39 - ज़िन्दगी को ज़िन्दगी से जीतने की कोशिश में

पैर लगने का सुख भी था और साथ ही यह संतोष भी कि अब एलिम्को तक की भागदौड़ नहीं करनी पड़ेगी. अपने नए साथियों (कृत्रिम पैर और छड़ी) के साथ जीवन का अगला सफ़र नए सिरे से आरम्भ करना था. शारीरिक बदलाव के साथ आये बहुत से बदलावों को स्वीकारते हुए कुछ और बदलाव स्वीकारने को तैयार थे. चलने के तरीके में, बैठे के तरीके में, काम करने की स्थितियाँ, दैनिक रोजमर्रा के कामों में तमाम तरह के परिवर्तन करना अपेक्षित समझ आ रहा था. नित्यक्रियाओं में कृत्रिम पैर के साथ समायोजन बिठाना आवश्यक था. जमीन पर बैठने वाली स्थिति अभी आसान नहीं लग रही थी. घुटने मोड़ने वाली स्थिति भी समाप्त हो चुकी थी. दौड़ने का काम पूरी तरह से छोड़ना था.  


पैर की अपनी स्थिति थी. चलने के समय उसके घुटने वाली जगह पर लगे यंत्र में एक तरह का लॉक लगा हुआ था. जिसे सीढियाँ चढ़ते-उतरते समय लगा लेना अनिवार्य था और जब किसी समतल जगह पर चलना हो रहा है तो उस लॉक को खोलना है. इससे चलते समय पैर असली वाले पैर की तरह आगे-पीछे जाता हुआ दिखाई देता है. चढ़ते-उतरते समय लॉक का लगाया जाना सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक था. ऐसा न होने की दशा में कृत्रिम पैर के वहीं से मुड़ जाता और गिरना निश्चित होता. सामान्य रूप से चलते समय लॉक को खोलकर चलने में भी कई बार गिरना हुआ. बहुत कम जगह ऐसी मिलती जो एकदम समतल होती अन्यथा की स्थिति में गड्ढे, कंकड़, पत्थर या कोई अन्य सामान पड़े होने के कारण उससे टकरा कर भी गिरना हुआ. कृत्रिम पैर के घुटने की जगह लगे यंत्र पर हमारा किसी भी तरह का नियंत्रण नहीं था. असावधानी की स्थिति में एक बार पैर मुड़ने का अर्थ  उसका पूरी तरह मुड़ना होता और परिणाम हमारा गिरना होता.


बहुत सारे कामों की सूची पहले से बनी हुई थी, उरई आकर उनको संपन्न करना था. बहुत सारे कामों में प्राथमिकता में छोटे भाई के विवाह को संपन्न करवाना था. परिवार में बहुत लम्बे समय बाद ख़ुशी का अवसर आया था. अपनी शारीरिक स्थिति को देखते हुए कन्या पक्ष के लोगों ने उरई आकर विवाह संपन्न करवाने का हमारा निवेदन स्वीकारते हुए हमारी बहुत बड़ी समस्या का समाधान निकाल दिया था. पूरी धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ. सबके रहते हुए भी पिताजी की कमी कदम-कदम पर महसूस हुई. जब छोटे भाई का विवाह निश्चित हुआ था, तब बहुत सारे सपने सोच रखे थे, बहुत सी योजनायें मित्रों संग बना रखी थीं मगर वे सब यहाँ जिम्मेवारी के चलते कहीं गहरे बंद करके रखनी पड़ीं.

इसी बीच एक कार्यक्रम की समाप्ति पश्चात् खुद को खुद की नजर में जाँचने-परखने की दृष्टि से छोटे भाई सौरभ से कहा कि हमें बाइक चलानी है. तुम पीछे बैठो और गिरने की स्थिति में सँभाल लेना. जिस परिसर में कार्यक्रम संपन्न हुआ था वह पर्याप्त बड़ा था और हम भाई लोग और उनके इक्का-दुक्का मित्र रह गए थे. छोटे भाई ने एक पल की झिझक के बाद हमारा बाइक चलाना मान लिया. वह पीछे बैठा और हम बाइक चलाने की मुद्रा में. सेल्फ स्टार्ट तकनीक के कारण बाइक स्टार्ट करना मुश्किल न रह गया था. कृत्रिम पैर की चलन सम्बन्धी अपनी सीमाओं के कारण उससे गियर बदलना कुछ कठिन समझ आया. इसके बाद भी दो-चार प्रयासों के बाद गियर डालकर बाइक चला दी.

एक साल से अधिक समय बाद बाइक चलाई जा रही थी. कृत्रिम पैर और शारीरिक अवस्था के चलते उसका नियंत्रण करना कुछ मुश्किल लग रहा था मगर यह प्रयास अनियंत्रित समझ नहीं आ रहा था. कुछ आगे बढ़ने के बाद फिर एक प्रयास और गियर में बदलाव. बाइक ने रफ़्तार पकड़ी और साथ में पर्याप्त दूरी भी नाप ली. अन्दर ही अन्दर यह डर था कि इतने लम्बे समय बाद बाइक का चलाना कहीं कुछ अनर्थ न कर दे, ख़ुशी के इस अवसर में कोई दुःख का भाव पैदा न कर दे तो रफ़्तार भी नियंत्रण में थी. बाइक ने अभी कुछ मीटर की दूरी ही नापी होगी कि छोटे भाई और उसके दोस्तों की नजर हमारे इस कारनामे पर पड़ी.

उन लोगों ने अगले ही पल हमारी बाइक को घेरकर पकड़ लिया. उन सबके हावभाव, आँखों में हमारे बाइक चलाने में आश्चर्य से ज्यादा भय जैसा दिखा, हमारी सुरक्षा का भाव दिखा. हम और हमारी बाइक उनके घेरे में बंद खड़ी थी. उन सबकी आँखें अपनी कहानी कह रही थीं जिन्हें पढ़ना सहज था. उनकी भावनाओं को समझते हुए, ख़ुशी के अवसर को बस ख़ुशी का अवसर बनाये रखते हुए बाइक उनके हवाले कर दी.

छड़ी और कृत्रिम पैर के सहारे चलते हुए विश्वास भी साथ चलता रहता, आगे-आगे बढ़ता रहता. उस दिन बाइक चलाने ने, भले ही बाइक ने दूरी कम नापी हो, आत्मविश्वास बहुत लम्बी दूरी नाप ली थी.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

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