23 - ख्वाहिश है उसकी छवि नजरों में छिपा लेने की

कुछ काम न होने के बाद भी एक दिनचर्या बनी हुई थी. इसे बनाये रखना भी आवश्यक था. खुद की सेहत के लिए साथ ही परिवार की सेहत के लिए. डेढ़-दो महीने बाद स्थिति में इतना सुधार हो गया था कि कुछ देर सहारा लेकर बैठ लेते थे. लेटने की आदत कभी न रही तो लेटे-लेटे उलझन बहुत होती थी. अब जब बैठने की स्थिति बन गई तो कुछ दिन बाद इसमें भी ऊबन होने लगी. इसी ऊबन से बचने के लिए कोशिश करते कुछ पढ़ने की, कुछ लिखने की.


यात्रा करते समय एक आदत अभी भी बनी हुई है, किताबें साथ लेकर चलने की. स्टेशन पर किताबें खरीदने की, यात्रा में उनको पढ़ने की. उस दिन भी हम अपने साथ एक उपन्यास लेकर घर से निकले थे. ट्रेन में बैठना ही नहीं हो सका था सो उस उपन्यास को खोल कर देख भी नहीं पाए थे. ऐसे में स्वास्थ्य लाभ लेते समय उसी उपन्यास को पढ़ने का मन बनाया. उपन्यास पढ़ना शुरू किया तो कुछ देर में ही सिर चकराने लगा. ऐसा कई बार हुआ.

लिखने-पढ़ने के दौरान कुछ मिनट बाद ही सिर चकराने लगता था. इस सिर चकराने को पहले दुर्घटना की चोट से जोड़कर देखा, समझा. इसी में एक दिन पढ़ने का काम बिना चश्मे के किया तो सिर चकराने वाली स्थिति लगभग न के बराबर रही. असल में उन दिनों हम पढ़ते समय चश्मा लगाते थे. आँखों के लाल हो जाने की समस्या के चलते हमें डॉक्टर ने पढ़ते समय, टीवी देखते समय इसका परामर्श दिया था. चूँकि उस दौर में हमारे पास कम्प्यूटर भी नहीं था और मोबाइल भी स्मार्ट न हो सका था, टीवी देखने का शौक कभी न रहा सो पढ़ते समय चश्मा लगा लिया करते थे. अब जबकि बिना चश्मे के पढ़ने में कोई समस्या नहीं और चश्मा लगाकर पढ़ने पर सिर चकराने जैसी स्थिति ने असमंजस में डाल दिया. इस दुविधा का इलाज तब हुआ जबकि हम उरई आ गए. उरई आने पर नेत्र चिकित्सक को दिखाने पर परिणाम चौंकाने वाले मिले. अभी तक हमें जिस चश्मे को लगाने की सलाह डॉक्टर से मिली थी वह +0.5 पॉवर का और 900 एक्सिस का था. उरई में जाँच करवाने पर यह -0.5 पॉवर का और 1800 एक्सिस का हो गया. डॉक्टर को निवर्तमान चश्मे से परिचित करवाया तो वे भी चौंक उठे. उन्हें भी समझ न आया आँखों में आये इस परिवर्तन का.


फिलहाल, इस बारे में आगे फिर कभी, उरई पहुँचने पर. अभी तो हम आपको कानपुर ही लिए चलते हैं. कानपुर में आराम से थोड़ा-थोड़ा करके पढ़ते रहे. मोबाइल से दोस्तों से बात होती रहती थी. ऐसे लोगों से जिनसे बात संभव नहीं थी, उनके साथ पत्राचार चलता रहता. इसी से सम्बंधित एक रोचक घटना हुई. हमारे एक अभिन्न मित्र का उसी समय विवाह हुआ था. विवाह के बाद हमारा उसके पास घूमने जाने का इरादा था मगर इस दुर्घटना के कारण प्लान मटियामेट हो गया. दूरी होने के कारण उन लोगों से फोन से नियमित रूप से बात होती रहती थी. उसी बातचीत में एक दिन भाभी ने हमसे कहा कि हमें पता चला है कि आप कविताएँ भी लिखते हैं. एक कविता हमारे लिए भी लिख कर भेज दीजिए.

अब पता नहीं कि उन्होंने इसे सीरियसली कहा या मजाक में, ये सोचकर हम उनकी बात को टालते रहे. उनके दो-तीन बार कहने-टोकने के बाद एक दिन हमने उनके लिए ग़ज़ल रच ही दी. लिखने की पीड़ा के बीच उपजी वे पंक्तियाँ कुछ इस तरह की रहीं-

हूर के नूर के नज़ारे को सारे नज़ारे चले,
दिन में फूल बने, रात को चाँद-सितारे बन चले.

उसकी आँखों की हर इक अदा है कातिल,
उठे तो सुबह बने, झुके तो शाम नशीली चले.

चलना निराला, चल के रुकने की अदा निराली,
बलखाती नदी की हर लहर चलने-रुकने पर मचले.

ख्वाहिश है उसकी छवि नजरों में छिपा लेने की,
फिर सोचता हूँ कहीं दूर किसी का दिल न जले.

बातचीत के दौरान पता चला कि वे इसे पढ़-पढ़कर शरमाती रहीं. चूँकि भाभी से हमारी बातचीत उनकी शादी तय होने के बाद से होती रहती थी, शादी के बाद कुछ दिन उनके साथ बीते थे, इस कारण आपस में हँसी-मजाक होता रहता था. उसी में हमने उनके लिए बहुत संजीदा टाइप की रचना न लिखकर इसे लिखना पसंद किया.

दुर्घटना के बाद की ये पहली रचना है जो हमने कानपुर में ही लिखी गई. अपनी चोटिल अवस्था में लिखी गई. उँगलियों के दर्द के बीच लिखी गई. एक-एक पंक्ति में कई-कई बार रुक-रुक कर लिखी गई. अपने मूल रूप में यह रचना आज भी हमारे पास सुरक्षित है. इस कारण नहीं कि यह दुर्घटना के बाद की पहली रचना है बल्कि इसलिए कि यह हमारे संबंधों, रिश्तों की विश्वसनीयता का आधार दर्शाती है.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर और प्यारी रचना. कुछ अच्छी यादें भी साथ चल रही हैं.

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    1. हाहाहा, सही कहा आपने. किसी भी परेशानी को ढोने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. खुश रहने का प्रयास होना चाहिए. इससे सबकुछ अच्छा ही लगता है.

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