34 - दुनिया में कितना ग़म है, मेरा ग़म कितना कम है

हमारे और एलिम्को के बीच संपर्क का माध्यम फोन बना हुआ था. कृत्रिम पैर बन जाने की सूचना मिलने के बाद फिर कानपुर जाना हुआ. दिमाग में यह था कि एलिम्को जाकर पैर पहनना है और फिर चलते हुए वापस लौटना है. इसके पहले कभी किसी से इस सम्बन्ध में बातचीत का मौका ही नहीं लगा था जिससे इस स्थिति के बारे में जानकारी की जा सकती. निश्चित तिथि को एलिम्को जाना हुआ. वहाँ अपने उस साथी से परिचय हुआ जिसके सहारे अब हमारा चलना संभव हो सकेगा.


एलिम्को के सक्रिय और सहृदय कर्मियों द्वारा पैर को पहनाया गया. वहाँ के एक हॉल में एक किनारे  बने स्थान पर चलने का अभ्यास करवाया गया. उसके पहले हमारे खड़े होने, हमारी लम्बाई के अनुसार पैर को समायोजित किया गया, कैसे पहनना है, कैसे लॉक लगाना है, कैसे उसके सहारे पैर को आगे बढ़ाना है आदि मूल बातों को सहजता से, बड़े ही अपनत्व भाव से समझाया गया.

सबकुछ एकदम नया होने के बाद अजूबा भी लग रहा था और संवेदित भी कर रहा था. आरंभिक कुछ कसरतों के बाद पैर का पहनना, उसे पहन कर खड़े होना, बिना किसी सहारे के कुछ मिनट के लिए खड़े होने का आरंभिक अभ्यास एलिम्को के उस हॉल में शुरू हो गया. हॉल के एक तरफ एक स्थान पर लगभग बीस-पच्चीस फीट लम्बा लाल कार्पेट लगा हुआ था. जमीन की सतह से लगे एक लकड़ी के लगभग दो इंच मोटे और लगभग तीन फीट चौड़े बोर्ड पर इस कार्पेट को लगाया गया था. इसके दोनों किनारों पर पूरे बीस-पच्चीस फीट की लम्बाई में स्टील की रॉड कसी हुई थीं. इनको पकड़ के, इनका सहारा लेकर उसी जगह में चलने का अभ्यास किया जाना था.


उस छोटे से गलियारे के एक तरफ से अभ्यास शुरू करके वापस उसी जगह पर आना होता था. कृत्रिम पैर पहनने के बाद की अपनी पहली चालीस-पचास फीट की इस यात्रा में पूरा शरीर पसीने-पसीने हो गया. कभी पलक झपकने भर में इतनी दूरी नापने वाले कदमों को उस दिन कुछ मिनट लग गए. पहले चक्कर के दर्द के दौरान भीतर उपजी जिद ने बिना रुके तीन चक्कर लगा लिए. लगा कि इन तीन चक्करों में कई-कई किमी की दौड़ लगाई है. कुछ देर रुक कर चलने का अभ्यास फिर शुरू हुआ.

यह क्रम कई-कई बार चला. जब खुद को यह लगने लगा कि ऐसा अभ्यास सहजता से किया जा सकता है. यह भी एहसास हुआ कि इसे घर पर भी किया जा सकता है. एलिम्को में हमारी सहायता कर रहे वहाँ के एक कर्मी से अपनी बात रखते हुए कृत्रिम पैर को अपने साथ ले जाने की बात कही तो उन्होंने इसकी अनुमति न होने की बात कही. उन्होंने बताया कि चलने का अभ्यास यही आकर करना होगा. यह भी बताया कि ऐसा तब तक करना होगा जब तक कि वहाँ के डॉक्टर चलने की स्थिति से संतुष्ट नहीं हो जाते. बातचीत के क्रम में जानकारी हुई कि ऐसी स्थिति के आने के कई-कई दिन लग जाते हैं.

अब यह समस्या जान पड़ी. कहाँ तो दिमाग में यह बनाकर आये थे कि पैर बन गया है, चलने का आरंभिक अभ्यास करने के बाद हम अपना पैर लेकर चले आयेंगे. यहाँ तो बिलकुल अलग बात बताई गई. हम जिज्जी-जीजा जी के पास रुके हुए थे और उनका निवास यशोदा नगर में था. समस्या यह थी कि एलिम्को वहाँ से ठीक दूसरे छोर पर बना हुआ था. यद्यपि एलिम्को में रुकने की व्यवस्था भी थी मगर जीजा जी ने स्पष्ट शब्दों में वहाँ रुकने को नकारते हुए रोज एलिम्को लाने का आश्वासन एलिम्को कर्मियों को दिया.

जिज्जी और जीजा जी कृत्रिम पैर के साथ चलने के अभ्यास के उस कुरुक्षेत्र में हमारे लिए श्रीकृष्ण सरीखे सारथी बनकर सजग बने रहे. कृत्रिम पैर से चलने का यह अभ्यास बीस-पच्चीस दिनों तक चला. इतने दिनों नियमित रूप से जीजा जी हमें कानपुर के भीषण ट्रैफिक से निकालते हुए समय से एलिम्को पहुँचाते और पूरे दिन हमारे साथ वहीं रुकते हुए शाम को सुरक्षित घर ले आते.

उस पहले दिन भी हम सब एक कोमल सी ख़ुशी लेकर घर लौट आये. महसूस हो रहा था कि अब कष्टों से मुक्ति मिलने वाली है. अपने पहले दिन के अभ्यास से, चलने से एक संतुष्टि मिली. इस संतुष्टि ने एहसास करवाया कि कृत्रिम पैर के सहारे चलना जल्द होने लगेगा, सहजता से होने लगेगा. यह भी लगा कि एक हफ्ते में ही एलिम्को से हमें रिलीव कर दिया जायेगा. तमाम सारे विचारों पर, सोच पर अगले दिन के अभ्यास और उसके बाद के दिनों के अनुभवों ने विराम सा लगा दिया.

दुर्घटना के समय उपजे शारीरिक कष्ट, दर्द से कहीं अधिक दर्द उन दिनों में अनुभव किया, जो आजतक साथ है. एलिम्को के उन दिनों ने बहुत से अनुभवों से परिचय करवाया. लोगों के दर्द, पीड़ा, मनोदशा, पारिवारिक दशा, सामाजिक स्थिति से भी परिचय करवाया. बच्चों से लेकर वृद्धजन तक उन दिनों में इसी कृत्रिमता के साथ आते-जाते रहे. एक गीत की पंक्ति वहाँ सदैव याद आती रही, दुनिया में कितना ग़म है, मेरा ग़म कितना कम है.

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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

7 comments:

  1. Kumar you are the real brave heart ...keep this passion of livelihood up.. you are the Source of inspiration for many of us....JINDAGI JINDABAD

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  2. बहुत विषम समय था जिसे तुम्हारी हिम्मत ने निकाल लिया... . जीजाजी जैसे अपने बहुत कम होते हैं.... इस दृष्टि से तुम सौभाग्यशाली हो.

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  3. किन किन अवस्थाओं से मन गुज़र रहा होगा, यह सब सोचकर बहुत पीड़ा होती है। लेकिन ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद। और आपके साहस को नमन।

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  4. बहुत प्रेरणा मिलती है ऐसे संस्मरणों से।आप हिम्मत बाँटते चल रहे हैं। नमन आपकी हिम्मत,आपकी जिजीविषा को...!

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  5. विषम परिस्थितियों में जी जीवन की कठोरता का अनुभव होता है और जीने की प्रेरणा भी मिलती है ... आपका संस्मरण किसी को भी सहज प्रेरणा देता है जीवन हर हाल में जीने की ...

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  6. तुम्हारी हिम्मत को सलाम करती हूँ । तुम्हारे हौसले से प्रेरणा ली जा सकती है । अभी एक युवक और है , यद्यपि उसकी स्थिति अलग है, फिर भी मैंनं उसे तुम्हें पढने की सलाह दी है ।

    -- रेखा

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