8 - दर्द जुड़ गया हमसे धड़कन और साँस की तरह

अभी तक आईसीयू को फिल्मों, टीवी में ही देखते रहे थे, आज अपनी आँखों से उसकी अनुभूति कर रहे थे. हमारे अलावा शायद तीन-चार पलंग और थे. उन पर कोई था या नहीं, याद नहीं. नज़रों के सामने एक काउंटर जैसा बना हुआ था, जहाँ पर डॉक्टर्स और नर्सेज बैठे दिखते थे. हमारी उँगलियों में क्लिप्स लगी हुईं थीं जो हमारे पास की मशीनों से तारों के द्वारा जुड़ी हुई थीं. दिल की धड़कन, ब्लड प्रेशर सहित और भी न जाने किस-किस तरह के आँकड़े उन पर बन-बिगड़ रहे थे. गले के पास भी पट्टी बंधी समझ आई, जिसके बारे में बाद में जानकारी हुई कि नसों की मेन लाइन में कुछ नालियाँ डालकर ऐसी चिकित्सकीय व्यवस्था की गई है, जिसके द्वारा दवाई वगैरह शरीर के अन्दर भेजी जा सके. 


आईसीयू में न रात का पता चलता, न दिन का. न सुबह का आभास होता, न शाम का. यह जानकारी घर के किसी सदस्य के आने पर ही होती. चाय के आने पर सुबह-शाम की खबर मिलती. रात की जानकारी अपने आप हो जाती जबकि ऑपरेशन थियेटर में ले जाने की तैयारी होने लगती. तीन-चार लोगों के लिए हमें पलंग से उठाकर स्ट्रेचर पर लिटाना और फिर ऑपरेशन थियेटर में स्ट्रेचर से ऑपरेशन टेबल पर लिटाना संभव नहीं होता था. यही प्रक्रिया ऑपरेशन के बाद होती थी. इसका कारण दाहिनी जाँघ का सूजकर बहुत मोटी और भारी हो जाना तो था ही साथ ही कमर के पास लगी नालियों का एक गुच्छा भी था. बाँयी तरफ जाँघ के ठीक ऊपर एक जगह लगातार किसी तरह के लिक्विड या कहें कि अशुद्ध रक्त का जमाव होता रहता था. उससे घाव में संक्रमण न फैले, इसके लिए उसके निकलते रहने के लिए नालियों का एक जंक्शन जैसा लगाया गया था. ऐसे में हमें उठाने में बहुत ध्यान रखना पड़ता कहीं ये नालियों का गुच्छा न निकल जाए, कहीं जाँघ के घाव में हाथ लग जाने से हमारी पीड़ा न बढ़ जाए. जांघ का एक इंच भी हिलना सिर से पंजे तक दर्द की लहर दौड़ा देता था. ऐसे में पूरे चादर समेट कई-कई लोग उठाते हुए हमें इधर से उधर करते. दर्द, कष्ट, चीखना, चिल्लाना भी इसी के साथ हमारे संग इधर से उधर होता रहता.



बाँयी जाँघ के अलावा दाहिने पंजे को हम अपनी पूरी ताकत लगाने के बाद भी न हिला पाते थे और न ही उठा पाते थे. असल में उसका अँगूठा और एक ऊँगली एक्सीडेंट के समय ही कट गई थी. ऊपर की खाल, नसें आदि सब गायब थीं. शेष उँगलियाँ कई-कई टुकड़ों में हो गई थीं. पूरे पंजे की हड्डियाँ भी टूट कर कई-कई टुकड़ों के समूह में फ़ैल गईं थीं. पंजा भी जोड़ से टूट कर लटक चुका था. इसमें लगभग छह इंच लम्बी कील डाल कर इसे पैर से जोड़ कर बाँध दिया गया था. बाकी उँगलियों, हड्डियों को भी एक जाल से कस दिया गया था. रवि और उसके साथी डॉक्टर्स ने पंजे को बचाने में बहुत मेहनत की, ये सोच कर कि कृत्रिम पैर के लगने के बाद इसका सहारा मिल जायेगा.

दाहिना पंजा बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुका है, इसकी जानकारी हमें लगभग डेढ़-दो महीने बाद एक ऑपरेशन के दौरान हुई. दाहिने पंजे में पड़ी कील की जानकारी तीन महीने बाद तो उस दिन हुई जबकि कानपुर से उरई आने के पहले उसे रवि ने निकाला था. उसने बताया कि एक कील निकालनी है फिर तुम सहारा लेकर खड़े होने का अभ्यास करना. हम सोच रहे थे कि ये कुछ बेहोश वगैरह करके उसे निकालेगा मगर बातचीत करते-करते कब उसने किसी उपकरण के सहारे उस कील को निकाल दिया, हमें भनक तक न लगी. वो कील निकाल कर जब उसने दिखाई तो हमारे अन्दर एक ठंडी सी लहर दौड़ गई.

ऑपरेशन थियेटर में पहली रात जब रवि से अपना अलग हुआ पैर लगाने के लिए कहा था तब उसने साफ़-साफ़ कहा था कि हमारी जान बचाना उसकी प्राथमिकता है. उसके प्रयासों से जाँघ में या पंजे में किसी तरह का संक्रमण नहीं हुआ. कई-कई बार की स्किन ड्राफ्टिंग के बाद, कई-कई सर्जरी के बाद, कई-कई ऑपरेशन के बाद जाँघ के घाव और पंजे की चोट सही होने में लगभग एक वर्ष लग गया था. एक वर्ष तक पलंग हमारा कार्यक्षेत्र बना रहा. आज पंजा चोटमुक्त हो चुका है मगर दर्द से मुक्त नहीं हो सका है. एक्सीडेंट के ठीक पहले दिन से लेकर इस पोस्ट को लिखते समय तक एक सेकेण्ड भी ऐसा नहीं निकला जबकि पंजे में दर्द न हुआ हो. पंजे के ऊपरी हिस्से में किसी तरह सेंसेशन नहीं है. शेष बची तीन उँगलियाँ भी बिना किसी तरह की हरकत के टेढ़ी-मेढ़ी होकर बस पंजे से जुड़ी हुई हैं. इनमें अपने आप किसी तरह की गति अथवा हरकत नहीं है. जोड़ से टूट कर अलग हो जाने के बाद जुड़ने पर पंजा अपने मूल रूप में नहीं आ सका है, जिस कारण खड़े होने में, चलने में भी बराबर पीड़ा का अनुभव होता रहता है. किसी तरह का झटका, अचानक किसी चीज से छू जाने पर सिर तक झनझनाहट मच जाती है. पंजे में रक्त का संचार ऊपरी तरफ से नहीं बल्कि नीचे तरफ से ही है. ऊपर की तरफ की तमाम सारी नसों को जोड़ से थोड़ा ऊपर, टखने के बगल में ब्लॉक कर दिया गया है. यह स्थिति भी परेशानी पैदा करती है.  

दिमाग बिना किसी प्रयास के अपना काम करता हुआ, पलंग पर अकेले लेटे-लेटे आगे की योजनाओं को बनाता-बिगाड़ता रहता था. अपनी दुर्घटना की भयावहता देखने के बाद भी इसका एहसास कतई नहीं था कि आने वाला एक वर्ष पलंग पर ही निकलने वाला है. इसका भी भान कतई नहीं था कि इस समय होने वाला दर्द, कष्ट सदैव के लिए हमारे साथ जुड़ने वाला है. इसके कारण में जून में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम में शामिल होने के लिए जयपुर जाना तथा उसके साथ ही छोटे भाई पिंटू के विवाह की तैयारी करना था.

शाम को रवि के आने पर उससे जल्द से जल्द ठीक करने को कहा. उसने मुस्कुरा कर हमारी हथेली अपनी हथेली में भर ली और अपनी चिकित्सकीय प्रक्रिया की तैयारी करवाने लगा.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

2 comments:

  1. वाह इतनी तकलीफ और तुम लिख भी रहेथे ।

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    1. बुआ जी, एक महीने बाद जब पनकी में आये मामा के यहाँ तो उस समय पढ़ने की, लिखने की कोशिश की थी. सिर में धमक के कारण आँखों पर असर पड़ा था, जिसके चलते पाँच-सात मिनट से ज्यादा पढ़ न पाते थे. लिखना तो संभव ही नहीं हो पा रहा था, कलाई, उँगलियों की चोट के कारण. उस समय पैर के कटने से ज्यादा रोना इसका आ रहा था कि हम लिख नहीं पा रहे. डर लगता था सोच कर कि यदि लिख न पाए तो? उसी चोट के चलते राइटिंग पर भी असर पड़ा. कुछ अक्षर अपना आकार बदल गए. अब बहुत सही स्थिति है फिर भी.

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