7 - खुद को खुद के हाथों सँवारने की कोशिश

छोटे भाई पिंटू के जाने के बाद अपनी स्थिति पर ध्यान दिया. चादर पड़ी होने के कारण पैर की स्थिति दिख नहीं रही थी. पैर में दर्द, टीस बनी हुई थी. दाहिने, बाँए पैर को हिला पाना संभव नहीं लग रहा था. खुद में भी हिलना मुश्किल लग रहा था. दोनों पैर बहुत ज्यादा भारी समझ आ रहे थे. एकबारगी मन को लगा कि शायद बाँया पैर लगा दिया गया है. उस समय एक तरह की फीलिंग हो रही थी जैसे पूरा पैर हो. बाद में इस बारे में पता चला कि ये एक तरह की फाल्स फीलिंग होती है. आज पंद्रह वर्ष बाद भी ऐसी स्थिति से गुजरना पड़ता है, तब बहुत मुश्किल हो जाती है. ऐसा लगता है जैसे पंजे में, पिंडली में, एड़ी में खुजली हो रही है या कोई नस खिंच गई है मगर उसका कोई समाधान नहीं हो पाता है. आखिर हो भी कैसे क्योंकि जाँघ के नीचे पैर का हिस्सा तो है ही नहीं.


अपने दाहिने पैर की तरफ देखा. चादर से बाहर होने के कारण सिर्फ पंजा वाला हिस्सा ही दिखाई दे रहा था जिस पर प्लास्टर जैसी भारी-भरकम पट्टी बंधी हुई थी. पट्टी के अलावा कुछ दिखाई न दे रहा था. पट्टी बंधी होने ने उसके सही होने का एहसास जगाया. उस पैर की तरफ से निश्चिन्त होकर बाँए पैर की तरफ देखा. चादर के ऊपर से समझ आ रहा था कि नीचे के हिस्से में कुछ नहीं है. 



दिमाग फिर उसी कार वाली स्थिति में चला गया. अम्मा को, निशा को, परिवार में अन्य लोगों को क्या हमारे पैर कटने की खबर हो गई होगी? शायद न हुई हो तो यहाँ भी न होने दी जाये. ऐसा विचार आते ही आईसीयू में एक तरफ लगे काउंटर पर बैठी नर्स को आवाज़ देकर बुलाया. हमारा जितना समय हॉस्पिटल में, ऑपरेशन थियेटर में, आईसीयू में बीत चुका था, उसके बाद वहाँ का स्टाफ रवि और हमारे बीच के दोस्ताना सम्बन्ध को समझ चुका था. नर्स के आने पर उससे बाँए पैर से चादर हटाने को कहा. उसकी आँखों में प्रश्नवाचक, आश्चर्यजनक भाव उभर आए. देखना है, शब्द सुनकर उसने आहिस्ता से बाँए पैर से चादर हटाई. जाँघ पट्टियों की कैद में थी.

सिस्टर, नीचे की खाली जगह में तकिया रख दो. उसने हैरानी से हमारे चेहरे को देखा. उसे शायद समझ नहीं आया कि ऐसा क्यों करवाना है. उसका असमंजस दूर करते हुए कहा, अम्मा आ रही हैं. उन्हें ये पता न चले कि हमारा पैर कट गया है. उसने हमारी भावनात्मकता के साथ बहते हुए पैर के खाली जगह में एक तकिया रखकर चादर को आराम से सहेज दिया. पैर अब चादर के ऊपर से पूरा समझ आ रहा था. खुद पर मुस्कुराते हुए अब आईसीयू को, खुद को निहारने का प्रयास किया.

कितना समय बीता होगा पिंटू को गए, इसका अंदाजा नहीं मगर दोबारा उसने आकर अम्मा लोगों के आने की सूचना दी. अपने सिर के पीछे बाँए तरफ दरवाजे की तरफ गरदन घुमाई. दरवाजे के बीच लगे काँच से कई चेहरे चमकते नजर आये. उस स्थिति में अपनों को देखने के बाद किस तरह भावनाओं को काबू में किया, किस तरह आँसुओं को आँखों में ही रोके रखा गया यह हम ही जानते हैं. नर्स ने दरवाजा खोल अम्मा, निशा को अन्दर आने को कहा. आईसीयू में प्रवेश करने के नियमानुसार एप्रन पहने, मास्क लगाये अम्मा ने पूरी दृढ़ता, आत्मबल के साथ सिर पर हाथ फिराया. उनकी इस मजबूती को कहीं से भी कमजोर नहीं होने देना था, सो अपने चेहरे पर हँसी लाते हुए कहा, देखा आपको भी डॉक्टर बना दिया हमने. उनकी पीड़ा को समझा जा सकता था मगर उन्होंने पूरी दृढ़ता से अपने आपको हमारे सामने मजबूत बनाये रखा. उनकी इस शक्ति ने हमें भी संजीवनी देने का काम किया. हम उन्हें दिखाना चाहते थे कि हम कहीं से कमजोर नहीं हैं. जानते थे कि हमारा मजबूत बने रहना, विश्वास से भरे दिखना उन्हें राहत देगा.

अम्मा के बगल से खड़ी निशा के सहज, शांत चेहरे को देखकर मन में शांति का एहसास हुआ. जिस व्यक्ति की नई ज़िन्दगी अभी शुरू भी नहीं हो पाई थी, उसके जीवन में ऐसा झंझावात आना अवश्य ही उसे विचलित कर सकता था. ये अंदाजा लगाना हमारे लिए सहज था कि उस समय हमें उस हालत में देखकर उसके भीतर किस तरह की उथल-पुथल मची होगी. उसकी आँखों में आँखें डालकर हलकी मुस्कान के सहारे उसे विश्वास दिलाया कि बहुत बड़ी हानि नहीं हुई है, सब कुशल है.

कुछ मिनट रुकने के बाद, आँखों ही आँखों में एक-दूसरे के हालचाल लेने के बाद वे लोग बाहर चले गए. न उन लोगों ने कुछ कहा, पूछा और न हमने कुछ बोला, बताया. हम सभी अपनी-अपनी भूमिका में अपनी-अपनी तरह से खुद को सफल समझ रहे थे, खुद में विश्वास भर रहे थे. वे लोग कितने सहज होंगे हमें देख कर, कितना संयत कर पाएंगे अपने आपको दुर्घटना की वास्तविकता जानकर इसका अंदाजा नहीं. हमें कल शाम से सभी की जो चिंता लगी हुई थी, विशेष रूप से अम्मा और निशा की, उन्हें आज सहज देखकर अच्छा लगा. ऑपरेशन थियेटर में एकबारगी अपनी साँसों की डोर टूटने की आशंका हुई थी वह आशंका अब दूर-दूर नजर नहीं आ रही थी. 

आईसीयू के उस वीराने में मशीनों की बजने वाली बीप और हलकी लाइट्स के बीच हम खुद में नई रौशनी का जन्म होता देख रहे थे. अपने प्रति खुद को आशान्वित होता देख रहे थे. आत्मविश्वास के सहारे आत्मबल में और वृद्धि करना देख रहे थे.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

2 comments:

  1. पढ़ना भी कितना कठिन है और उसको देखना और सहनातो सोच कर ही मन काँप जाता है । तुम्हारे हौसले को सलाम ।

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    1. बुआ जी, अब डेढ़ दशक हो गए पर लगता है जैसे कल की बात हो.

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