35 - प्रतिद्वंद्विता दर्द से और ज़िद चलते रहने की

एलिम्को के बाहर की दुनिया ही अकेली दर्द भरी नहीं दिखाई देती थी, एलिम्को के भीतर की दुनिया भी उसी दर्द से भरी नजर आई. वहाँ जैसे-जैसे दिन निकलते जा रहे थे वैसे-वैसे बहुत सारे लोगों के दर्द से परिचय होता जा रहा था. किसी का दर्द को अपने से कम समझ नहीं आ रहा था. कृत्रिम पैर पहनने, उसके साथ चलने के सुखद एहसास भरे पहले दिन उस हॉल में हम अकेले ही थे जो उस शारीरिक स्थिति से लड़ते हुए आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे थे. दूसरे दिन जब एलिम्को के उस हॉल में व्हील चेयर के सहारे पहुँचना हुआ तो चलने के अभ्यास के लिए बनी जगह पर एक हमउम्र को अभ्यास करते पाया. घुटने के नीचे से उसका पैर कटा हुआ था.


कुर्सी पर बैठकर पैर पहनने की प्रक्रिया को पूरा करते हुए खुद को वहाँ के वातावरण के साथ समायोजित करने का प्रयास करने लगे. चलने के अभ्यास के कष्ट से, दिन भर वही एक जैसी कसरत से दो-चार होने की मानसिकता पर अपना नियंत्रण बनाते हुए पैर पहन कर निश्चित जगह पर पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गए. इस बीच ध्यान दिया कि उस युवक का समय चलने के अभ्यास से अधिक मोबाइल पर बात करने में गुजरता था. बातचीत भी निर्देश देने के रूप में होती, किसी काम को बताये जाने के रूप में होती. चंद मिनट बाद वह दूसरी तरफ पड़ी कुर्सी पर बैठ गया और हमने अपनी पारी आरम्भ की. शारीरिक स्थिति पहले दिन जैसी ही रही. एक-दो चक्कर में ही पूरा शरीर पसीने से तरबतर हो गया. दाहिने पंजे में, घुटने में दर्द का एहसास किसी ताजा चोट की तरफ से समझ आने लगा. दो चक्कर बाद ही अपनी कुर्सी पर फिर बैठना हुआ. हमारे बैठते ही उस युवक ने अपना अभ्यास दोहराया. क्रमिक रूप से एक के बैठने पर दूसरा व्यक्ति अपना अभ्यास शुरू कर देता.


पिछले कुछ महीनों से खड़े होने का अभ्यास निरंतर किया जा रहा था. दाहिने पंजे में दर्द बना रहता था मगर उन दो दिनों में चलने के दौरान पंजे के साथ-साथ घुटने में जिस तीव्रता से दर्द होना शुरू हुआ वह चिंताजनक था. दर्द की स्थिति यह रहती कि कुछ फीट बने उस गलियारे में दोनों तरफ लगी स्टील रॉड पकड़ कर भी चलना मुश्किल होता था. एक-एक कदम बढ़ाने में ऐसा लगता कोई घुटने में लोहे का मोटा सूजा घुसेड़ रहा हो. अपने दर्द को खुद में सहन करते हुए उसका आभास अपने साथ किसी को नहीं होने दिया. शुरू के कुछ दिनों में एक-दो चक्कर लगाने के बाद हमारा बैठना सबको सामान्य लगा क्योंकि लगभग एक साल बाद चलना हो रहा था. ऐसे में परेशानी, दर्द, कष्ट और कृत्रिम पैर के सहारे चलने में अटपटा सा लगना स्वाभाविक था. चार-पाँच दिन बाद भी चलने की वही स्थिति देखकर सबको समझ आने लगा कि कहीं न कहीं कोई समस्या हो रही है. सो अपने दर्द के बारे में घरवालों को एक इशारा कर दिया. दर्द की तीव्रता के बारे में, अपने डर के बारे में कोई चर्चा नहीं की.

चार-पाँच दिन बाद भी जब वैसी स्थिति बनी रही तो हमें भी डर लगा. अन्दर ही अन्दर डर ये लग रहा था कि कहीं दाहिने घुटने में किसी तरह की ऐसी कमी तो नहीं आ गई या फिर कुछ ऐसी गड़बड़ तो नहीं हो गई जिस कारण चलना संभव न हो सके. शुरू में हमें लगा कि बहुत दिनों बाद चलने के कारण दर्द हो रहा है, चोट के कारण भी दर्द हो सकता है या फिर दाहिने पंजे के चोटिल होने के कारण भी घुटने पर ज्यादा जोर होने के कारण दर्द हो रहा हो. कुछ दिन बाद जब लगा कि दर्द कम होने के नाम ही नहीं ले रहा है तो इस बारे में अपने दोस्त रवि को खबर की. पाँच-छह दिन दर्द सहन करने के बाद एक दिन रवि की बताई दवा भी मँगवा ली. दर्द की तीव्रता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि आधे घंटे के भीतर 1200mg की खुराक खाने के बाद भी दर्द में रत्ती भर भी आराम नहीं मिलता. किसी-किसी समय तो एक पैर बढ़ाना भी दुष्कर समझ आता. ऐसी स्थिति में दोनों हाथों से स्टील की रॉड पकड़े वहीं खड़े हो जाते. कभी-कभी खड़े रहना भी कठिन होता तो उसी जगह कुर्सी डलवा कर बैठ जाते.

कई बार वह युवक अभ्यास के लिए नहीं आया होता तो पूरी जगह का हम अपनी तरह से उपयोग करते. उसके होने पर हम दोनों ही एक-दूसरे का ध्यान रखते हुए अभ्यास करने का समय देते. हम दोनों एक जैसे कष्ट से गुजर रहे थे और फिर एक जगह पर ही क्रम से अपना-अपना अभ्यास भी करते जा रहे थे. ऐसे में एक-दूसरे के बारे में जानने की प्रक्रिया भी शुरू हुई. कानपुर के पास उन्नाव में वह ठेकेदारी किया करता है. अपनी दुर्घटना के बारे में उसने बताया कि वह रात को खाना खाकर सो गया था. लगभग ग्यारह बजे करीब उसका भरोसेमंद व्यक्ति उसके पास आया. अगले दिन से सावन का महीना लगने वाला था. इस कारण से वह व्यक्ति चिकन पार्टी देने की जिद करने लगा. युवक ने उसको पैसे और कार की चाभी देते हुए अकेले जाने को कहा तो वह व्यक्ति तैयार न हुआ. उसकी जिद पर वह युवक भी साथ चल दिया. उसने बताया कि वे लोग हाईवे पर पहुँचे ही हैं कि एक ट्रक ने टक्कर मार दी. कार चलाने वाले उसके भरोसेमंद व्यक्ति की दुर्घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई और उस युवक को उसका पैर काटकर निकालना पड़ा. लगा कि कैसे अनहोनी खुद लेने आ जाती है.

चलने की, पैर लगने की जितनी ख़ुशी महसूस हो रही थी, उससे ज्यादा शंका घुटने के दर्द ने पैदा कर दी. चलते समय भविष्य के तमाम काम, सपने आँखों के सामने तैरते रहते. घुटने का दर्द दिमाग पर हावी न होने पाए, इस कारण उस तरफ से ध्यान हटाते हुए बस किसी भी तरह अपने चलने के अभ्यास पर लगाने का प्रयास करते. दर्द के उन क्षणों को एलिम्को में उन दिनों आने वाले अन्य लोगों ने भी कम करने में अप्रत्यक्ष योगदान दिया.


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ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद @ कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

2 comments:

  1. ज़िंदगी के कुछ पल ऐसे होते हैं जो उम्र भर साथ रहते हैं यादों में ताज़ा ...

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  2. तीव्र शारीरिक और मानसिक पीडा़ एकसाथ सहकर भी आगे बढ़ने का हौसला बना रहा, यह बहुत बड़ी बात है।

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