24 - सफलता से पूरा हुआ मिशन स्टैंड अप

दिन-रात अपनी गति से ही चल रहे थे. किसी-किसी दिन लगता कि जल्द से सबकुछ सही हो और वापस उरई पहुंचें, चलना-फिरना शुरू करें, अपने काम पर फिर जुट जाएँ. यदि सोचने भर से ही बात बननी होती तो फिर जाने कब के सही हो जाते. घाव सही हो रहे थे पर अपनी ही गति से. बाँयी जाँघ में भी स्किन ग्राफ्टिंग ने अपनी पकड़ बना ली थी. दाहिने पंजे में घाव अब बहुत कम रह गया था. अंततः वह दिन भी आ गया जबकि हम बहुत दिनों बाद अपने पैर (पैरों तो नहीं कहेंगे क्योंकि खड़े तो एक पैर पर ही हुए थे) पर खड़े हुए.


तीन महीने से अधिक समय होने को आया था. अपने आँसू छिपा सामने वाले के आँसू पोंछते हुए, एक-दूसरे को दिलासा देते, हँसते-हँसाते इसी इंतजार में रहते थे कि कब वह दिन आये जबकि कानपुर से उरई जाने को हरी झंडी मिले. घावों की स्थिति देखने के बाद ये तय हो गया कि अब नर्सिंग होम की, ऑपरेशन की, स्किन ग्राफ्टिंग आदि की आवश्यकता नहीं है. जितनी ड्रेसिंग होती है वह उरई में भी संभव थी. इसके अलावा उस समय प्रत्येक शनिवार-रविवार रवि का उरई आना होता था. ऐसे में उसके द्वारा सुधार की स्थिति पर नजर रखी जा सकती थी.

दोपहर में नर्सिंग होम जाना हुआ. उस दिन दाहिने पंजे से फ्रेम भी हटना था, एड़ी में पड़ी लोहे की कील भी निकाली जानी थी, हमें अपने पैर पर खड़ा भी किया जाना था. हम सोच रहे थे कि हमें बेहोश करके या उस जगह को सुन्न करके कील को निकाला जायेगा. ऑपरेशन टेबल पर लेटे –लेटे रवि से बातें भी हो रहीं थीं, उसका अपना काम चल रहा था. वह आगे के बारे में बताता, समझाता जा रहा था कि पैर के साथ किस तरह का व्यायाम करना है, कैसे बाँयी जाँघ के बचे घाव की ड्रेसिंग करवानी है, उसे बचाए रखना है. उस समय वह दाहिने पंजे की ही सफाई करने में लगा था. बात करते-करते वह कुछ सेकेण्ड को शांत हुआ और एड़ी में पड़ी कील निकाल कर बगल की ट्रे में गिरा दी. हमें जबरदस्त आश्चर्य हुआ कि बिना किसी दर्द के, बिना किसी तकलीफ के वह निकल आई. कील को छोटे भाई ने उठाकर दिखाया तो एकबारगी विश्वास न हुआ कि वह हमारे पैर में इतने दिनों से लगी हुई थी.


दाहिना पंजा बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुका था. जोड़ से टूट कर लटक चुका था. हड्डियाँ छोटे-छोटे हिस्सों में बिखरी हुईं थीं. ऊपर के हिस्से पर न माँस का नामोनिशान बचा था, न खाल का, न किसी तरह की नसों का. अब भी खाल के नाम पर वही कुछ था जो स्किन ग्राफ्टिंग के रूप में चिपकाया गया था. हड्डियाँ उतनी ही मजबूत थीं जितनी कि फ्रेम के सहारे से हुई होंगीं. पंजे को गति देने वाली नसों के न होने के कारण उसके लटकने का भी अंदेशा बना हुआ था. ऐसी स्थिति में पंजे को, पैर को मजबूती देने के लिए रवि ने एक जूता बनवाया था. इसमें एड़ी के पास से एक क्लैम्प लगी हुई थी जो घुटने के नीचे तक आती थी. जूते के आगे के हिस्से में (उँगलियों के पास वाले भाग में) एक स्प्रिंग लगी हुई थी जो घुटने के नीचे तक आये क्लैम्प से जुड़ी हुई थी. यही स्प्रिंग पंजे को ऊपर की तरफ खींचे रहती थी. इस जूते को लम्बे समय तक पहनना था, जिससे पंजे के लटकने की आशंका कम हो, उसमें सुधार होने की सम्भावना बढ़ जाए.

कील निकाले जाने, ड्रेसिंग होने, पट्टी बांधे जाने के बाद का अगला चरण हमको खड़ा किये जाने का था. मिशन स्टैंडअप के लिए उलटी गिनती शुरू हो चुकी थी. हमारा बैठना हुआ, दाहिने पंजे को उसी बनवाए गए जूते में डाला और कस-कसा कर खड़े होने को तैयार हो गए. यह सोचना ही अपने आपमें बहुत अच्छा लग रहा था कि अब हम अपने पैर पर खड़े हो सकेंगे. इसके साथ ही पंजे की स्थिति, शरीर का भार सहने की उसकी स्थिति, तीन महीने से अधिक की अवधि के बाद हमें खड़े होने पर हमारी अपनी शारीरिक स्थिति आदि को लेकर एक संशय भी बना हुआ था.

बहरहाल, रवि के और छोटे भाई के कन्धों का सहारा लेकर हम खड़े हुए. महीनों बाद धरती पर हमारा पैर पड़ा था. महीनों बाद हम स्ट्रैचर पर लेटने के बजाय उसके बगल में खड़े हुए थे. कुछ देर सहारा देने के बाद रवि ने खुद को अलग करते हुए छोटे भाई से भी अपना कन्धा हटाकर हाथ से पकड़ने को कहा. अब हम छोटे भाई का हाथ पकड़े अपना संतुलन बनाने में सफल रहे. लगभग तीन-चार मिनट तक बिना किसी परेशानी के खड़े होने के दौरान तीन जोड़ी आँखें एक-दूसरे से अपनी नमी छिपाते हुए नम हुई जा रही थीं. हमें न चक्कर आये, न मिचली जैसी स्थिति, न पंजे के अत्यधिक दर्द जैसी महसूस हुआ, न गिरने जैसा एहसास हुआ. कुल मिलाकर महीनों बाद हमारे खड़े होने का मिशन सफल रहा.  

नर्सिंग होम में रवि ने अपने सामने कई-कई बार हमें इस टेस्टिंग से गुजारा और हम हर बार सफलतापूर्वक उसके टेस्ट पास करते रहे. एक आशंका अपने पैर की स्थिति के बाद खुद के फिर से खड़े होने को लेकर थी वह दूर हुई. अपने विश्वास के खजाने में खुद के फिर से खड़े हो सकने का विश्वास जोड़ कर हम घर लौट आये.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

4 comments:

  1. वाह रे! बहुत बहादुर हो ।

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  2. अपने पैर पर खड़े हो पाए, उस वक़्त का एहसास कितना सुखद रहा होगा. आपकी मजबूती कायम रहे.

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    1. वाकई, न केवल हमारी बल्कि उस समय हमारे दोस्त, छोटे भाई की स्थिति भी अलग ही थी. घर पर भी जब खड़े होने का अभ्यास शुरू किया तो शेष परिजनों के चेहरे पर सुखद अनुभूति देखी थी.

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