20 - कभी सुनहली धूप तो कभी शाम धुँधली सी

मई की गर्मी अपने रंग में थी. किसी-किसी दिन बहुत ही उलझन होती. न बैठे चैन आता और न लेटे. कभी बैठते, कभी लेटते. कई बार अपनी उलझन बताते नहीं थे क्योंकि सभी लोग परेशान होने लगते थे. किसी भी तरह की उलझन होने के बाद भी दिन तो आसानी से गुजर जाता मगर रात को दिक्कत हो जाती. न चाहते हुए भी इस डर से आँखें बंद रखनी पड़तीं कि घरवालों को भनक न लग जाये कि हम जाग रहे हैं नहीं तो सबकी नींद गायब. उनको लगता कि हम अपनी शारीरिक अवस्था को लेकर चिंताग्रस्त तो नहीं. उनको ये लगता कि हमारे नींद न आने का या फिर हमारे परेशान होने का कारण हमारी वर्तमान स्थिति तो नहीं.


उस रात सभी लोग अपने-अपने काम निपटाकर लेट गए. हम भी सोने की कोशिश में थे मगर अजीब सी उलझन हो रही थी. बिना किसी सहारे के करवट ले नहीं पाते थे सो उसी एक अवस्था में लेटे रहने से कई बार उलझन होने लगती थी. एक बार खुद से हिम्मत करके करवट लेने की कोशिश की फिर डर गए कि कहीं दाहिना पंजा न हिल जाए. उसका हिलना भयंकर दर्द देता था. इसके साथ ही हिलना-डुलना बाँयी जाँघ की चोट के लिए हानिकारक हो सकता था. ऐसी कोई भी स्थिति बनी तो रात में उसका निदान मुश्किल हो जायेगा. यह विचार आते ही शांत लेटे रहे.

उलझन मानसिक से ज्यादा शारीरिक समझ आई. दाहिने पैर में कुछ अजीब सा दर्द महसूस होने लगा. ऐसा दर्द इससे पहले किसी दिन और हुआ हो, ऐसा याद नहीं आ रहा था. ड्रेसिंग उसी दिन हुई थी तो लगा उसी कारण से दर्द, जलन की अनुभूति हो रही होगी. एक-दो बार ऐसा हुआ कि क्रैप बैंडेज कुछ टाइट बाँध दी गई तो भी उलझन महसूस होती थी. पहले लगा कि आज ड्रेसिंग के बाद शायद क्रैप बैंडेज टाइट बाँध दी गई हो मगर जिस तरह की जलन, जिस तरह का एहसास पंजे में हो रहा था वह कुछ नया और अजीब सा लगा. पंजे की चोट पर प्रभाव न पड़े, इसे सोचकर हलके से पैर को हिलाया भी मगर कोई आराम समझ नहीं आया. लगभग एक-डेढ़ घंटे तक इस स्थिति से जूझने के बाद जब धैर्य जवाब दे गया तो हमने आवाज़ लगाई.


सभी सदस्य इकट्ठे हो गए. हमारे आवाज़ देने का अर्थ ही था कि हमें कोई बड़ी समस्या है. सबके चेहरे पर एक चिंता सी दिखाई दी. हमने पंजे की तरफ इशारा करते हुए वहाँ जलन, दर्द जैसे अनुभव के बारे में बताया. हमें सहारा देकर बिठाया गया और छोटे भाई ने पंजे की तरफ ध्यान दिया. छोटे भाई सहित सबकी एक हलकी सी चीख निकल गई. दाहिने पंजे पर तमाम सारी लाल चीटियों ने झुण्ड बनाकर कब्ज़ा कर रखा था. किसी और जगह चींटियाँ लगी होतीं तो उनको हाथ के सहारे या फिर किसी कपड़े की मदद से झाड दिया जाता लेकिन यहाँ तो चोट के कारण ऐसा कर भी नहीं सकते थे. एक तरफ से फूँकते हुए हवा के द्वारा चींटियों को उड़ाने की कोशिश की गई.

क्रैप बैंडेज को ऊपर से हलके से हटाते हुए देखा तो चींटियों ने उँगलियों तक अपनी पहुँच बना रखी थी. उनका काटना, रेंगना ही पंजे में अजीब सा एहसास जगा रहा था. रवि को फोन करके इस बारे में बताया गया. उसके कहे अनुसार पैर के दोनों तरफ तकियाँ लगाकर हिलने-डुलने से रोका गया. इसके बाद हलके हाथों से क्रैप बैंडेज को खोला गया. उसे पूरा हटाने के बाद पट्टियों को हटाने का उपक्रम किया जाने लगा. चूँकि अनेक पट्टियाँ घावों पर बंधीं होती थीं ऐसे में तीन-चार पट्टियों के उतार दिए जाने के बाद उँगलियाँ चींटी-मुक्त समझ आने लगीं. इसके बाद भी बहुत गौर से एक-एक करके सबने जाँच-परीक्षण किया और अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की. अब चींटियाँ बिलकुल भी नहीं थीं और कुछ समय पहले हो रही उलझन भी कुछ कम समझ आई.

यह समझ आ गया था कि पट्टियों में खून के लग जाने के कारण चींटियाँ उसकी गंध के चलते वहाँ अपना भोजन तलाशने चली आईं होंगीं. इसके बाद कमरे की सफाई, हमारी देखभाल के बीच एक प्रक्रिया बीच-बीच में हमारे घावों को देखने की भी अपनाई जाने लगी. इस सजगता के कारण उस रात का यह अनुभव फिर किसी दिन हमारे साथ न गुजरा.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 

8 comments:

  1. घाव पर चींटी का रेंगना काफी कष्टदायी रहा होगा ,पर समय रहते देख लिया ,ये ठीक रहा ,बहुत अच्छा लगा पढ़ना ।बढ़िया है

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  2. पढ़कर कष्ट का अंदाजा हो रहा है. आपकी हिम्मत काबिले तारीफ़ है.

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    1. हिम्मत ने ही लड़ने की हिम्मत दी. आभार आपका.

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  3. क्या मंजर रहा होगा कल्पना ही की जा सकती है ।

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