चला देंगे, काहे परेशान होते हो. उसने पूरे दोस्ताना
अंदाज में जवाब दिया.
अबे परेशान नहीं हो रहे क्योंकि अब तुम हो परेशान होने के लिए. बस जल्दी
ठीक कर दो, बहुत काम निपटाने हैं. सुनते ही वह
मुस्कुराया.
कुछ दिन शांति से पड़े रहो, फिर काम कर लेना. कहते
हुए वह अपनी ड्रेस बदलने चेंजिंग रूम में चला गया.
आईसीयू
में ही हमारे पलंग को अस्थायी ऑपरेशन थियेटर बनाया गया. कुछ देर बाद वही
पहले-दूसरे दिन जैसी प्रक्रिया हमारे साथ अपनाई गई. स्पाइनल कोर्ड में इंजेक्शन
लगना. बातचीत करते हुए रवि और उसके दोस्तों को हमारे दर्द को बाँटने, कम करने की
कोशिश करना. घावों की सफाई, ड्रेसिंग, हमारा चीखना, चिल्लाना, बेहोश होना, होश में
आना, रवि का हाथ थामना, फिर अपने काम में जुट जाना.
रात
भर चेतना, अर्द्धचेतना में, नींद में, जागने में, होश में, बेहोशी में निकल गई. सुबह-सुबह
जागने पर माउथ फ्रेशनर से मुँह साफ़ करवाने के लिए, चाय पीने के लिए आईसीयू की नर्स
पलंग को सिरहाने से थोड़ा सा उठा देती थी. पलंग में ऐसी व्यवस्था थी जिसमें सिरहाने
के पास लगे लीवर को घुमाने पर पलंग सिर की तरफ से उठना शुरू हो जाता था. मुँह साफ़
करने और चाय पीने के बाद कुछ देर हम उसी अवस्था में बने रहते थे. उसी अधलेटे अवस्था
में आँख बंद किये लेते थे कि रवि ने आकर हालचाल पूछा. सुबह-शाम उसका आना नियमित
निश्चित था. उसके अलावा अपनी व्यस्तता में से वह बीच में भी समय निकाल कर आ जाता
था. या फिर जब भी उसे फोन करो, कुछ देर बाद वह आ जाता था.
एक
ख़ास बात हम दोनों की बातचीत के दौरान यह रहती थी कि किसी तरह की गंभीरता का प्रवेश
नहीं होता था. जिस तरह अपने कॉलेज टाइम में या फिर एक्सीडेंट के पहले के समय तक
जैसे बातचीत होती थी, बिना किसी औपचारिकता के, बिना किसी लिहाज के हॉस्पिटल में भी
ठीक वैसी ही बातें, उसी अंदाज में होती थीं. ऐसा ही अंदाज ऑपरेशन थियेटर में भी
बना रहता था. हालचाल लेने की बातचीत के क्रम में उसने पूछा, कुछ खाने की इच्छा
है? क्या खाओगे?
हमने
भी हँसते हुए मजाकिया लहजे में कह दिया, चिकन खिलवा दो.
उसने
मजाकिया अंदाज को भी गंभीरता से लेते हुए हम पर ही सवाल दागा, सही बताओ बे,
चिकन खाना है? हमारे हाँ कहते ही उसने तुरंत छोटे भाई को बुलवाया.
हम
सोचे कि ये मजाक के मूड में ही है. हमने उसे रोका भी मगर तब तक उसने पिंटू को
दुकान बताते हुए समझाया कि हमारा नाम लेकर दो लेग पीस ले आये. हम तब तक भी इसे
मजाक समझते रहे. कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद, दोनों पैरों के घावों से
रिसते खून और तरल पदार्थों को, जाँघ के ऊपर बनी पॉकेट से होते रिसाव को देख, उसकी
मात्रा का अंदाजा लगाकर आईसीयू में उस समय उपस्थित ड्यूटी स्टाफ को कुछ सलाह देकर
रवि वहाँ से चला गया.
लेग पीस मँगवाए हैं, दो. खाना आराम से फिर हम आते हैं थोड़ी देर में. दरवाजे से निकलते-निकलते हमारी तरफ ये वाक्य उछाल दिया. हम महज मजाक समझ
मुस्कुरा दिए. नर्स को पलंग पूर्व स्थिति में करने का इशारा करके आँखें बंद कर ली.
इस दौरान हमारे साथ दवाई देने का, इंजेक्शन लगाने का उपक्रम भी चलता रहा. अम्मा,
निशा, मिंटू का कुछ-कुछ देर को आकर मिलना भी हुआ.
आश्चर्य
तो तब हुआ जबकि कुछ देर बाद छोटा भाई दो लेग पीस लेकर अन्दर आया. तब लगा कि रवि
मजाक नहीं कर रहा था. छोटे भाई ने पलंग के सिरहाने को ऊपर उठाया और कहा, भैया ने
कहा है कि दोनों लेग पीस खिलवा दो फिर बताना हमें.
हमारे
सामने एक स्टैंड लगा दिया गया जो मेज के जैसा था. उसमें रखी प्लेट से लेग पीस आराम-आराम
से खाते रहे. हाथों की उँगलियाँ, कलाई, जबड़ा, दांत साथ देने को तैयार नहीं लग रहे
थे. टुकड़े तोड़ने में, कौर चबाने में दर्द का अनुभव होता. बीच-बीच में छोटा भाई टुकड़े
तोड़ने में मदद कर देता.
चिकन
खाने के लगभग दो-तीन घंटे बाद रवि का आना हुआ. आते ही उसके सवाल शुरू हो गए. खा
लिए दोनों लेग पीस? कोऊ परेशानी हुई? वोमिटिंग तो नहीं हुई? चक्कर तो नहीं आये? जी
तो नहीं मिचला रहा? या किसी और तरह की कोई दिक्कत?
इतने
सारे सवालों पर बस इतना कहा, नहीं कोई दिक्कत नहीं.
अबे स्याले, जब कोई दिक्कत नहीं तो काहे ड्रामा कर रहे हो. काहे आईसीयू
में पड़े हो? चलो उठो. वो हमारे बाँयी तरफ बैठा था. बाँए
हाथ को थपथपाते हुए ख़ुशी से लगभग चिल्लाते हुए वह बोला. हमारे जवाब को वह संभवतः हमें
खतरे से बाहर निकलना देख रहा था.
तुम ही डाले हो हमें पलंग पर. हम तो कह रहे पहले दिन से कि जल्दी ठीक
कर दो, जल्दी चला दो. हमारी बात को लगभग अनसुना करते हुए वह मुस्कुरा
कर आईसीयू के डॉक्टर, स्टाफ से बात करके हमें प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट करने की
तैयारी करवाने लगा. हम अपने आराम से चिकन लेग पीस खा लेने के बाद रवि की ख़ुशी को
देख खुश हो रहे थे. अपने जल्द से जल्द स्वस्थ होने की स्थिति का अंदाज लगाने लगे
थे.
एक दोस्त जो डॉक्टर के किरदार को भाई की तरह निभा ले गए!रवि जी को कोटिश प्रणाम
ReplyDeleteरवि अभी तक साथ है..
Deleteहाँ, जब हमें कुछ समझ में नहीं आता तो सामनेवाले के भाव से ही समझना पड़ता है ! बहुत बढ़िया लिखा आपने !
ReplyDeleteआभार आपका
Deleteसब पढ़ रहे है , ये रवि गर्ग है न । हम भी जानते है लेकिन नाम से क ई बार इनके क्लीनिक के बाहर से गुजरे हैं ।
ReplyDeleteजी बुआ जी, वही हैं.
Delete