40 - दर्द और हम, आमादा हैं निकालने को एक-दूसरे का दम

कृत्रिम पैर के लग जाने के बाद बहुत सी आदतों को बदलना पड़ा. बहुत सी नए तरीकों को आजमाना पड़ा. इन्हीं तमाम नई आदतों को अपनाने और पुरानी उन आदतों को छोड़ने, जिनका अब कोई काम नहीं था, के अभ्यास के साथ-साथ ज़िन्दगी को दोबारा से सामान्य बनाने का प्रयास किया जा रहा था. उरई आने के बाद पिछले एक साल से रुके हुए कामों को पूरा करने की कोशिश होने लगी. एक बहुत बड़ी जिम्मेवारी, छोटे भाई की शादी की थी, वह भी सकुशल पूरी हो गई. पैदल बहुत दूर चलना नहीं हो पाता था, खड़े रहना भी बहुत देर नहीं हो पाता था.


आना-जाना ज्यादातर बाइक से ही हुआ करता था वो भी छोटे भाई के सहारे या फिर किसी न किसी मित्र के साथ. सबकुछ सामान्य सा दिखने की स्थिति के बाद जैसे हालात सामान्य होना नहीं चाहते थे. पैर लगने के बाद के आरम्भिक दिनों में दर्द के कारण बहुत ज्यादा चलना नहीं हुआ करता था. तमाम सारी कागजी कार्यवाही के लिए बाहर जाना ही पड़ता था. कॉलेज खुलने के बाद नियमित रूप से जाना शुरू हुआ. मिलने-जुलने के क्रम में भी बाहर जाना शुरू किया. इसी में पैर की असल स्थिति के बारे में भी समझ आया. कृत्रिम पैर तो बहुत अच्छे से काम कर रहा था मगर दाहिना पंजा साथ देने को तैयार नहीं दिखता था.




चलना-फिरना भी आवश्यक था. ऐसे में कुछ दिनों बाद एक मुश्किल सामने आई. कॉलेज से लौटने पर जूते उतारने के बाद देखा कि दाहिने पंजे में बाँधी गई क्रैप बैंडेज (गरम पट्टी) खून से रँगी हुई है. घबराहट में समझ नहीं आया कि ऐसा कैसे हो गया? कहीं टकराए भी नहीं, कहीं किसी जगह दुर्घटना जैसा भी कुछ नहीं हुआ, पैर पर कुछ गिरा भी नहीं फिर ये खून कैसे, कहाँ से? पट्टी खोली तो सब समझ में आ गया. पंजे की एक हड्डी का छोटा सा टुकड़ा टूटकर बाहर निकल आया था. इसी कारण उसने सर्जरी के माध्यम से लगाई गई खाल कट कर घाव के रूप में बदल गई थी. खून का निकलना उसी घाव से हुआ था. अपने मित्र रवि को बताया और उसी के अनुसार उसकी ड्रेसिंग कर ली.


दरअसल दुर्घटना के समय दाहिना पंजा बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया था. अँगूठा और एक उँगली पहले ही कट चुकी थी. बाकी पंजा छोटी-छोटी अनेक हड्डियों के टुकड़ों के रूप में बदल गया था. उन सभी हड्डियों के टुकड़ों को कई महीने फ्रेम में बाँधकर रखने के बाद पंजे का कुछ-कुछ आकार बन पाया था. दाहिने पंजे में सेंसेशन सिर्फ नीचे, तलवे की तरफ था. ऊपरी भाग में छोटे-छोटे टुकड़ों में हड्डियाँ और सर्जरी करके लगाई गई खाल थी. ज्यादा चलने के कारण, पंजे पर दवाब के कारण हड्डी का जो भी टुकड़ा दवाब को बर्दाश्त नहीं कर पाता था वह पंजे का, हड्डियों का साथ छोड़कर बाहर निकल जाता. चूँकि ऊपरी हिस्से में किसी तरह का सेंसेशन नहीं था, कोई एहसास नहीं था इस कारण न तो दर्द होता, न खून निकलना मालूम पड़ता और न ही खून की गर्माहट महसूस होती. पंजे से हड्डियों के छोटे-छोटे टुकड़े निकलने का यह क्रम महीनों बना रहा.


यह स्थिति चिंताजनक भी थी क्योंकि किसी तरह की संवेदना अथवा एहसास न होने के कारण न तो दर्द होता और न ही खून का बहना मालूम पड़ता. ऐसे में ज्यादा खून निकल जाना भी नुकसानदायक हो सकता था. इस चिंताजनक स्थिति का सामना तो करना ही था क्योंकि एक्सरे में भी स्पष्ट समझ नहीं आता कि कब कौन सा टुकड़ा निकल कर बाहर आ जाएगा. फिलहाल जब तक टुकड़ों का निकलना पूरी तरह से बंद न हो गया तक तक कुछ अन्तराल पर जूता खोलकर पंजे का निरीक्षण कर लिया जाता.


लगातार होते अभ्यास से, लगातार बाहर निकलने से, लगातार चलने-फिरने से पैर की, पंजे की दिक्कतें धीरे-धीरे सामने आ रही थीं. उनका इलाज भी होता जा रहा था. कुछ दिक्कतें लाइलाज बनी रहीं, वे आज भी परेशान करती हैं. उनमें एक तो दाहिने पंजे का दर्द है जो दुर्घटना के दिन से लेकर अभी तक एक सेकेण्ड को भी बंद नहीं हुआ है और दूसरा बाँए कटे पैर की फाल्स फीलिंग. फिलहाल आगे बढ़ना ज़ारी है. दर्द अपना काम कर रहा है, हम अपना काम कर रहे हैं. दर्द लगातार बना रहता है, हम चलते-फिरते-घूमते रहते हैं. न वह हमें छोड़ रहा है और न ही हम उस पर ध्यान दे रहे हैं. शायद दोनों लोग ही एक-दूसरे की परीक्षा ले रहे हैं, एक-दूसरे की दम निकालने पर आमादा हैं.

 

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

1 comment:

  1. शारीरिक और मानसिक पीड़ा दोनों को एकसाथ बर्दाश्त करते हुए जीवन पथ पर अग्रसर रहना बेहद कष्टदायी है। आपका हौसला बना रहे, यही कामना है।

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