25 - खुद से लड़ना और जीतना-हारना खुद से

कानपुर से उरई लौटने की तैयारी होने लगी थी. उन्हीं तैयारियों में हमारे चलने-फिरने का इंतजाम भी किया जाना था. चूँकि अभी अपने पैरों से चलना संभव नहीं था ऐसे में चलने-फिरने के लिए व्हील चेयर का इंतजाम किया गया. जिस दिन व्हील चेयर लाई गई उस दिन घर का माहौल कुछ उदास-उदास सा रहा. ऐसा किसी ने अपने शब्दों से महसूस न होने दिया मगर सभी की गतिविधियों से, चेहरे से, हाव-भाव से ऐसा ज़ाहिर हो रहा था. खुद हमारी स्थिति व्हील चेयर पर बैठने को लेकर बहुत सहज नहीं हो पा रही थी. 


कानपुर में मामा जी का घर काफी बड़ा था. जितने हिस्से में मकान बना हुआ था, उससे ज्यादा हिस्सा खुला हुआ था. सुबह-शाम वहाँ बैठकी लगती रहती थी. जब तक हमारे दाहिने पैर से फ्रेम और कील न निकली थी, तब दिक्कत थी बाहर जाने में मगर व्हील चेयर आने के बाद ये सहज समझ आया. इधर फ्रेम, कील भी निकल चुकी थी ऐसे में बनवाए गए जूते के सहारे खड़ा होना भी आसान था, पैर को लटकाना, जमीन पर टिकाए रखना भी सरल हो गया था. इसके बाद भी हमें व्हील चेयर का उपयोग करने में जबरदस्त झिझक हो रही थी. व्हील चेयर आये कई दिन हो गए थे और जब भी सुबह या फिर शाम को उसके सहारे बाहर लॉन में बैठने को कहा जाता था तो अपने आपमें बहुत ज्यादा असहजता महसूस होती थी.


ऐसा क्यों होता था, इस बारे में कुछ समझ नहीं आता था. कई बार लगता चलने-फिरने में खुद के बजाय किसी पर आश्रित हो जाना हमें कमजोर साबित करता था. कई बार ये भी लगता कि एथलेटिक्स में दस हजार मीटर की दूरी को हँसी-खेल से नाप देने वाला एथलीट अब एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने के लिए व्हील चेयर का सहारा लेगा. ऐसे न जाने कितने ख्याल हमारे भीतर उमड़ते रहते और हम खुद अपने आपसे लड़ते हुए हर बार व्हील चेयर पर बैठ कर बाहर आने का सबका आग्रह टाल देते. कई दिनों की ऐसी स्थिति के बाद बहुत अनमने भाव से मात्र एक दिन कुछ देर के लिए व्हील चेयर का सहारा लेकर लॉन में निकल शाम का नजारा अपने अन्दर भरते रहे. ऐसा बस एक दिन ही करने की हिम्मत अपने अन्दर ला सके.

कमजोर न होने के बाद भी एक कमजोरी सी महसूस हो रही थी. यह जानते हुए भी कि अब ऐसी स्थिति से लगातार सामना करना ही है एक असहजता बनी हुई थी. मन को धीरे-धीरे इसके लिए समझाते रहते, खुद को शांत भाव से ऐसे कई-कई उपकरणों के उपयोग करने के बारे में, उनके सहारे आगे बढ़ने के प्रति समझाते रहते. अपने भीतर खुद से लड़ने का विश्वास जगाते रहते. इसी सबके बीच वह दिन भी आया जबकि हम कानपुर में निवास कर रहे सभी परिजनों की आँखों में आँसू देकर उरई को चल दिए. अब तमाम जिम्मेवारियाँ, तमाम दायित्व हमारा इंतजार कर रहे थे. कानूनी, पारिवारिक, सामाजिक कार्यों की लम्बी सूची भी हमारे कन्धों पर अपना बोझ लादने को तैयार हो रही थी.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

4 comments:

  1. जीवन में आई सभी कठिनाइयों को आपने पार किया. हौसला हो तो सब होता है.

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  2. गिरकर उठकर चलने का में ही ज़िन्दगी है।

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