21 - अपने साथ हों तो सारे कष्ट छोटे लगते हैं

बहुत राहत मिली थी दिल को जबकि मई माह बिना किसी समस्या के निकल गया था. लगातार दो महीनों में परिवार ने दो बड़े संकट सहे तो एक हलकी सी आहट भी किसी आशंका की आहट समझ आती. हम सभी लोग परिवार पर आये इस संकट से उबरने की कोशिश में एक-दूसरे की हिम्मत बनते. जो हो चुका था, उसे बदला नहीं जा सकता था बस यही सोच आगे बढ़ने की कोशिश की जाती. हँसते-मुस्कुराते समय बिताया जा रहा था.


पनकी में लाइट का जाना उस समय न के बराबर था. यदि किसी दिन लाइट का जाना हुआ तो इतनी देर नहीं कि परेशान हुआ जाये. हमारी शारीरिक स्थिति को देखते हुए हवा की आवश्यकता अधिक थी. एक शाम लाइट नहीं आ रही थी. बड़े मामा जी अपनी नियमित टहलने, मिलने की चर्या में आये और खबर दी कि उस क्षेत्र में कोई बड़ी समस्या आ गई है, संभव है कि रात भर लाइट न आये. उन्हीं की बताई दुकान से जेनरेटर की व्यवस्था करवा ली गई. रात भर उसी के सहारे काटी गई. दिन में भी पता किया गया तो मालूम चला कि देर रात बिजली आने की संभावना है. इस चक्कर में जेनरेटर उस रात भी रोक लिया गया.


इस तरफ मामा-भांजे के बीच खूब मजाक चलता है, सो हम सभी मामा लोगों साथ खूब मौज लिया करते. उस दिन लगा जैसे मामा के घर के आसपास का वातावरण भी मौज लेने के मूड में आ गया था. हम सबको हँसता-मुस्कुराता देख उसने भी हँसने-मुस्कुराने की सोच ली. इसका परिणाम ये हुआ कि दोपहर बाद खूब आँधी चली और उसके बाद जो पानी बरसना शुरू हुआ तो लगा जैसे कि सदियों से बरसने को तरस रहे थे. ऐसे में बिजली आने का सवाल ही नहीं उठता था.


रात को बरसते में ही छाता लगाये मामा जी प्रकट हुए. उनका दिन भर में एक बार हमारे पास आना जरूर होता था. उसमें भी ज्यादातर रात को ही आना होता था लेकिन इस मूसलाधार बारिश में उनका आना चौंकाने वाला था. आते ही उन्होने जेनरेटर को अन्दर रखने की सलाह दी. जेनरेटर घर के दरवाजे पर बाहर गली में ही रखा हुआ था. मामा जी ने ही बताया कि यदि पानी बरसने की यही रफ़्तार घंटे-दो घंटे और रही तो गलियाँ उफनाने लगेंगी, किसी नदी की तरह. मामा जी कुछ देर बैठे. हाहा-हीही हुई आपस में, इसी बहाने चाय पी गई और मामा के जाने के बाद ऑपरेशन जेनरेटर शुरू किया गया.

छोटे भाइयों और हमारे साले ने भीगते हुए मेहनत करके जेनरेटर को घर के अन्दर प्रवेश करवाया. कुछ देर को छाया अँधेरा फिर उजाले में बदल गया. पानी रात भर अपनी रफ़्तार से बरसता रहा. हम तो अपने आपसे कहीं आने-जाने की स्थिति में थे नहीं, कमरे में अपने पलंग पर अधलेटी मुद्रा में मौसम का आनंद ले रहे थे. कमरे के दरवाजे, खिड़की से पानी का रौद्र रूप अब उस तरह का नहीं दिख रहा था, जैसा कि रात में था. इन्हीं लोगों ने बताया कि बाहर गली तो गायब ही है, घर पर चढ़ने की सीढ़ियाँ भी गायब हैं बस नदी सी बह रही है.

उस दिन शायद रविवार था. पानी भी अब हल्का हो गया था. कुछ देर बाद मामा जी अपनी पेंट घुटनों तक चढ़ाए मुस्कुराते हुए आये. आते ही उन्होंने मजाकिया अंदाज में छेड़ा कि देखा बचा लिया जेनरेटर न तो दुकान वाला आकर वसूल लेता. हम लोगों ने भी मामा को परेशान करना शुरू कर दिया. कोई कहे मामा जी ने बहुत दिनों से नहाया नहीं था, इसलिए पानी बरसाया है. कोई कहे मामा जी को तैरने का मन है, अब खूब तैरेंगे. कोई कहे कि मामा जी अब इसी नदी में तैर कर बैंक चले जाया करेंगे. इसी मौज-मस्ती में दिन गुजरता हुआ सूखी शाम तक आ पहुँचा और अपने साथ लाइट भी ले आया.

इसी तरह कभी कुछ समस्याओं, परेशानियों और अपनों के हँसी-मजाक के साथ उन लगभग तीन महीनों को निकाला गया. सच है, जब अपने साथ हों तो सारे कष्ट छोटे लगते हैं.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

2 comments:

  1. कठिनाई के समय में हँसी मज़ाक मन और माहौल बादल देता है. अच्छी यादें.

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    1. सही बात. उस समय भी हम लोग ध्यान रखते थे कि किसी के सामने दुखी न रहा जाये.

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