37 - छोटे-छोटे कदमों का लड़खड़ाना और चल पड़ना

समय अपनी तरह से हमारी परीक्षा लेने में लगा हुआ था. एलिम्को में हमारे चलने का अभ्यास जैसे उसी का अंग बना हुआ था. जिस समय पैर का नाप देने आये थे, उस समय लगा था कि कृत्रिम पैर बनाकर दे देते होंगे. जब पैर बनकर तैयार हुआ और पहले दिन चलने का अभ्यास किया तब भी यही अंदाजा लगाया था कि एक-दो दिन ही यहाँ आकर अभ्यास करना होगा. एलिम्को आने के बाद रोज ही मालूम चलता कि अभी कुछ दिन और आना होगा. हम अपनी मानसिक स्थिति को जितना मजबूत बनाने की कोशिश करते, पैरों की स्थिति उसे उतना ही कमजोर बनाने का प्रयास करती. दिन भर के अभ्यास के बाद शाम को एक अनिश्चितता लेकर वापस घर जाना होता.


इस दौरान लगभग अस्सी वर्ष की एक वृद्ध महिला को देखा. एक युवा लड़की से परिचय हुआ जिसके दोनों पैर कृत्रिम लगे हुए थे. उसके दोनों पैर घुटने के ऊपर से कटे हुए थे. हमें अभ्यास करते देख वह स्वयं चलकर पास आई. अपने अनुभव बताते हुए चलने सम्बन्धी कुछ सुझाव भी दिए. एक युवा लड़के से मुलाकात हुई जिसका एक पैर महज नौ वर्ष की उम्र में ही एक दुर्घटना में कट गया था. ऐसे कई-कई लोगों से मुलाकात, परिचय बना हुआ था. इन सबके बीच दिमाग में जल्दी से जल्दी वहाँ के माहौल से निकलने की कोशिश रहती थी.


लगभग बारह-पंद्रह दिन बाद वहाँ के डॉक्टर साहब ने आकर हमारे चलने की स्थिति देखी. एलिम्को में डॉक्टर द्वारा देखना नियमित रूप से नहीं होता था. वहाँ उनके सहायक अपनी देख-रेख में अभ्यास करवाते थे. उस समय हम चलने के अभ्यास के लिए बने निश्चित समय से बाहर चलने का अभ्यास कर रहे थे. ऐसा करते हुए कोई दो-तीन दिन हुए होंगे. हॉल में चलने के दौरान एक छड़ी का सहारा लेकर चलने का अभ्यास किया जा रहा था. छड़ी के साथ चलना सहज तो नहीं हो रहा था मगर कुछ-कुछ चल ले रहे थे. डॉक्टर साहब ने छड़ी का सहारा लेकर चलते देखा तो उन्होंने बिना छड़ी के चलने को कहा. इस पर हमने अपने दाहिने पंजे और घुटने के दर्द की स्थिति बताते हुए चलने में कठिनाई होने की बात कही. उन्होंने हमारी बात को सिरे से खारिज करते हुए हमारे हाथ से छड़ी अपने हाथों में ले ली और बोले, आप चल लेंगे. कोशिश करिए.

अब हॉल के बीचों-बीच हम बस खड़े हुए थे. हाथ में छड़ी नहीं. एक कदम उठाना ठीक वैसा ही लग रहा था जैसे कोई बच्चा अपना पहला कदम बढ़ाता है. एक डर सा पैदा हुआ और हमने एक खामोश निगाह बाँयी तरफ खड़े डॉक्टर साहब पर डाली फिर दाहिनी तरफ खड़े उनके सहायक पर डाली. दोनों लोग इतनी दूर खड़े हुए थे कि किसी असामान्य स्थिति के होने पर हाथ बढ़ाकर उनको पकड़ भी नहीं सकते थे. डॉक्टर साहब ने हमारे आसपास से सबको दूर भी कर दिया था. अब मरता क्या न करता वाली स्थिति थी.

जैसे तैसे हिम्मत बाँध कर बाँए कृत्रिम पैर को आगे बढ़ाया. एक छोटा सा कदम बढ़ गया. फिर उसके सहारे अपने दाहिने पैर को आगे बढ़ाया. फिर एक छोटा सा कदम. ‘शाबास, चलिए-चलिए’ डॉक्टर साहब का स्वर सुनाई दिया. दो छोटे-छोटे कदम बिना छड़ी के, बिना किसी सहारे के भरे तो दिल में एक और कदम सहजता से भर लेने की हिम्मत जगी. हिम्मत जुटाते हुए बाँए पैर को आगे बढ़ाया और एक अल्पविराम सा लेकर दाहिने कदम के सहारे जैसे ही एक और कदम बढ़ाने की कोशिश की दर्द की एक तेज लहर दाहिने पंजे से सिर तक दौड़ गई. खुद का संतुलन पूरी तरह से बिगड़ता हुआ लगा. ऐसा लगा कि बस जमीन पर गिरने वाले ही हैं. मुँह से सामने खड़े छोटे भाई का नाम चीखते हुए निकला. इससे पहले कि हम गिरते उसने हमें पकड़ लिया. सबकुछ पलक झपकने भर की देरी में हुआ. दाहिने पैर के अचानक से लड़खड़ाने को देखकर डॉक्टर साहब भी चिन्तित से लगे. अब छड़ी वापस हमारे हाथ में थी.  

कुछ देर आराम करने के बाद, दाहिने पंजे, पैर की मालिश करने के बाद छड़ी के सहारे धीरे-धीरे कदम फिर उठने लगे. बिना छड़ी के चलने के दुस्साहसिक कदम के बाद दर्द फिर अपने मूल रूप में शुरू हो गया. उस दिन समय से पहले अभ्यास को रोकना पड़ा, वापस घर आना पड़ा. अभ्यास करने को बनी जगह से बाहर आकर दो-तीन दिन छड़ी के सहारे किये जा रहे अभ्यास से एलिम्को से जल्द रिलीव होने की जो सम्भावना जगी थी, वह बिना छड़ी के सहारे चले महज चार कदमों ने मिटा दी.

घर तक आते-आते दर्द बुरी तरह से अपनी चपेट में ले चुका था. दाहिने पंजे में हलकी सी सूजन भी आ गई थी. अगले दिन अभ्यास के लिए जाना टालते हुए देर रात तक पैर की, पंजे की सिकाई, मालिश, दवा-मरहम में लगे रहे.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

1 comment:

  1. इतनी तकलीफ़ में भी हिम्मत बनी रही, यह बड़ी बात है।

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