4 - टूटती साँसों को जोड़ते रहने की दौड़

दिन का धुंधलका शाम के रास्ते से गुजरता हुआ रात का रूप लेने लगा था. बाहर का अँधेरा हम अपने भीतर फैलने नहीं देना चाह रहे थे. आत्मबल, आत्मविश्वास को संचित करते हुए कोशिश करते कि आँखें बंद न हों. पलकें बोझिल हो-होकर बंद होने का प्रयास करती और हमारा प्रयास रहता कि पलकें बंद न हों. झपकती, नींद भरी आँखों को बंद होने से रोकना कितना कठिन होता है, इसे या तो शिक्षा ग्रहण करने के दौरान परीक्षाओं के समय महसूस किया या फिर उस समय जबकि हम प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे.


प्रतियोगी परीक्षाओं, विशेष रूप से सिविल सेवा में चयन भले न हो पाया हो मगर रात-रात भर जागने की, बार-बार मुंदती पलकों को खोले रखने की कलात्मकता अवश्य ही सीख ली थी. यह कलात्मकता किसी दिन इस तरह काम में लानी पड़ेगी, सोचा न था. यद्यपि इसका परीक्षण वर्ष 2001 में एक माह से अधिक समय में सफलतापूर्वक कर लिया गया था जबकि कानपुर के एक नर्सिंग होम में छोटी बहिन प्रीतू और अईया की सेवा करते समय रात-रात भर जागना होता था तथापि अब इसका परीक्षण स्वयं पर किया जा रहा था.





कार की रफ़्तार के साथ दिमाग भी चलने में लगा था. उरई से निकलते ही निश्चय कर लिया था कि कानपुर में किस हॉस्पिटल में जाना है. यह भी निश्चित कर लिया था कि रवि को ही दिखाना है. इसके पीछे मित्रता का गहरा विश्वास था. उरई से निकलते ही रवि को अपनी दुर्घटना की जानकारी दी. उसे जल्दी खबर देने का एक कारण ये भी था कि मरीज देखने के लिए उसका प्रत्येक शनिवार-रविवार को उरई आना होता था. जिस दिन हमारी दुर्घटना हुई उस दिन शुक्रवार था. मन में अचानक से विचार आया कि कहीं ऐसा न हो कि वह आज ही उरई के लिए निकल पड़े. रवि का नाम उस समय कानपुर के उभरते ऑर्थोपेडिक सर्जन में शामिल था. अब वह कानपुर के प्रसिद्द ऑर्थोपेडिक सर्जंस में शामिल है.

रवि को अपनी जानकारी देने के बाद खुद में अपनी चिकित्सा व्यवस्था, सेवा के प्रति निश्चिंतता का एक भाव बना. इसके बाद कानपुर में निवास कर रहे अपने जीजा जी को खबर दी. रामकरन जीजा जी और मुन्नी जिज्जी का अभिभावकत्व स्वरूप सदैव हमारे साथ बना रहा. आज हमारे दोबारा चलने में बहुत से लोगों ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अपना सहयोग दिया. किसी की भूमिका, योगदान, मदद को जीवन-पर्यंत विस्मृत नहीं किया जा सकता है. इस यात्रा में बहुत से ऐसे लोग भी हमारे मददगार बने जिनको हम आज तक जान न सके. सामाजिक क्षेत्र की हमारी सक्रियता, गतिविधियों से प्रभावित अनेक लोगों की सहायता, आशीर्वाद, स्नेह का सुफल है कि हम आज फिर अपने पैरों पर खड़े हैं. इन शुभेच्छुजनों के साथ-साथ बहुत सी निर्जीव वस्तुओं का योगदान भी हमें जीवित रखने में, हमें पुनः अपने पैरों पर खड़ा करने में रहा. इसमें अपने कृत्रिम पैर, जो हमारे शरीर का अंग न होकर भी हमसे जुड़ा हुआ है, शरीर से जुड़ा हुआ है तथा छड़ी को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता जिनकी सहायता से हम आज पहले की तरह अपने कार्यक्षेत्र में सक्रिय बने हुए हैं.

कानपुर की ओर बढ़ते जाने के साथ-साथ भीतर ही भीतर यह विश्वास, एहसास बढ़ता जा रहा था कि हमारे जीवन को खतरा नहीं है, भले ही शारीरिक रूप से हुई क्षति को दूर न किया जा सके. संभवतः हमारा इस एहसास, इस विश्वास का आभास हमारे छोटे भाई और उसके दोस्तों को भी हो रहा था क्योंकि वे सब भी अब पहले की अपेक्षा ज्यादा धैर्यवान लग रहे थे. हमारे इसी आत्मविश्वास और आत्मबल की प्रवणता ने पूरे रास्ते एक पल को भी हमें बेहोश नहीं होने दिया. उस समय तो अपनी इस जिजीविषा की तरफ ध्यान नहीं गया मगर अब जब कभी उस दिन का ख्याल आ जाता है तो खुद में आश्चर्य होता है कि अचानक से इतनी शक्ति हमारे अन्दर कहाँ से, कैसे आ गई थी? किस प्रेरणा से हम खुद को संयमित बनाये हुए खुद को न केवल बेहोश होने से रोके रहे वरन साथ चल रहे छोटे भाइयों को भी हिम्मत बँधाए रहे? शायद इसी को बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद, स्नेह कहा जाता है. शायद यही वह ऊर्जा होती है जो सकारात्मकता के प्रत्युत्तर में प्राप्त होती है. शायद यही वह संजीवनी होती है जो कर्तव्य-बोध का भान करवाते हुए मूर्च्छा तोड़ती है.

रवि को, जीजा जी को खबर देने के बाद उत्पन्न निश्चिन्तता क्षणिक ही रही क्योंकि अब दिमाग में उरई में रह गये घर के लोग थे. घर में चाचा जी के अलावा किसी ने हमारी स्थिति नहीं देखी थी. घर में अन्य किसी को खबर दिए हम लोग कानपुर के लिए निकल गए थे. इसके पीछे कारण बस इतना था कि घर तक हमारी वास्तविक स्थिति अभी न पहुँचे. यह तो हम अच्छे से समझ रहे थे कि इस दुर्घटना को कुछ घंटों से ज्यादा घरवालों से नहीं छिपाया जा सकता है. यह सोचकर कि जितनी देर ही यह खबर घरवालों से दूर रहे, अच्छा है. उसी समय अपने मीडिया के मित्रों, परिचितों को फोन करके उनसे खुद बात की. उन सभी से अगले दिन हमारी दुर्घटना की खबर न छापने का अनुरोध किया. अगले दिन समाचार-पत्रों में ये समाचार प्रकाशित हुआ या नहीं, इसकी जानकारी तो नहीं की और न ही हो सकी पर उस समय अपने आपमें यह संतोष हुआ कि इस दुर्घटना का समाचार कल सुबह हमारे घर नहीं पहुँचेगा.

यह संतोष तो हम कर रहे थे कि ये दुखद समाचार फैलेगा नहीं किन्तु ऐसी खबरों का फैलना रुकता कहाँ है. पिछले कई वर्षों की सामाजिक सक्रियता ने तथा कन्या भ्रूण हत्या निवारण सम्बन्धी कार्यक्रमों ने बहुतायत लोगों के बीच हमारे नाम को पहुँचा दिया था. इस कारण भी हमारे घायल होने की खबर ‘जितने मुँह उतनी बातें’ की तरह फैलती रही. देखे-अनदेखे लोगों के हाथों-हाथों गुजरते हुए इस खबर को घर तक पहुँचना ही था, सो पहुँच गई. लाख रोकने के बाद भी उसे घर का रास्ता पकड़ना था, सो वह गली-कूचों से गुजरते हुए घर में प्रवेश कर ही गई.

.
ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

2 comments:

  1. आपकी इस पोस्ट ने इस कथन को सच कर दिया ज़िन्दगी ज़िंदाबाद।

    ReplyDelete
  2. यह स्तंभित कर देने वाली दुर्घटना का समाचार जंगल में आग की तरह फैल गया था। लगभग 2 साल पहले मैंने कोंच कॉलेज में ज्वाइन किया था और आपने कन्या भ्रूण हत्या के नियंत्रण पर एक खुली गोष्ठी कॉलेज में की थी। संभवत यह हमारी आपकी पहली भेंट थी। आपकी जिंदादिली और आपके खुशनुमा व्यक्तित्व ने हमें गहरे स्तर पर प्रभावित किया था। यह समाचार सुनकर हम सभी लोग सन्न रह गए थे। लेकिन आपके जीवट, हिम्मत और जिजीविषा को नमन। आप सचमुच लौह पुरुष हैं कुमारेन्द्र जी।

    ReplyDelete

48 - हवा में उड़ता जाए मेरा दीवाना दिल

स्कूटर के आने के बाद शुरू के कुछ दिन तो उसे चलाना सीखने में निकले. पहले दिन ही अपने घर से सड़क तक की गली को पार करने में ही लगभग पंद्रह मिनट ...