पहली
रात से शुरू हुए इलाज के बाद हमें अनेक-अनेक बार ऑपरेशन टेबल से गुजरना पड़ा. अनेक-अनेक
इंजेक्शन रवि की निगरानी में, मुस्तैद निगाहों के बीच से गुजर
कर हमारे शरीर में लगते. बाँयी जाँघ की वीभत्स स्थिति को तो हमने अपनी आँखों उसके पहले
क्षण से ही देखा था मगर ऑपरेशन थियेटर में जिस दर्द से, जिस अनुभव
से गुजरना होता था वह अब भी शरीर में कंपकंपी पैदा कर देता है.
बाँयी
जाँघ के घाव के ऊपर बनी एक पॉकेट से एक तरल पदार्थ का रिसाव बराबर बना हुआ था. लगातार
होती मरहम-पट्टी, सर्जरी के बाद भी उसमें सुधार होता नहीं दिख
रहा था. रवि की चिंता भी उसी को लेकर बनी हुई थी. इसी तरह दाहिने पंजे की स्थिति की
वास्तविकता को उसने भली-भांति देखा हुआ था, वही उसकी गंभीरता
को भी समझ रहा था. हमारे सामने दोनों पैरों की चोट बस सफ़ेद पट्टियों के भीतर का घाव
भर था. हमारे लिए उन घावों की स्थिति का अर्थ सफ़ेद पट्टियों की परतों को भेद कर बाहर
बन जाने वाले खून के निशान थे.
आईसीयू
से निकल कर अपने लोगों के बीच आ गए थे इस कारण पूरा दिन बड़े आराम से सबके साथ बीत जाता
मगर जैसे-जैसे शाम गहराती, रात करीब आती ऑपरेशन थियेटर में मिलने
वाले दर्द, कष्ट का एहसास मात्र ही हमें अन्दर तक हिला जाता.
घावों की सफाई के लिए पट्टियों का खोला जाना बहुत कष्टकारी होता था, भयंकर पीड़ा देता
था. दोनों पैरों के घाव से उठने वाले दर्द का एहसास आज भी भीतर तक हिला जाता है. बेहोशी
की दवा हमें ज्यादा देर बेहोश नहीं रख पाती थी. रवि नहीं चाहता था कि हमें ज्यादा डोज
दी जाए इस कारण पट्टी खोलने का काम बिना बेहोश किये ही किया जाता.
घावों
से निरंतर खून के रिसने के कारण पट्टियाँ घावों से चिपक जाया करती थीं. उनको
यद्यपि किसी तरल पदार्थ से गीला करके ही निकालने का प्रयास किया जाता था मगर दर्द
जैसे उन सबको किनारे करते हुए कष्ट देने चला आता था. पट्टियों के हटने की स्थिति में
हमें अपने पास, अपने साथ रवि का होना किसी सुरक्षा घेरे में होना महसूस कराता था.
उसकी अनुपस्थिति में किसी को भी हम अपनी पट्टियों को हाथ न लगाने देते थे. किसी
पैर को, उनके घावों को जरा भी छूने नहीं देते थे. इस कारण से कई बार ऑपरेशन थियेटर
के सहायक, हॉस्पिटल के डॉक्टर नाराज भी हो गए. हमें लगता रवि के कारण पट्टियों का
हटाया जाना हमारे दर्द, पीड़ा को ध्यान में रखते हुए ही होगा.
ड्रेसिंग
के, सर्जरी के, साफ़-सफाई, मरहम-पट्टी के क्रम में कई बार स्पाइनल कार्ड में इंजेक्शन
लगाया जाता, कई बार इंजेक्शन के सहारे बेहोशी की दवा देकर ये प्रक्रिया चलती. बेहोशी
का इंजेक्शन बहुत देर असरकारी न रहता. एक बार डोज देने के बाद बहुत देर तक बेहोशी
नहीं रहती. जल्दी ही होश में आने के बाद चीखना-चिल्लाना शुरू हो जाता, चोटों में
दर्द, असहनीय पीड़ा का अनुभव होने लगता.
जितनी
देर बेहोशी रहती उतनी देर भी दिमाग संज्ञा-शून्य नहीं रहता. ऐसा लगता जैसे हम किसी
बहुत ही ठंडे क्षेत्र में हैं. बहुत सारे पाइप एक के ऊपर एक लगे हुए हैं जिनमें
बहुत सारा ठंडा लिक्विड भरा हुआ है. कभी ये लाल रंग का नजर आता, कभी इसका रंग हरा
हो जाता, कभी काला सा. इस लिक्विड में डूबते-उतराते हम एक पाइप से दूसरे पाइप से
गुजरते हुए ऊपर की तरफ बढ़ते जाते. इसी में अनुभव होता जैसे कोशिकाओं के आकार,
रूप-रंग की अनेक दीवारें रास्ता रोक रहीं हैं. इनसे टकराना, बहते जाना होता रहता.
इसी में एक स्थिति ये आती कि ये सब ख़त्म हो जाता और दर्द का अनुभव होने लगता. हमें
बस हमारी चीखें सुनाई देतीं. अपनी साँसों का तेज-तेज चलना स्पष्ट समझ आता. अपना
हाँफना खुद में अनुभव होता. ऐसा महसूस होता जैसे कई-कई किलोमीटर की दौड़ लगाकर आ
रहे हैं. उन्हीं सबके बीच रवि की आवाज़ का सुनाई देना मधुर लगता. उसकी हथेलियों का स्पर्श दर्द को कम कर देता था.
रवि
के लिए और ऑपरेशन थियेटर के लोगों के लिए बेहोशी की दवा का बहुत देर असर न करना
आश्चर्यजनक था. ऐसा होने पर रवि ने वो छोटी सी शीशी दिखाते हुए एक-दो बार बताया कि
सामान्य रूप में उसकी तीन डोज बनती हैं अर्थात एक छोटी शीशी से तीन लोगों को बेहोश
करके उनका इलाज होता है. इसके उलट हमारी ड्रेसिंग में वह एक शीशी खर्च हो जाती थी.
उसकी तीन डोज हमें होश में आने के कुछ-कुछ मिनट बाद देकर बेहोश रखने की कोशिश की
जाती. डॉक्टर होने के नाते रवि को उस दवा के नकारात्मक प्रभाव भी पता थे, इस कारण
से वह उसकी बहुत ज्यादा डोज भी हमें देना नहीं चाहता था. हमारे स्वास्थ्य और आगे
की स्थिति को ध्यान में रखते हुए होश में आने के बाद भी कुछ देर बाद इंजेक्शन का
दूसरा डोज दिया जाता. ड्रेसिंग के समय में बेहोशी से बाहर आ जाना, बहुत देर तक उस
दवा का असर न होना भी हमें कष्ट से गुजारता था.
ऐसी
स्थिति होने के चलते रवि का आश्चर्य भरा एक सवाल बार-बार होता कि क्यों बे,
क्या कोई नशा करते हो? हर बार मुस्कुराकर हमारा
इंकार होता और उसका भी इंकार इस रूप में होता कि तुम झूठ बोल रहे हो.
पता
नहीं संसार को संचालित करने वाली परम सत्ता हमारी आंतरिक शक्ति का इम्तिहान ले रही
थी या फिर भविष्य के दर्द सहने की आदत डलवा रही थी जो कुछ मिनटों की संज्ञाशून्यता
के बाद फिर होशोहवास में ला देती थी.
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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र
जो दर्द देता है दवा भी उसी के पास होती है।
ReplyDeleteआपकी जिंदादिली को प्रणाम।
दर्द की दवा देता है मगर दर्द दबाता नहीं.
Deleteआभार आपका.
बहुत कष्टकारी स्थिति से गुजरे हो और तुम्हारी सहनशक्ति और धैर्य की प्रशंसा करती हूँ । ईश्वर अब कोई कष्ट की छाया न पड़े ।
ReplyDeleteजी बुआ जी,
Deleteआशीर्वाद आपका.
राजा साहब बहुत मुश्किल होता है आपने तो बहुत कुछ सहा पर इसमें कोई शक नहीं आत्मशक्ति बहुत बड़ी चीज है। वर्ष 99 2000 की बात है मेरी भी फीमर बोन की हड्डी बॉल से क्रेक हो गई थी क्योंकि पोलियो वाला पैर था फीमर बोन भी असामान्य थी। बहुत पतली थी। ऑपरेशन थिएटर से डॉक्टर ने नागपुर रेफर किया और कहा कि मेरी हिम्मत नहीं हो रही है तब हमने डॉक्टर से कहा सर मेरी हिम्मत तो है चलो आप ऑपरेशन शुरू करो डरो मत चिकित्सक बहुत ही संवेदनशील थे आला दर्जे के चिकित्सक हैं परंतु उन्होंने अपने गुरु के पास नागपुर रिफर कर दिया। 6 घंटे का सफर 12 घंटे में पूरा हुआ असहनीय दर्द वह दिन कितना भयानक दिन था। पर पता नहीं कहां से आत्म शक्ति आ जाती है रास्ते में इंडिया टुडे पढ़ रहा था और अचानक नामवर सिंह का एक आलेख नजर के सामने आ गया जिसमें उन्होंने मध्यम वर्ग को नाकारा सिद्ध करने की कोशिश की थी जैसा आमतौर पर वामपंथी लेखन में पाया गया है। गाड़ी में हमारे साथ मम्मी और भैया थे हमने नामवर सिंह के खिलाफ तथ्यपरक जानकारी अभिव्यक्त करनी शुरू कर दी दर्द कहां चला गया भगवान जाने पर मैं इतना जानता हूं उस दर्द के साथ मस्तिष्क को मत देने वाला भाषण जरूर सबने सुना। राजा साहब आपकी हिम्मत की तो दाद देनी होगी कुशल रहें मस्त रहें और आत्म शक्ति में इजाफा होता रहे
ReplyDeleteऐसे समय में आत्मबल सबके साथ दिखने से भी आता है. अब तो आप सब भी साथ हैं, मस्ती और बढ़ चुकी है.
DeleteBahut hi Peedadayak ahsas mitra mai apke adamya Sahas evm Atmshakti ka mureed hu Chintu bhai.
ReplyDeleteApka Sudhir Chauhan
हम सबकी उस दौर की मस्ती आज हमारी ताकत बन कर खड़ी है.
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